ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 25/ मन्त्र 2
ऋषि: - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आभिः॒ स्पृधो॑ मिथ॒तीररि॑षण्यन्न॒मित्र॑स्य व्यथया म॒न्युमि॑न्द्र। आभि॒र्विश्वा॑ अभि॒युजो॒ विषू॑ची॒रार्या॑य॒ विशोऽव॑ तारी॒र्दासीः॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठआभिः॑ । स्पृधः॑ । मि॒थ॒तीः । अरि॑षण्यन् । अ॒मित्र॑स्य । व्य॒थ॒य॒ । म॒न्युम् । इ॒न्द्र॒ । आभिः॑ । विश्वाः॑ । अ॒भि॒ऽयुजः॑ । विषू॑चीः । आर्या॑य । विशः॑ । अव॑ । ता॒रीः॒ । दासीः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आभिः स्पृधो मिथतीररिषण्यन्नमित्रस्य व्यथया मन्युमिन्द्र। आभिर्विश्वा अभियुजो विषूचीरार्याय विशोऽव तारीर्दासीः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठआभिः। स्पृधः। मिथतीः। अरिषण्यन्। अमित्रस्य। व्यथय। मन्युम्। इन्द्र। आभिः। विश्वाः। अभिऽयुजः। विषूचीः। आर्याय। विशः। अव। तारीः। दासीः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 25; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सेनेशः किं कुर्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र सेनेश ! त्वमाभिर्मिथतीः स्पृधोऽरिषण्यन्नमित्रस्य सेना मन्युं कृत्वा व्यथया। आभिरार्याय विश्वा अभियुजो विषूचीर्दासीर्विशोऽवतारीः ॥२॥
पदार्थः
(आभिः) रक्षाभिस्सेनाभिर्वा (स्पृधः) सङ्ग्रामान् (मिथतीः) शत्रुसेनाः हिंसन्तीः (अरिषण्यन्) अहिंसन् (अमित्रस्य) शत्रोः (व्यथया) पीडय। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (मन्युम्) क्रोधम् (इन्द्र) सेनाध्यक्ष (आभिः) रक्षाभिः सेनाभिर्वा (विश्वाः) समग्राः (अभियुजः) या अभियुञ्जते ताः (विषूचीः) व्याप्नुवतीः (आर्याय) उत्तमाय जनाय (विशः) प्रजाः (अव) (तारीः) दुःखात्तारय (दासीः) सेविकाः ॥२॥
भावार्थः
त एव सेनाध्यक्षाः सत्कर्तव्या ये स्वसेनाः सुशिक्ष्य संरक्ष्य सत्कृत्य युद्धविद्यायां कुशलीकृत्य दस्यूनन्यायकारिणः शत्रूँश्च निवार्य भद्राः प्रजाः सततं रक्षेयुः ॥२॥
हिन्दी (1)
विषय
फिर सेना का स्वामी क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) सेना के स्वामी आप (आभिः) इन रक्षाओं वा सेनाओं से (मिथतीः) शत्रुओं की सेनाओं का नाश करते हुए (स्पृधः) संग्रामों की (अरिषण्यन्) नहीं हिंसा करते हुए (अमित्रस्य) शत्रु की सेनाओं को (मन्युम्) क्रोध करके (व्यथया) पीड़ा दीजिये और (आभिः) इन रक्षा और सेनाओं से (आर्याय) उत्तम जन के लिये (विश्वाः) सम्पूर्ण (अभियुजः) अभियुक्त होने और (विषूचीः) व्याप्त होनेवाली (दासीः) सेविकाओं को और (विशः) प्रजाओं को (अव, तारीः) दुःख से पार करिये ॥२॥
भावार्थ
वे ही सेना के स्वामी सत्कार करने योग्य हैं, जो अपनी सेना को उत्तम प्रकार शिक्षा दें तथा उत्तम प्रकार रक्षा कर और सत्कार करके युद्धविद्या में चतुर करके डाकुओं और अन्यायकारी शत्रुओं को निवारण करके अच्छी प्रजाओं की निरन्तर रक्षा करें ॥२॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे आपल्या सेनेला उत्तम प्रकारे प्रशिक्षित करतात व उत्तम प्रकारे रक्षण करून सत्कार करतात, डाकू व अन्यायी शत्रूंचे निवारण करून चांगल्या लोकांचे सतत रक्षण करतात तेच सेनाध्यक्ष सत्कार करण्यायोग्य असतात. ॥ २ ॥
English (1)
Meaning
Indra, mighty ruler and commander, with these forces of defence and protection engaged in action, break down the pride and morale of the enemy and, with these, without loss of men and materials or interests of the country, protect and advance the cooperative powers employed across the land, the people, and the services for the noble citizens of the nation.
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