ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 87/ मन्त्र 6
अ॒पा॒रो वो॑ महि॒मा वृ॑द्धशवसस्त्वे॒षं शवो॑ऽवत्वेव॒याम॑रुत्। स्थाता॑रो॒ हि प्रसि॑तौ सं॒दृशि॒ स्थन॒ ते न॑ उरुष्यता नि॒दः शु॑शु॒क्वांसो॒ नाग्नयः॑ ॥६॥
स्वर सहित पद पाठअ॒पा॒रः । वः॒ । म॒हि॒मा । वृ॒द्ध॒ऽश॒व॒सः॒ । त्वे॒षम् । शवः॑ । अ॒व॒तु॒ । ए॒व॒याम॑रुत् । स्थाता॑रः । हि । प्रऽसि॑तौ । स॒म्ऽदृशि॑ । स्थन॑ । ते । नः॒ । उ॒रु॒ष्य॒त॒ । नि॒दः । शु॒शु॒क्वांसः॑ । न । अ॒ग्नयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपारो वो महिमा वृद्धशवसस्त्वेषं शवोऽवत्वेवयामरुत्। स्थातारो हि प्रसितौ संदृशि स्थन ते न उरुष्यता निदः शुशुक्वांसो नाग्नयः ॥६॥
स्वर रहित पद पाठअपारः। वः। महिमा। वृद्धऽशवसः। त्वेषम्। शवः। अवतु। एवयामरुत्। स्थातारः। हि। प्रऽसितौ। सम्ऽदृशिः। स्थन। ते। नः। उरुष्यत। निदः। शुशुक्वांसः। न। अग्नयः ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 87; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 34; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 34; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्भिः कान्निवार्य के सत्कर्त्तव्या इत्याह ॥
अन्वयः
हे वृद्धशवसः स्थातारोऽग्नयो न वो योऽपारो महिमैवयामरुत्त्वेषं शवश्चावतु हि प्रसितौ निदः शुशुक्वांसः सन्तु ते यूयं संदृशि स्थन नोऽस्मानुरुष्यता ॥६॥
पदार्थः
(अपारः) पाररहितः (वः) युष्माकम् (महिमा) (वृद्धशवसः) वृद्धं शवो बलं येषां तत्सम्बुद्धौ (त्वेषम्) प्रकाशितम् (शवः) बलम् (अवतु) (एवयामरुत्) (स्थातारः) ये तिष्ठन्ति (हि) यतः (प्रसितौ) प्रकृष्टे बन्धने (संदृशि) समानदर्शने (स्थन) तिष्ठत (ते) (नः) अस्मान् (उरुष्यता) सेवध्वम्। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (निदः) ये निन्दन्ति (शुशुक्वांसः) शोकयुक्ताः (न) इव (अग्नयः) पावकाः ॥६॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! ये निन्दका अर्थान्मिथ्यावादिनः स्युस्तान् सदा बन्धने प्रवेशयत। ये च महाशयाः परोपकारिणः स्तावकाः सत्यवादिनः स्युस्तान् सर्वदा सत्कुरुत ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
अब विद्वानों को किनका निवारण करके किनका सत्कार करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (वृद्धशवसः) बढ़े हुए बलवालो ! (स्थातारः) स्थित होनेवाले (अग्नयः) अग्नियाँ (न) जैसे वैसे (वः) आप लोगों का जो (अपारः) अपार (महिमा) बड़प्पन और (एवयामरुत्) बुद्धिमान् मनुष्य (त्वेषम्) प्रकाशित (शवः) बल की (अवतु) रक्षा करे (हि) जिससे कि (प्रसितौ) प्रकृष्ट बन्धन के रहने पर (निदः) निन्दा करनेवाले (शुशुक्वांसः) शोक से युक्त होवें (ते) वे आप लोग (संदृशि) तुल्य दर्शन में (स्थन) स्थित हूजिये और (नः) हम लोगों का (उरुष्यता) सेवन करिये ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जो निन्दक अर्थात् मिथ्यावादी होवें, उनको सदा बन्धन में प्रविष्ट करिये और जो महाशय, परोपकारी स्तुति करने और सत्य बोलनेवाले होवें, उनका सदा सत्कार करिये ॥६॥
विषय
अग्निवत्, वायुवत् वीर पुरुषों का वर्णन । उनके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०—हे (वृद्ध-शवसः ) अति अधिक बढ़े हुए बलशाली ! वीर पुरुषो ! ( व: ) आप लोगों का ( महिमा ) महान् सामर्थ्य ( अपार: ) अपार है । उसको कोई शत्रु लांघ नहीं सकता । ( वः ) आप लोगों के (त्वेषं) अति तीक्ष्ण तेज और ( शवः ) बल की ( एवयामरुत् ) रथादि से प्रयाण करने वाले मर्द वीरों का स्वामी सदा ( अवतु ) रक्षा करे और उसको पूर्ण, तृप्त, सुप्रसन्न करता रहे । आप लोग ( अग्नयः न ) अग्नियों तथा ज्ञानवान् पुरुषों के समान ( शुशुक्वांसः ) सदा तेजस्वी, कान्तिमान् होकर स्वामी के ( प्रसितौ ) उत्तम बन्धन और उत्तम नियन्त्रण तथा उसके ( संदृशि ) सम्यक् प्रकार के निरीक्षण से ( स्थातारः ) स्थिर रूप से नियत होकर ( स्थन ) रहा करो । और ( ते ) वे आप लोग ( नः ) हमें ( निदः ) निन्दा करने, निकृष्ट नीति से छेदन भेदन करने वाले, दुःखदायी शत्रु से ( उरुष्यत ) रक्षा किया करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
एवयामरुद्रात्रेय ऋषिः । मरुतो देवताः ॥ छन्द:- १ अति जगती । २, ८ स्वराड् जगती। ३, ६, ७ भुरिग् जगती । ४ निचृज्जगती । ५, ९ विराड् जगती॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
वृद्धशवसः-शुशुक्वांसः
पदार्थ
[१] हे (मरुतो) = प्राणो ! (वः महिमा) = तुम्हारी महिमा (अपारः) = अति अधिक है, अनन्त है। (वृद्धशवसः) = हे बढ़े हुए बलवाले प्राणो! आपका (त्वेषं शवः) = दीप्त बल (एवयामरुत्) [तं] = तुझ एवयामरुत् को, मार्ग पर चलनेवाले प्राणसाधक को (अवतु) = रक्षित करे। [२] हे प्राणो ! आप (हि) = निश्चय से (प्रसितौ) = व्रतों के बन्धन में व परिणामतः (सन्दृशि) = प्रभु के सन्दर्शन में (स्थातारः स्थन) = स्थित होनेवाले हो । प्रभु का यह प्राणसाधक उपासक व्रतमय जीवनवाला व प्रभु का दर्शन करनेवाला बनता है । हे प्राणो ! (ते) = वे आप (नः निदः उरुष्यत) = हमारा निन्दनीय कर्मों से रक्षण करो। आपकी साधना के द्वारा हम निन्दनीय कर्मों को करनेवाले न हों। और (अग्नयः न) = अग्नियों के समान (शुशुक्वांसः) = दीप्त जीवनवाले हों।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से [१] बल बढ़ता है, [२] जीवन व्रती बनता है, [३] हम व्रतमय जीवनवाले होते हैं, [४] प्रभु दर्शन को प्राप्त करते हैं, [५] अग्नि के समान दीप्त व तेजस्वी होते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जे निंदक अर्थात् मिथ्यावादी असतील त्यांना सतत बंधनात ठेवावे व जे उदात्त पुरुष परोपकारी, प्रशंसक व सत्यवचनी असतील त्यांचा सदैव सत्कार करावा. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Unbounded is your greatness, O heroes of ancient might. May your brilliant power protect and promote evayamarut, vibrant sage of vision and knowledge. In the heat of battle when missiles are shot, stay firm in the open view unshaken. Such as you are, O Maruts, blazing as flames of fire, protect us against the maligners and the revilers.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The qualities of the renowned and to be honored by the enlightened persons are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O you men of mighty power! your greatness is unbounded like fires. May your bright vigor be to our aid. May it protect our glorious strength. Those who reproach us urgently be in bondage (in prison etc) and full of grief (on account of injustice). You are visible helpers (are constantly at our disposal. Ed.) in time of trouble. Save us from shame and insult.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! imprison those people who are in the habit of censuring unjustly and telling lies. Always honor those who are broad-minded, truthful, admirers of good men and benevolent.
Foot Notes
(वृद्धशवस:) वृद्धंशवो बलं येषां तत्सम्बुद्धौ । शव इति बलनाम् (NG 2, 9)। = Those whose might is very much advanced. ( शुशुक्वांस:) शोकयुक्ताः । शुच-शोके (भ्वा०)। = Full of grief ( प्रसितौ ) प्रकृष्टे बन्धने । प्र + षिञ् - बन्धने (स्वा०) | = In great bondage, imprison.
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