Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 3 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 3/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ई॒जे य॒ज्ञेभिः॑ शश॒मे शमी॑भिर्ऋ॒धद्वा॑राया॒ग्नये॑ ददाश। ए॒वा च॒न तं य॒शसा॒मजु॑ष्टि॒र्नांहो॒ मर्तं॑ नशते॒ न प्रदृ॑प्तिः ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ई॒जे । य॒ज्ञेभिः॑ । श॒श॒मे । शमी॑भिः । ऋ॒धत्ऽवा॑राय । अ॒ग्नये॑ । द॒दा॒श॒ । ए॒व । च॒न । तम् । य॒शसा॑म् । अजु॑ष्टिः । न । अंहः॑ । मर्त॑म् । न॒श॒ते॒ । न । प्रऽदृ॑प्तिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ईजे यज्ञेभिः शशमे शमीभिर्ऋधद्वारायाग्नये ददाश। एवा चन तं यशसामजुष्टिर्नांहो मर्तं नशते न प्रदृप्तिः ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ईजे। यज्ञेभिः। शशमे। शमीभिः। ऋधत्ऽवाराय। अग्नये। ददाश। एव। चन। तम्। यशसाम्। अजुष्टिः। न। अंहः। मर्तम्। नशते। न। प्रऽदृप्तिः ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    यो विद्वान् यज्ञेभिरीजे शमीभिः शशमे। ऋधद्वारायाऽग्नये ददाश तमेवा चन मर्त्तं यशसामजुष्टिर्नांहो न नशते प्रदृप्तिः प्राप्नोति ॥२॥

    पदार्थः

    (ईजे) सङ्गच्छते (यज्ञेभिः) विद्वत्सेवासत्यभाषणादिभिः (शशमे) शाम्यति (शमीभिः) शुभैः कर्मभिः (ऋधद्वाराय) ऋधत्संवर्धकः सत्यो वारस्स्वीकरणीयो व्यवहारो यस्य तस्मै (अग्नये) अग्निरिव वर्त्तमानाय सुपात्राय (ददाश) ददाति (एवा) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (चन) अपि (तम्) (यशसाम्) धनानामन्नानां वा (अजुष्टिः) असेवनम् (न) इव (अंहः) अपराधः पापम् (मर्त्तम्) मनुष्यम् (नशते) प्राप्नोति (न) निषेधे (प्रदृप्तिः) प्रकृष्टो मोहः ॥२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । ये सत्यभाषणादिधर्मानुष्ठाना योगिनोऽभयदातारः सन्ति ते पापं मोहं च त्यक्त्वा विज्ञानं प्राप्य सुखिनो भवन्ति ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो विद्वान् (यज्ञेभिः) विद्वानों की सेवा और सत्य भाषण आदिकों के साथ (ईजे) उत्तम प्रकार मिलता है और (शमीभिः) शुभ कर्म्मों से (शशमे) शान्त होता है (ऋधद्वाराय) उत्तम प्रकार बढ़ानेवाला सत्य स्वीकार करने योग्य व्यवहार जिसका उस (अग्नये) अग्नि के सदृश वर्त्तमान सुपात्र के लिये (ददाश) देता है (तम्) उसको (एवा) ही (चन) निश्चय से (मर्त्तम्) मनुष्य को और (यशसाम्) धनों वा अन्नों का (अजुष्टिः) असेवन (न) जैसे वैसे (अंहः) अपराध (न) नहीं (नशते) प्राप्त होता है और (प्रदृप्तिः) अत्यन्त मोह प्राप्त होता है ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो सत्यभाषण आदि धर्म्म के अनुष्ठान करनेवाले योगी अभय देनेवाले हैं, वे पाप और मोह का त्याग करके विज्ञान को प्राप्त होकर सुखी होते हैं ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अग्निहोत्र, वा यज्ञ का सत्फल ।

    भावार्थ

    जो पुरुष ( यज्ञेभिः ) दान, देवपूजन और सत्संगों से ( ईजे ) यज्ञ करता है, ( शमीभिः शशमे ) उत्तम कर्मों से अपने को शान्त करता है वा उत्तम शान्तिजनक उपायों और स्तुतियों से अपने को शान्त करता या प्रभु की स्तुति करता है और जो ( ऋधद्वाराय) सम्पन्न, समृद्ध करने वाले धनों और व्यवहारों से युक्त (अग्नये ) ज्ञानवान् पुरुष के हित के लिये ( ददाश ) अग्नि में आहुति के तुल्य ही दान करता है ( एव चन ) इस प्रकार निश्चय से ( तं ) उसको ( यशसाम् अजुष्टिः ) यशों और अन्नों का अभाव ( न नशते ) प्राप्त नहीं होता, (तं मर्त्तं ) उस मनुष्य को ( अंहः न नशते ) पाप भी स्पर्श नहीं करता और उसको ( प्रदृप्तिः न नशते ) भारी दर्प, घमण्ड वा मोह भी नहीं होता। अथवा अन्नों की कमी, पाप वा दर्प आदि उसे नष्ट नहीं कर सकते ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ३, ४ त्रिष्टुप् । २, ५, ६, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ भुरिक् पंक्तिः ।। अष्टर्चं सूक्तम्

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    यशस्विता-निष्पापता-निरभिमानता

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र का 'ऋतपाः' व्यक्ति (यज्ञेभिः ईजे) = यज्ञों के द्वारा प्रभु का उपासन करता है 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः' (शमीभिः) = शान्तभाव से किये जानेवाले कर्मों के द्वारा (शशमे) = प्रभु का स्तवन करता है [ शशनाम अर्चति कर्मा नि० ३।१४]। यह (ऋधद्वाराय) = अतिशयेन बढ़े हुए वरणीय धनोंवाले (अग्नये) = उस अंग्रेणी प्रभु के लिये (ददाश) = अपना अर्पण करता है । [२] (एवा च) = इस प्रकार प्रभु का उपासन, स्तवन व प्रभु के प्रति आत्मार्पण करने से (तम्) = उस उपासक को (यशसां अजुष्टिः) = यशों की अप्राप्ति (न नशते) = नहीं प्राप्त होती, यह अपने जीवन में बड़ा यशस्वी बनता है। इस (मर्तम्) = मनुष्य को (अंहः) = पाप (न नशते) = नहीं प्राप्त होता और (प्रदृप्ति:) = सब अविनयों का हेतुभूत दर्प भी (न) = नहीं प्राप्त होता । यज्ञ इसे यशस्वी बनाते हैं। शान्तभाव से किये जानेवाले कर्म इसे पाप-प्रवण नहीं होने देते और प्रभु के प्रति आत्मार्पण इसे दर्प से दूर रखता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- यज्ञों से प्रभु का उपासन करते हुये हम यशस्वी बनते हैं। शान्त कर्मों से प्रभु का स्तवन करते हुए हम पाप-प्रवण नहीं होते। प्रभु के प्रति आत्मार्पण करते हुये हम अभिमान से बचे रहते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे सत्यभाषण इत्यादी धर्माचे अनुष्ठान करणारे, योगी, अभय देणारे असतात ते पाप व मोहाचा त्याग करून विज्ञान प्राप्त करून सुखी होतात. ॥ २ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    If the mortal does good to others with humility and yajna, lives in peace with auspicious acts of holiness, and does service to Agni, giver of success and prosperity, with acts of charity and self surrender, then, for sure, neither want of honour and glory, nor sin and evil, nor pride and arrogance can ever touch him.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of duties of enlightened persons is emphasized.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    To that enlightened persons who is united with the Yajnas in the form of the service rendered to great scholars and speaking of truth etc. He attains peace by doing good deeds, who gives charity to a deserving person, and whose dealing is augmenter of peace, truthful and acceptable. There is no lack of wealth, food and good reputation, and the sin does not approach such a person nor delusion or ignorance touches him.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those Yogis who are habituated to speak the truth and observe other rules or righteousness and give fearlessness, having given up sin and delusion, they acquire true knowledge and enjoy happiness.

    Foot Notes

    (यज्ञेभिः) विद्वत्सेवासत्यभाषणादिभिः । यज-देवपूजा-सङ्गतिकरणदानेषु (भ्वा० ) यज्ञो वै श्र ेष्ठतमं कर्म । = By the service rendered to the enlightened persons, speaking of truth and other noble acts. (शमीभिः) शुभैः कर्मभिः । शमी इति कर्मनाम (NG 2, 1 )। = By noble deeds. (ऋधद्वाराय) ऋधत्संवर्धकः सत्यो वारस्वीकरणीयो व्यवहारो यस्य तस्मै । ऋधु-वृद्धौ (दिवा० ) | = For a person whose dealing is promoter of peace, truthful or honest and acceptable. (यशसाम् ) धनानामन्नानां वा यश इति यन्ननाम (NG 2, 7) यश इति धननाम (NG 2, 10)। = Of wealth or food. (प्रदृति:) प्रकृष्टो मोहः । वीत्यर्थस्तु सुप्रसिद्ध एव । द्दप-हर्षंमोहनयो: (दिवा० ) । = Great delusion or ignorance. (Below is the translation by the Editor as Mshad no pages)

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top