ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 86/ मन्त्र 6
ए॒वेन्द्रा॒ग्निभ्या॒महा॑वि ह॒व्यं शू॒ष्यं॑ घृ॒तं न पू॒तमद्रि॑भिः। ता सू॒रिषु॒ श्रवो॑ बृ॒हद्र॒यिं गृ॒णत्सु॑ दिधृत॒मिषं॑ गृ॒णत्सु॑ दिधृतम् ॥६॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । इ॒न्द्रा॒ग्निऽभ्या॑म् । अहा॑वि । ह॒व्यम् । सू॒ष्य॑म् । घ्ऋ॒तम् । न । पू॒तम् । अद्रि॑ऽभिः । ता । सू॒रिषु॑ । श्रवः॑ । बृ॒हत् । र॒यिम् । गृ॒णत्ऽसु॑ । दि॒धृ॒त॒म् । इष॑म् । गृ॒णत्ऽसु॑ । दि॒धृ॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
एवेन्द्राग्निभ्यामहावि हव्यं शूष्यं घृतं न पूतमद्रिभिः। ता सूरिषु श्रवो बृहद्रयिं गृणत्सु दिधृतमिषं गृणत्सु दिधृतम् ॥६॥
स्वर रहित पद पाठएव। इन्द्राग्निऽभ्याम्। अहा। वि। हव्यम्। शूष्यम्। घृतम्। न। पूतम्। अद्रिऽभिः। ता। सूरिषु। श्रवः। बृहत्। रयिम्। गृणत्ऽसु। दिधृतम्। इषम्। गृणत्ऽसु। दिधृतम् ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 86; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 32; मन्त्र » 6
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 32; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! याभ्यामिन्द्राग्निभ्यामहाऽद्रिभिर्घृतन्न पूतं हव्यं शूष्यं श्रवो जायते गृणत्सु सूरिषु बृहद्रयिं यौ दिधृतं सूरिषु गृणत्स्विषं वि दिधृतं ता एव यथावद्वेदितव्यौ ॥६॥
पदार्थः
(एव) (इन्द्राग्निभ्याम्) सूर्य्याग्निभ्याम् (अहा) अहानि (वि) (हव्यम्) हव्यं ग्रहीतुमर्हम् (शूष्यम्) शूषे बले भवम् (घृतम्) आज्यम् (न) इव (पूतम्) पवित्रम् (अद्रिभिः) मेघैः (ता) तौ (सूरिषु) विद्वत्सु (श्रवः) अन्नम् (बृहत्) महत् (रयिम्) (गृणत्सु) स्तुवत्सु (दिधृतम्) धरतम् (इषम्) विज्ञानम् (गृणत्सु) (दिधृतम्) ॥६॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यदि विद्वत्सु यूयं निवसतः तर्हि विद्युन्मेघादिविद्यां विजानीत ॥६॥ अत्रेन्द्राग्निविद्युद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति षडशीतितमं सूक्तं द्वात्रिंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जिन (इन्द्राग्निभ्याम्) सूर्य्य और अग्नि से (अहा) दिनों को और (अद्रिभिः) मेघों से (घृतम्) घृत जैसे (न) वैसे (पूतम्) पवित्र (हव्यम्) ग्रहण करने योग्य (शूष्यम्) बल में उत्पन्न (श्रवः) अन्न होता है तथा (गृणत्सु) प्रशंसा करते हुए (सूरिषु) विद्वानों में (बृहत्) बड़े (रयिम्) धन को जो दोनों (दिधृतम्) धारण करें तथा (गृणत्सु) स्तुति करते हुए विद्वानों में (इषम्) विज्ञान को (वि, दिधृतम्) विशेष धारण करें (ता) वे दोनों (एव) ही यथावत् जानने के योग्य हैं ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जो विद्वानों में आप लोग निवास करें तो बिजुली और मेघ आदि की विद्या को जानें ॥६॥ इस सूक्त में इन्द्र, अग्नि और बिजुली के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह छियाशीवाँ सूक्त और बत्तीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
दोनों एक दूसरे के पूरक हैं ।
भावार्थ
भा०- ( इन्द्राग्निभ्याम् एव ) उन दोनों ऐश्वर्यवान् शत्रुविदारक इन्द्र और अग्निवत् तेजस्वी, ज्ञान प्रकाशक क्षत्र और ब्रह्म दोनों से (एव) ही ( अद्रिभिः पूतं घृतं न ) मेघों से प्राप्त जल तथा (अद्विभिः पूतं घृतं न ) प्रस्तर खण्डों से कुटे छने द्रवित हुए ओषधि रस के समान (हव्यं ) खाने योग्य (शूष्यं) बलकारक अद्यवत् ज्ञान और बल प्राप्त होते हैं । ( ता ) वे दोनों (गृणत्सु सूरिषु ) उपदेश करने वाले विद्वानों में ( बृहत् श्रवः ) बड़ा भारी श्रवण करने योग्य ज्ञान और यश और अन्न (बृहत् रयिम्) बड़ा भारी धन ( दिधृतम् ) धारण करें और वे (गृणत्सु इपं दिधृतम्) उपदेष्टा जनों के निमित्त (इषं ) प्रबल इच्छा प्रेरणा या शासन बल, अन्न और सैन्य को भी ( दिधृतम् ) धारण करें । इति द्वात्रिंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अत्रिर्ऋषिः । इन्द्राग्नी देवते ॥ छन्द:–१, ४, ५ स्वराडुष्णिक् । २, ३ विराडनुष्टुप् । ६ विराट् पूर्वानुष्टुप् ॥
विषय
श्रवः, रयिं, इषम्
पदार्थ
[१] (एवा) = इस प्रकार (इन्द्राग्निभ्याम्) = इन्द्र व अग्नि तत्त्वों के हेतु से (हव्यं अहावि) = हव्य पदार्थ ही जठर की वैश्वानर अग्नि में आहुत किये जाते हैं। अर्थात् सात्त्विक पदार्थों के सेवन से हम बल व प्रकाश का वर्धन करनेवाले होते हैं। (अद्रिभि:) = [to adore] उपासकों से (घृतं न) = घृत के समान (शूष्यम्) = शत्रुशोषक बल में उत्तम (पूतम्) = पवित्र अन्न ही अपने में आहुत किया जाता है। घृत तथा 'शूष्य हव्य पदार्थों का सेवन' हमारे अन्दर बल व प्रकाश को बढ़ाता है । [२] ता= वे इन्द्र और अग्निः ! आप सूरिषु ज्ञानी पुरुषों में (श्रवः) = ज्ञान को धारण करें। (गृणत्सु) = स्तोताओं में (बृहद्रयिम्) = वृद्धि के कारणभूत ऐश्वर्य को (दिधृतम्) = धारण करें तथा इन (गृणत्सु) = स्तोताओं में (इषम्) = प्रेरणा को (दिधृतम्) = धारण करें। इन्द्र व अग्नि के विकास से हृदय की पवित्रता होकर, अन्तः स्थित प्रभु प्रेरणा के सुनने का सम्भव होता है।
भावार्थ
भावार्थ- घृत तथा हव्य पदार्थों का सेवन हमारे में बल व प्रकाश का वर्धन करता है । ये बल व प्रकाश के देव हमारे जीवनों में ज्ञान, ऐश्वर्य व प्रेरणा को प्राप्त करानेवाले होते हैं। गतमन्त्र के अनुसार ज्ञान, ऐश्वर्य व प्रेरणा को प्राप्त करनेवाला व्यक्ति सदा मार्ग से चलनेवाला होने से 'एवया' कहलाता है और इस मार्ग पर चलने के लिये यह प्राणों की साधना करनेवाला व्यक्ति मरुत् [प्राण] ही कहलाता है। यह एवयामरुत् प्राणों के विषय में कहता है -
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! तुम्ही विद्वानांचा संग केल्यास विद्युत, मेघ इत्यादीची विद्या जाणाल. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Thus homage of adoration is offered to Indra and Agni, scholars of earthly and spatial energy. From energies, by scholars is received strength, energy and power, materials for yajnic investment and development, ghrta, delicacies, like water showers sanctified by the clouds. May they, we pray, bring and bestow upon the scholars and celebrants high renown and abundant wealth, may they bring and bestow upon the admirers food and energy for a happy life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of scholar's duties are highlighted.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should know well the sun and fire by which days are upheld and with the help of the clouds, food materials are produced. They are worthy of acceptance, the pure and invigorating like the clarified butter. They uphold great wealth among the praising enlightened persons which uphold (distribute. Ed.) food among the singing and praising men.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
If you live among the highly learned persons, you can know the science of electricity and cloud etc.
Foot Notes
( इन्द्राग्निभ्याम्) सूर्य्याग्निभ्याम्।अथ यः सः इन्द्रोऽसौ स आदित् (Stph 8, 5, 3, 2) = The sun and fire. (अद्रिभिः) मेघैः अद्रिरिति मेघनाम (NG 1, 10) = By clouds. (श्रवः) अन्नम् । श्रव इत्यन्ननाम (NG 2, 7)। = Food.
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