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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 87 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 87/ मन्त्र 9
    ऋषिः - एवयामरुदात्रेयः देवता - मरूतः छन्दः - भुरिग्जगती स्वरः - निषादः

    गन्ता॑ नो य॒ज्ञं य॑ज्ञियाः सु॒शमि॒ श्रोता॒ हव॑मर॒क्ष ए॑व॒याम॑रुत्। ज्येष्ठा॑सो॒ न पर्व॑तासो॒ व्यो॑मनि यू॒यं तस्य॑ प्रचेतसः॒ स्यात॑ दु॒र्धर्त॑वो नि॒दः ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गन्त॑ । नः॒ । य॒ज्ञम् । य॒ज्ञि॒याः॒ । सु॒ऽशमि॑ । श्रोत॑ । हव॑म् । अ॒र॒क्षः । ए॒व॒याम॑रुत् । ज्येष्ठा॑सः । न । पर्व॑तासः । विऽओ॑मनि । यू॒यम् । तस्य॑ । प्र॒ऽचे॒त॒सः॒ । स्यात॑ । दुः॒ऽधर्त॑वः । नि॒दः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गन्ता नो यज्ञं यज्ञियाः सुशमि श्रोता हवमरक्ष एवयामरुत्। ज्येष्ठासो न पर्वतासो व्योमनि यूयं तस्य प्रचेतसः स्यात दुर्धर्तवो निदः ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गन्त। नः। यज्ञम्। यज्ञियाः। सुऽशमि। श्रोत। हवम्। अरक्षः। एवयामरुत्। ज्येष्ठासः। न। पर्वतासः। विऽओमनि। यूयम्। तस्य। प्रऽचेतसः। स्यात। दुःऽधर्तवः। निदः ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 87; मन्त्र » 9
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 34; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे यज्ञियाः ! यूयमेवयामरुदिव नोऽस्मानस्माकं यज्ञञ्च गन्ता, सुशमि हवं श्रोताऽरक्षो निवारयत व्योमनि पर्वतासो न ज्येष्ठासो भवत यो व्योमवद्व्यापक ईश्वरोऽस्ति तस्य प्रचेतसः स्यात ते दुर्धर्त्तवो निदः सन्ति तेषां निवारकाः स्यात ॥९॥

    पदार्थः

    (गन्ता) प्राप्नुत। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (नः) अस्मानस्माकं वा (यज्ञम्) सत्यजनकं व्यवहारं (यज्ञियाः) यज्ञं सम्पादितुमर्हाः (सुशमि) शोभनं कर्म्म (श्रोता) शृणुत । अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (हवम्) पठनपरीक्षाख्यम् (अरक्षः) अरक्षणीयम् (एवयामरुत्) (ज्येष्ठासः) विद्यावयोवृद्धाः प्रशस्तवाचः (न) इव (पर्वतासः) मेघाः (व्योमनि) व्योमवद्व्यापके परमेश्वरे (यूयम्) (तस्य) (प्रचेतसः) प्रज्ञापकाः (स्यात) (दुर्धर्त्तवः) दुःखेन धर्त्तारः (निदः) निन्दकाः ॥९॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । हे विद्वांसो ! यूयं विद्याप्रचारव्यवहारप्रचारेण धर्म्याणि कर्म्माणि कृत्वाऽन्यैः कारयत, निन्दादिदोषेभ्यश्च मनुष्यान् पृथक्कृत्य परमेश्वरे प्रवर्त्तयत स्वयमप्येवं भवतेति ॥९॥ अत्र मरुद्विद्वत्परमेश्वरोपासनावर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीमद्विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीमद्दयानदसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्य्यभाषाविभूषिते सुप्रमाणयुक्त ऋग्वेदभाष्ये सप्ताशीतितमं सूक्तं चतुस्त्रिंशो वर्गः पञ्चमे मण्डले षष्ठोऽनुवाकः पञ्चमं मण्डलञ्च समाप्तम् ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (यज्ञियाः) यज्ञ करने योग्य (यूयम्) आप लोगो (एवयामरुत्) बुद्धिमान् मनुष्य के सदृश (नः) हम लोगों को वा हम लोगों के (यज्ञम्) सत्य को प्रकट करनेवाले व्यवहार को (गन्ता) प्राप्त हूजिये और (सुशमि) श्रेष्ठ कर्म्म और (हवम्) पठन की परीक्षा नामक कर्म्म को (श्रोता) सुनिये तथा (अरक्षः) नहीं रक्षा करने योग्य का निवारण करिये और (व्योमनि) आकाश के सदृश व्यापक परमेश्वर में (पर्वतासः) मेघ (न) जैसे वैसे (ज्येष्ठासः) विद्या और अवस्था से वृद्ध और प्रशंसायुक्त वाणीवाले हूजिये और जो आकाश के सदृश व्यापक ईश्वर है (तस्य) उसके (प्रचेतसः) जनानेवाले (स्यात) हूजिये और जो (दुर्धर्तवः) दुःख से धारण करनेवाले (निदः) निन्दक जन हैं, उनके निवारण करनेवाले हूजिये ॥९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे विद्वान् जनो ! आप लोग विद्या के प्रचारनामक व्यवहार के प्रचार से धर्मसम्बन्धी कार्यों को करके अन्यों से भी कराओ और निन्दा आदि दोषों से मनुष्यों को पृथक् करके परमेश्वर की ओर प्रवृत्त करो और स्वयं भी ऐसे होओ ॥९॥ इस सूक्त में वायु, विद्वान् और परमेश्वर की उपासना का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्य श्रीमद्विरजानन्द सरस्वती स्वामीजी के शिष्य श्रीमद्दयानदसरस्वती स्वामी विरचित संस्कृतार्य्यभाषाविभूषित सुप्रमाणयुक्त ऋग्वेदभाष्य में सतासीवाँ सूक्त चौतीसवाँ वर्ग तथा पञ्चम मण्डल में छठा अनुवाक और पञ्चम मण्डल भी समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    अग्निवत्, वायुवत् वीर पुरुषों का वर्णन । उनके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०-हे ( यज्ञियाः ) यज्ञ, दान आदि सत्कार और सत्संग करने योग्य विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (नः) हमारे ( यज्ञं गन्त ) यज्ञ, आदर, सत्कार, सत्संग एवं देवपूजन आदि कर्म के अवसर पर प्राप्त होवो । है ( एवयामरुत् ) उत्तम रथों से जाने वाले पुरुषों के स्वामी के ( सुशमि ) उत्तम कर्म बतलाने वाले, ( अरक्षः ) विघ्नों से रहित ( हवम् ) आज्ञा वचन को ( श्रोत ) श्रवण करो । ( यूयं ) आप लोग ( तस्य प्रचेतसः ) उस उत्कृष्ट चित्त और ज्ञान से युक्त पुरुष के ( व्योमनि ) विविध रक्षाओं से सम्पन्न राज्य में ( ज्येष्ठासः ) बड़े भाइयों के समान और ( पर्वतासः न ) मेघ या पर्वत के तुल्य उदार और अचल, सहिष्णु होकर (दुर्धर्त्तवः ) दुःखदायी कष्टों को भी सहारते हुए ( स्थात ) अचल होकर स्थिर रहो ।

    टिप्पणी

    इति चतुस्त्रिंशो वर्गः । इति षष्ठोऽध्यायः । इति पञ्चमोऽनुवाकः ॥ ॥ इति पञ्चमं मण्डलम् समाप्तम् ॥ इति विद्यालंकार मीमांसातीर्थविरुदालंकृतेन श्री पं० जयदेवशर्मणा विरचिते ऋग्वेदालोकभाष्ये पञ्चमं मण्डलं समाप्तम् ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    एवयामरुद्रात्रेय ऋषिः । मरुतो देवताः ॥ छन्द:- १ अति जगती । २, ८ स्वराड् जगती। ३, ६, ७ भुरिग् जगती । ४ निचृज्जगती । ५, ९ विराड् जगती॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'यज्ञियवृत्ति' व 'पाप से दूर'

    पदार्थ

    [१] हे (नः) = हमारे प्राणो! आप (यज्ञियाः) = यज्ञरूप उत्तम कर्मों में प्रेरित करनेवाले होते हुए (यज्ञं गन्ता) = यज्ञ के प्रति प्राप्त होनेवाले होवो । (अरक्षः) = [अरक्षसः] राक्षसीभावों से रहित होते हुए आप (सुशमि) = [शोभन कर्म यथा भवति तथा, सुकर्मत्वाय सा०] शोभनकर्मता के लिये (एवयामरुत् [तः] हवं श्रोता) = मुझ मार्ग पर चलनेवाले प्राणसाधक की पुकार को सुनो। मैं आपकी साधना के द्वारा सदा सुकर्मा बनूँ। [२] (व्योमनि) = आकाश में, हृदयान्तरिक्ष में ज्येष्ठासः न पर्वतास: बढ़े हुए पर्वतों के समान आप होवो। आप से टकराकर वासना की वात्याएँ छिन्न-भिन्न हो जायें। (यूयम्) = तुम (प्रचेतसः) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले स्यात होवो | आपके द्वारा हमारा ज्ञान बढ़े। (निदः दुर्धर्तवः) = निन्दनीय पापों के दुर्धर होवो। आपकी उपस्थिति में पाप हमारे जीवन में न आ सके।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से यज्ञियवृत्ति बनती है और सब राक्षसीभाव विनष्ट हो जाते हैं। ये प्राण ज्ञानवर्धन के द्वारा हमें निन्द्य कर्मों से दूर रखते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो! तुम्ही विद्येच्या प्रचाराद्वारे धर्मकार्य करून इतरांकडूनही करवून घ्या व निंदा इत्यादी दोषांपासून माणसांना वेगळे करून परमेश्वराकडे प्रवृत्त करा आणि स्वतःही तसेच व्हा. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Maruts, adorable heroes of the world, come and join our yajna of holy living with grace and earnestness. Listen to the prayer of the celebrant of the winds in need of protection and advancement. Most eminent and most enlightened among us, be generous givers of knowledge, wisdom and enlightenment of Divine order like showers of the cloud from the sky so that no maligner or reviler can resist and challenge you or anyone else.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of deserving and honorable person is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O performers of Yajnas (non-violent, sacrifices)! come to our Yajna in the form of truthful dealings, like a man endowed with wisdom and knowledge. Hear about our good work and what we have studied. Remove that which is not worthy of keeping. Dwelling constantly in God, Who is all- pervading like the sky, be advanced by knowledge and age. Be the enlighteners of God who is Omnipresent. Those who are revilers and unfit to uphold, be their removers.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O highly learned persons! do always righteous deeds and by the propagation of the knowledge and ethical duties, prompt others also to do the same. Keep men away from censure and other evils and make them devoted to God. Be yourself also of the same type.

    Foot Notes

    (यज्ञम् ) सत्यजनकं व्यवहारम् | = Truthful dealing. (सुशमि ) शोभनं कर्म । शमि इति कर्मनाम । ( NG ) = Good action. ( हवम् ) पठनपरीक्षाख्यम् |= The test of what has been studied. (ज्येष्ठास:) विद्यावयोवृद्धाः प्रशस्तवाचः। = Mature and sound in knowledge and age and endowed with and utterers of admirable speech.

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