ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 87/ मन्त्र 1
प्र वो॑ म॒हे म॒तयो॑ यन्तु॒ विष्ण॑वे म॒रुत्व॑ते गिरि॒जा ए॑व॒याम॑रुत्। प्र शर्धा॑य॒ प्रय॑ज्यवे सुखा॒दये॑ त॒वसे॑ भ॒न्ददि॑ष्टये॒ धुनि॑व्रताय॒ शव॑से ॥१॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वः॒ । म॒हे । म॒तयः॑ । य॒न्तु॒ । विष्ण॑वे । म॒रुत्व॑ते । गि॒रि॒ऽजाः । ए॒व॒याम॑रुत् । प्र । शर्धा॑य । प्रऽय॑ज्यवे । सु॒ऽखा॒दये॑ । त॒वसे॑ । भ॒न्दत्ऽइ॑ष्टये । धुनि॑ऽव्रताय । शव॑से ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वो महे मतयो यन्तु विष्णवे मरुत्वते गिरिजा एवयामरुत्। प्र शर्धाय प्रयज्यवे सुखादये तवसे भन्ददिष्टये धुनिव्रताय शवसे ॥१॥
स्वर रहित पद पाठप्र। वः। महे। मतयः। यन्तु। विष्णवे। मरुत्वते। गिरिऽजाः। एवयामरुत्। प्र। शर्धाय। प्रऽयज्यवे। सुऽखादये। तवसे। भन्दत्ऽइष्टये। धुनिऽव्रताय। शवसे ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 87; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 33; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 33; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मनुष्यान् कथं किं प्राप्नोतीत्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथा मरुत्वते महे विष्णवे विद्युद्रूपाग्नये गिरिजा यन्ति तथा वो मतयः प्र यन्तु यथैवयामरुच्छर्धाय प्रयज्यवे सुखादये तवसे भन्ददिष्टये धुनिव्रताय शवसे प्र भवति तथा यूयमप्येतस्मै प्र भवत ॥१॥
पदार्थः
(प्र) (वः) युष्मान् (महे) महते (मतयः) मनुष्या बुद्धयो वा (यन्तु) प्राप्नुवन्तु (विष्णवे) व्यापकाय (मरुत्वते) प्रशंसिता मनुष्या यस्मिँस्तस्मै (गिरिजाः) ये गिरौ मेघे जाताः (एवयामरुत्) य एवान् प्रापकान् यान्ति तेषां यो मरुन्मनुष्यः (प्र) (शर्धाय) बलाय (प्रयज्यवे) प्रयजन्ति येन तस्मै (सुखादये) यस्सुष्ठु खादति तस्मै (तवसे) बलिष्ठाय (भन्ददिष्टये) कल्याणसुखसङ्गतये (धुनिव्रताय) धुनानि कम्पितानि व्रतानि यस्य तस्मै (शवसे) बलाय ॥१॥
भावार्थः
यथा विद्युद्रूपाग्निं मेघोत्पन्ना गर्जनादिप्रभावा गच्छन्ति यतोऽग्नीवायुसाध्यास्ते तथा धीमतः पुरुषानन्ये सम्प्राप्नुवन्ति गुणप्रापको गुणिनमन्विच्छत्यत्युत्तमं बलं चाप्नोति ॥१॥
हिन्दी (1)
विषय
अब नव ऋचावाले सत्तासीवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को कैसे क्या प्राप्त होता है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (मरुत्वते) प्रशंसित मनुष्य जिसमें उस (महे) बड़े (विष्णवे) व्यापक बिजुलीरूप अग्नि के लिये (गिरिजाः) मेघ में उत्पन्न हुए प्राप्त होते हैं, वैसे (वः) आप लोगों को (मतयः) मनुष्य वा बुद्धियाँ (प्र, यन्तु) प्राप्त होवें और जैसे (एवयामरुत्) प्राप्त करानेवालों को प्राप्त होनेवालों का मनुष्य (शर्धाय) बल के और (प्रयज्यवे) अत्यन्त यजन करते हैं जिससे उस (सुखादये) उत्तम प्रकार खानेवाले (तवसे) बलिष्ठ के लिये तथा (भन्ददिष्टये) कल्याण और सुख की संगति के लिये (धुनिव्रताय) और कंपित व्रत जिसका उस (शवसे) बल के लिये (प्र) समर्थ होता है, वैसे आप लोग भी इसके लिये समर्थ हूजिये ॥१॥
भावार्थ
जैसे बिजुलीरूप अग्नि को मेघोत्पन्न गर्जनादि प्रभाव प्राप्त होते हैं, क्योंकि वे गर्जनादि प्रभाव अग्नि और वायु से सिद्ध होने योग्य हैं, वैसे बुद्धिमान् पुरुषों को अन्य पुरुष प्राप्त होते हैं। और गुण प्राप्त करानेवाला पुरुष गुणी पुरुष को ढूँढता है और अति उत्तम बल को भी प्राप्त होता है ॥१॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात वायू, विद्वान व परमेश्वराच्या उपासनेचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
जसे विद्युतरूपी अग्नीवर मेघांनी उत्पन्न झालेल्या गर्जनेचा प्रभाव असतो व गर्जना इत्यादी प्रभाव अग्नी व वायूने सिद्ध होण्यायोग्य असतात तसे बुद्धिमान पुरुषांना इतर पुरुष भेटतात व गुणप्रापक पुरुष गुणी पुरुषाला शोधतो व अति उत्तम बलही प्राप्त होते. ॥ १ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O vibrant man of vision, all ye men and women, let all your songs and flights of thought and vision bom of the voice of the heart reach Vishnu, all pervasive lord, commander of the winds and warriors, indomitable, highly majestic, adorable and cooperative, blissfully appreciative, relentlessly active and absolute in justice and power.
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