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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 87 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 87/ मन्त्र 8
    ऋषिः - एवयामरुदात्रेयः देवता - मरूतः छन्दः - भुरिग्जगती स्वरः - निषादः

    अ॒द्वे॒षो नो॑ मरुतो गा॒तुमेत॑न॒ श्रोता॒ हवं॑ जरि॒तुरे॑व॒याम॑रुत्। विष्णो॑र्म॒हः स॑मन्यवो युयोतन॒ स्मद्र॒थ्यो॒३॒॑ न दं॒सनाप॒ द्वेषां॑सि सनु॒तः ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒द्वे॒षः । नः॒ । म॒रु॒तः॒ । गा॒तुम् । आ । इ॒त॒न॒ । श्रोत॑ । हव॑म् । ज॒रि॒तुः । ए॒व॒याम॑रुत् । विष्णोः॑ । म॒हः । स॒ऽम॒न्य॒वः॒ । यु॒यो॒त॒न॒ । स्मत् । र॒थ्यः॑ । न । दं॒सना॑ । अप॑ । द्वेषां॑सि । स॒नु॒तरिति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अद्वेषो नो मरुतो गातुमेतन श्रोता हवं जरितुरेवयामरुत्। विष्णोर्महः समन्यवो युयोतन स्मद्रथ्यो३ न दंसनाप द्वेषांसि सनुतः ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अद्वेषः। नः। मरुतः। गातुम्। आ। इतन। श्रोत। हवम्। जरितुः। एवयामरुत्। विष्णोः। महः। सऽमन्यवः। युयोतन। स्मत्। रथ्यः। न। दंसना। अप। द्वेषांसि। सनुतरिति ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 87; मन्त्र » 8
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 34; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे समन्यवो मरुतो ! यूयमेवयामरुदिव नोऽद्वेषः कुरुत गातुमेतन नो हवं श्रोता जरितुर्विष्णोर्महः स्मद्युयोतन रथ्यो न सनुतर्दंसनाऽप द्वेषांसि युयोतन ॥८॥

    पदार्थः

    (अद्वेषः) द्वेषरहितान् (नः) अस्माकम् (मरुतः) मानवाः (गातुम्) पृथिवीम् (आ) (इतन) प्राप्नुत (श्रोता) शृणुत। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (हवम्) प्रशंसनीयं व्यवहारम् (जरितुः) स्तुत्यस्य (एवयामरुत्) (विष्णोः) व्यापकस्य (महः) महत्त्वम् (समन्यवः) समानो मन्युः क्रोधो येषां ते (युयोतन) संयोजयत (स्मत्) एव (रथ्यः) रथेषु साधवः (न) इव (दंसना) कर्म्माणि (अप) दूरीकरणे (द्वेषांसि) द्वेषयुक्तानि कर्म्माणि (सनुतः) सनातनान् ॥८॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । ये विद्वांस उपदेशका मनुष्यान् द्वेषादिदोषरहितान् कुर्वन्ति ते व्यापकस्येश्वरस्य पदं प्राप्नुवन्ति ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (समन्यवः) समान क्रोधवाले (मरुतः) मनुष्यो ! आप लोग (एवयामरुत्) बुद्धिमान् मनुष्य के सदृश (नः) हम लोगों को (अद्वेषः) द्वेष से रहित करिये। और (गातुम्) पृथिवी को (आ, इतन) प्राप्त हूजिये तथा हम लोगों के (हवम्) श्रेष्ठ व्यवहार को (श्रोता) सुनिये (जरितुः) स्तुति करने योग्य (विष्णोः) व्यापक के (महः) महत्त्व को (स्मत्) ही (युयोतन) संयुक्त कीजिये और (रथ्यः) वाहनों के चलाने में कुशलों के (न) सदृश (सनुतः) सनातन (दंसना) कर्म्मों को और (अप) दूरीकरण के निमित्त (द्वेषांसि) द्वेषयुक्त कर्मों को संयुक्त कीजिये ॥८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो विद्वान् और उपदेशक जन मनुष्यों को द्वेष आदि दोष से रहित करते हैं, वे व्यापक ईश्वर के पद को प्राप्त होते हैं ॥८॥

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    विषय

    अग्निवत्, वायुवत् वीर पुरुषों का वर्णन । उनके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०-हे ( मरुतः ) वायुवत् तीव्र वेग से जाने वाले वीरो ! प्रजाजनो और विद्वान् पुरुषो ! आप लोग ( अद्वेषः ) द्वेषरहित होकर ( नः गातुम् ) हमारी वाणी को श्रवण करो। हमारी ( गातुम् एतन ) भूमि को प्राप्त करो । ( एवयामरुत् ) पूर्वोक्त प्रकार से रथगामी वीरों वाले ( जरितुः ) उपदेष्टा, आज्ञापक पुरुष के ( हवं ) आह्वान का ( श्रोता ) श्रवण करो । हे ( समन्यवः ) समान ज्ञान और उग्रता, मन्यु क्रोधवान् पुरुषो ! आप लोग ( रथ्यः न ) रथी योद्धाओं के समान ( स-मन्यवः ) क्रोध से प्रचण्ड होकर ( विष्णोः ) व्यापक शक्तिमान् राजा के ( महः ) बड़े २ (दंसना) कर्मों को करो और ( सनुतः ) सदा (द्वेषांसि अप युयोतन ) द्वेष भावों, शत्रुओं को दूर करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    एवयामरुद्रात्रेय ऋषिः । मरुतो देवताः ॥ छन्द:- १ अति जगती । २, ८ स्वराड् जगती। ३, ६, ७ भुरिग् जगती । ४ निचृज्जगती । ५, ९ विराड् जगती॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    यज्ञमय निर्देष जीवन

    पदार्थ

    [१] हे (नः मरुतः) = हमारे प्राणो! आप (अद्वेष:) = [अद्वेषसः] द्वेष शून्य होते हुए (गातुं एतन) = मार्ग पर चलो। प्राणसाधना हमें कभी मार्गभ्रष्ट नहीं होने देती। हे प्राणो! (एवयामरुत्) [तः] = इस मार्ग पर चलनेवाले प्राणसाधक (जरितुः) = स्तोता की (हवं श्रोता) = पुकार को सुनो। आपकी साधना के द्वारा मैं सदा मार्ग पर चलता रहूँ। कभी भटकूँ नहीं। [२] हे (विष्णोः समन्यवः) = उस व्यापक प्रभु के यज्ञों से युक्त होते हुए आप (महः) = तेजस्विता को (युयोतन) = [यु मिश्रणे] हमारे साथ जोड़ो। प्रभु ने सृष्टि के प्रारम्भ में प्रजाओं के साथ ही यज्ञों को भी उत्पन्न किया। इन प्रभु के यज्ञों को ये प्राण ही हमारे साथ जोड़ते हैं। (स्मद्रथ्यः न) = जैसे [स्मत् = प्रशस्त] प्रशस्त रथी शत्रुओं को दूर करते हैं, उसी प्रकार दंसना उत्तम कर्मों के द्वारा (द्वेषांसि) = द्वेषों को (सनुतः अप) = अन्तर्हित रूप में आप अप [युयोतन] = हमारे से दूर करो । द्वेष हमारे से सदा सुदूर छिपे रहें। हमारा झुकाव कभी भी द्वेष वृत्तियों की ओर न हो।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना के द्वारा हमारा जीवन यज्ञमय व निर्दोष बने ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    भावार्थ- या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे विद्वान व उपदेशक माणसांना द्वेष इत्यादी दोषांनी रहित करतात ते व्यापक असलेले ईश्वरपद प्राप्त करतात. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Maruts, heroes of the speed of winds, free from hate and jealousy, with zeal and ardour for righteous action, come to our earthly abode and lead us on the path of goodness and progress. O lord of the winds, Vishnu, listen to the song and prayer of the celebrant. O leaders and pioneers, come like warriors of the chariot and join the power and grandeur of Vishnu, lord of the wide world and space, accomplish acts of universal generosity and throw off hate, jealousy and animosity from the earth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More about deserving and honorable persons is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O thoughtful men ! possessing wealth or righteous indignation (against injustice and falsehood), make us free from malice like the enlightened persons. Come to this place · on earth, hear (observe. Ed.) my admirable dealings. Unite us with the greatness or glory of the most admirable Omnipresent God. Keep enmity far from us with your deeds of wonder, like the masters of the chariot in the form of body.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Through enlightened preachers who make men free from malice and other evils, attain the most desirable nature of the all-pervading God.

    Foot Notes

    (गातुम् ) पृथिवीम् । = Earth. ( हवम् ) प्रशंसनीयं व्यवहारम् । = Admirable dealing. (दंसना) कर्माणि । दंस इति कर्मनाम (NG 2, 1 ) दंस एव दंसन्त । = Actions.

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