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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 24/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    अ॒न्यद॒द्य कर्व॑रम॒न्यदु॒ श्वोऽस॑च्च॒ सन्मुहु॑राच॒क्रिरिन्द्रः॑। मि॒त्रो नो॒ अत्र॒ वरु॑णश्च पू॒षार्यो वश॑स्य पर्ये॒तास्ति॑ ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न्यत् । अ॒द्य । कर्व॑रम् । अ॒न्यत् । ऊँ॒ इति॑ । श्वः । अस॑त् । च॒ । सत् । मुहुः॑ । आ । च॒क्रिः । इन्द्रः॑ । मि॒त्रः । नः॒ । अत्र॑ । वरु॑णः । च॒ । पू॒षा । अ॒र्यः । वश॑स्य । प॒रि॒ऽए॒ता । अ॒स्ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्यदद्य कर्वरमन्यदु श्वोऽसच्च सन्मुहुराचक्रिरिन्द्रः। मित्रो नो अत्र वरुणश्च पूषार्यो वशस्य पर्येतास्ति ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अन्यत्। अद्य। कर्वरम्। अन्यत्। ऊँ इति। श्वः। असत्। च। सत्। मुहुः। आ। चक्रिः। इन्द्रः। मित्रः। नः। अत्र। वरुणः। च। पूषा। अर्यः। वशस्य। परिऽएता। अस्ति ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 24; मन्त्र » 5
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    य इन्द्रो राजाऽद्यान्यदु श्वोऽन्यत् कर्वरमाचक्रिस्सन्मुहुरसत् स चात्र नो मित्रो वरुणः पूषाऽर्य्यश्च वशस्य पर्येतास्ति सोऽलंसुखो भवति ॥५॥

    पदार्थः

    (अन्यत्) (अद्य) (कर्वरम्) कर्त्तव्यं कर्म (अन्यत्) (उ) (श्वः) आगामिनि दिने (असत्) भवेत् (च) (सत्) (मुहुः) वारंवारम् (आचक्रिः) समन्तात् कर्त्ता (इन्द्रः) राजा (मित्रः) (नः) अस्माकम् (अत्र) (वरुणः) श्रेष्ठः (च) (पूषा) पुष्टिकर्त्ता (अर्यः) स्वामी (वशस्य) वशवर्तिनः (पर्य्येता) सर्वतः प्राप्तः (अस्ति) ॥५॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यो राजा प्रतिदिनं पुनः पुनः सत्कर्माचरति स सर्वेषां न्यायकरणे पक्षपातं विहाय मित्रवद्भवति सर्वे चास्य वशे भवन्ति ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो (इन्द्रः) राजा (अद्य) आज (अन्यत्) अन्य (उ) और (श्वः) आनेवाले दिन में (अन्यत्) अन्य (कर्वरम्) करने योग्य कर्म को (आचक्रिः) सब प्रकार से करनेवाला (सत्) हुआ (मुहुः) वारंवार (असत्) होवे वह (च) और (अत्र) इस संसार में (नः) हम लोगों का (मित्रः) मित्र (वरुणः) श्रेष्ठ (पूषा) पुष्टि करनेवाला (अर्यः) स्वामी (च) और (वशस्य) वशवर्ती का (पर्येता) सब ओर से प्राप्तजन (अस्ति) है, वह पूर्ण सुखवाला होता है ॥५॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो राजा प्रतिदिन बारबार सत्य कर्म का आचरण करता है, वह सब के न्याय करने में पक्षपात का त्याग करके मित्र के सदृश होता है और सब इसके वश में होते हैं ॥५॥

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    विषय

    राजा का सर्वप्रिय रूप ।

    भावार्थ

    ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् राजा ! ( अद्य ) आज ( अन्यत् कर्वरम् ) और ही काम (श्वः अन्यत् कर्वरम् ) और कल दूसरा ही काम (सत् च असत् ) व्यक्त और अव्यक्त, प्रकट और अप्रकट रूप से ( आचक्रिः ), नित्य करनेवाला हो । और वह ( अर्य: ) सबका स्वामी, ( नः ) हम प्रजाओं को ( मित्रः ) मृत्यु भय से रक्षा करने वाला, स्नेहवान्, और ( वरुणः च ) सर्वश्रेष्ठ, सब दुःखों, कष्टों, विघ्नों का वारण करने में समर्थ और (पूषा ) सबका पोषक होकर ( वशस्य ) हमारे कामनायोग्य फल का ( पर्येता ) प्राप्त कराने वाला (अस्ति) हो और राजा ( वशस्य पर्येता अस्ति) वश में आये राष्ट्र को अच्छी प्रकार वश करने में समर्थ हो । (२) परमेश्वर भी व्यक्त, अव्यक्त भिन्न २ कर्म करता रहता है, वही मित्र, वरुण, पूषा है वही सब का स्वामी, सब जगत् में व्यापक है। और वही काम्य सुखों का दाता है। (३) इन्द्र जीव (सत् च असत् च ) अच्छे बुरे नाना कर्म करता है। परमेश्वर ही काम्य फलों दाता है । इति सप्तदशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १, २ भुरिक् पंक्तिः । ३,५,९ पंक्ति: । ४, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप् । १० विराट् त्रिष्टुप् । ६ ब्राह्मी बृहती ॥ दशर्चं सूकम् ॥

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    विषय

    सत् व असत् के कर्ता प्रभु [सृष्टि प्रलय कर्ता ]

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्रः) = परमैश्वर्यवान् प्रभु ! (अद्य) = आज (अन्यत् कर्वरम्) = और कर्म करते हैं, तो (श्वः) = कल (उ) = निश्चय से (अन्यत्) = दूसरा ही काम करते हैं। वे इन्द्र (मुहुः) = फिर-फिर (सत् च) = इस संसार को (सत्) = रूप में आचक्रि करते हैं, (च) = और फिर (असत्) = इसे कारणरूप में प्राप्त कराते हुए अदृश्य कर देते हैं। यह सृष्टि प्रलय रूप परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाला कार्यक्रम चक्राकार गति में ही होता ही रहता है। 'सृष्टि' विलक्षण है, तो 'प्रलय' कम विलक्षण नहीं है। [२] (अत्र) = इस जीवन में (मित्रः) = वह स्नेह करनेवाले (वरुणः च) = और हमें पापों से निवारित करनेवाले पूषा पोषक, (अर्यः) = प्रेरक प्रभु (वशस्य) = हमारी इष्ट वस्तुओं के, काम्य पदार्थों के (पर्येता) = परिगमयिता प्राप्त करानेवाले अस्ति हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के सृष्टि प्रलय रूप सब कार्य विलक्षण हैं। वे 'मित्र, वरुण, पूषा व अर्य' प्रभु हमारी कामनाओं को पूर्ण करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जो राजा प्रत्येक दिवशी सत्य कर्माचे आचरण करतो, तो भेदभाव न करता सर्वांचा न्याय करतो व मित्राप्रमाणे वागतो, त्याला सर्वजण वश होतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, our friend here, great and just, life giver and sustainer, master and over all controller of controllers does one act today, another tomorrow, creative and destructive, integrating and disintegrating, making and unmaking, and goes on doing thus again and again in a positive cyclic order.

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