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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 3/ मन्त्र 4
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ति॒ग्मं चि॒देम॒ महि॒ वर्पो॑ अस्य॒ भस॒दश्वो॒ न य॑मसा॒न आ॒सा। वि॒जेह॑मानः पर॒शुर्न जि॒ह्वां द्र॒विर्न द्रा॑वयति॒ दारु॒ धक्ष॑त् ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ति॒ग्मम् । चि॒त् । एम॑ । महि॑ । वर्पः॑ । अ॒स्य॒ । भस॑त् । अश्वः॑ । न । य॒म॒सा॒न । आ॒सा । वि॒ऽजेह॑मानः । प॒र॒शुः । न । जि॒ह्वाम् । द्र॒विः । न । द्र॒व॒य॒ति॒ । दारु॑ । धक्ष॑त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तिग्मं चिदेम महि वर्पो अस्य भसदश्वो न यमसान आसा। विजेहमानः परशुर्न जिह्वां द्रविर्न द्रावयति दारु धक्षत् ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तिग्मम्। चित्। एम। महि। वर्पः। अस्य। भसत्। अश्वः। न। यमसान। आसा। विऽजेहमानः। परशुः। न। जिह्वाम्। द्रविः। न। द्रवयति। दारु। धक्षत् ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्भिः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यस्यास्य तिग्मं महि वर्पो यमसानो विजेहमानोऽश्वो नाऽऽसा भसत् परशुर्न जिह्वां द्रविर्न द्रावयति दारु धक्षत् तं चिद्वयमेम ॥४॥

    पदार्थः

    (तिग्मम्) तीव्रम् (चित्) अपि (एम) प्राप्नुयाम (महि) महत् (वर्पः) रूपम् (अस्य) विदुषः (भसत्) भासयति (अश्वः) आशुगन्ता तुरङ्गः (न) इव (यमसानः) नियन्ता सन् (आसा) आस्येन। (विजेहमानः) शब्दायमानः (परशुः) कुठारः (न) इव (जिह्वाम्) वाणीम् (द्रविः) द्रवीभूत्वोच्चारणक्रिया (न) इव (द्रावयति) (दारु) काष्ठम् (धक्षत्) ॥४॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । हे विद्वन् ! यथा सुशिक्षितोऽश्वो जनं मार्गं नयति तथा धर्म्मपथमस्मान्नय। यथा तक्षा परशुना काष्ठं छिनत्ति तथास्माकं दोषाञ्छिन्धि यथा तालुज आर्द्रो रसो जिह्वां प्राप्नोति तथा विद्यारसं प्रापय। यथाग्निः काष्ठानि दहति तथैवास्माकं दुर्व्यसनानि दह ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वानों को कैसा वर्त्ताव करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जिस (अस्य) इस विद्वान् के (तिग्मम्) तीव्र (महि) बड़े (वर्पः) रूपका (यमसानः) नियम करता और (विजेहमानः) शब्द करता हुआ (अश्वः) शीघ्र चलनेवाला घोड़ा (न) जैसे वैसे (आसा) मुख से (भसत्) प्रकाशित करता है और (परशुः) कुठार (न) जैसे वैसे (जिह्वाम्) वाणी को (द्रविः) द्रवी होकर उच्चारण की क्रिया (न) जैसे वैसे (द्रावयति) गीला करता है और (दारु) काष्ठ को (धक्षत्) जलावे उसको (चित्) निश्चय से हम लोग (एम) प्राप्त होवें ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे विद्वन् ! जैसे उत्तम प्रकार से शिक्षित घोड़ा मनुष्य को मार्ग में पहुँचाता है, वैसे धर्ममार्ग को हम लोगों को पहुँचाइये और जैसे बढ़ई परशुसे काष्ठ को काटता है, वैसे हम लोगों के दोषों को काटिये और जैसे तालु से उत्पन्न आर्द्ररस जिह्वा को प्राप्त होता है, वैसे विद्या के रस को प्राप्त कराइये तथा जैसे अग्नि काष्ठों को जलाता है, वैसे ही हमारे दुर्व्यसनों को जलाइये ॥४॥

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    विषय

    विद्वान् राजा का परशु, आज्य, नियारिया और अग्निवत् कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( अस्य ) इस विद्वान् वा राजा का ( एम ) ज्ञान और मार्ग ( तिग्मं चित् ) सूर्य के प्रकाश के समान अतितीक्ष्ण हो और (वर्णः महि) रूप, आकार महान् विशाल और ( भसत् ) चमकने वाला, तेजस्वी हो, वह स्वयं (अश्वः न) वेगवान् अश्व के समान (आसा) मुख से ( यमसान:) यम अर्थात् संयम का सेवन करनेवाला वाचंयम तथा मिताहारी, निर्लोभ हो, वह ( परशुः न ) फरसे के समान अज्ञान के नाश करने में (जिह्वां ) अपनी तीक्ष्ण वाणी का धार के समान (वि-जेहमानः ) विविध प्रकार से प्रयोग करता हुआ (द्रविः न ) ताप से धातु गला कर शोधने वाले स्वर्णकार के समान ( द्वावयति ) समस्त मलों वा शत्रुओं को पिघला कर दूर कर देता है वह ही अग्नि के समान ( दारु ) काष्ठवत् अपना छेदन भेदन करने वालों के सैन्य वा भय मोहादि जनक वा हृदयविदारक शोकादि को भी ( धक्षत् ) भस्म कर देता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ३, ४ त्रिष्टुप् । २, ५, ६, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ भुरिक् पंक्तिः ।। अष्टर्चं सूक्तम्

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    विषय

    वासना विनाशक प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) ! प्रभो आपका (एम) = गमनभूत मार्ग (तिग्मं चित्) = निश्चय से तीक्ष्ण है। जैसे अग्नि जिधर से जाती है, सब तृणादि की भस्म करती जाती है, इसी प्रकार जब प्रभु हमें प्राप्त होते हैं तो सब वासना- तृणों को दग्ध कर देते हैं । (अस्य) = इन प्रभु का (महि वर्पः) = महनीय रूप (भसत्) = देदीप्यमान होता है। प्रभु ज्योतिर्मय हैं उपासक के हृदय को दीप्त कर देते हैं। (आसा यमसान:) = मुख से तृणादि का नियमन करते हुए (अश्वः न) = अश्व की तरह ये प्रभु हमारे हृदय में उत्पन्न हो जानेवाली वासनाओं का नियमन करनेवाले हैं। [२] अपनी (जिह्वाम्) = धारा को (विजेहमान:) = शत्रुओं पर प्राप्त कराते हुए (परशुः न) = कुल्हाड़े के समान ये प्रभु अपनी ज्ञान जिह्वा से वासनाओं को काटनेवाले हैं। (द्रविः न) = एक धातुओं को पिघलानेवाले स्वर्णकार की तरह (ये) = प्रभु (दारु-धक्षत्) = हमें विदीर्ण करनेवाले [दृ विदारणे] वासनारूप काष्ठों को भस्म करते हुए (द्रावयति) = कठोर से कठोर वासनाधातु को द्रवीभूत कर देते हैं और हमारे से पृथक् करके उसे दूर भगा देते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमारी वासनाओं को विनष्ट कर देते हैं। घोड़ा जैसे घास को खा जाता है, कुल्हाड़ा वैसे वृक्ष को काट डालता है, स्वर्णकार जैसे कठोर धातु को पिघला देता है, इसी प्रकार वे प्रभु वासनारूप घास को खा जाते हैं, वासना वृक्ष को काट डालते हैं व वासना धातु को द्रवीभूत कर देते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे विद्वाना! उत्तम प्रकारे प्रशिक्षित घोडा माणसाला मार्गक्रमण करीत घेऊन जातो तसे तू आम्हाला धर्ममार्गाने घेऊन जा. जसा सुतार कुऱ्हाडीने लाकूड कापतो तसे आमचे दोष नाहीसे कर. जसा टाळूपासून उत्पन्न झालेला आर्द्र रस जिभेला मिळतो तसा विद्येचा रस प्राप्त कर व जसा अग्नी लाकडाला जाळतो तसे आमच्या दुर्व्यसनाचे दहन कर. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Sharp is his path like the razor’s edge we may like to follow, great his form and appearance shining brilliant, open his mouth self-controlled as the horse’s, sharp his tongue as an axe, and he melts rigidities like a smelter and burns wooden prejudices like fire.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should the enlightened persons deal is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! let us attain that great and sharp form of the enlightened person, which he illuminates with his mouth, like a controlled and neighing horse, like an axe cutting the wood, like the sap of the palate and like the fire burning the wood.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O enlightened person ! as a horse leads a man to the path, so you lead to the path of Dharma (righteousness). As a carpenter cuts the wood with an axe, so cut all our evils. As the wet sap from the palate goes to the tongue, so you make people relish the taste of true knowledge. As fire burns the wood, likewise you burn all our vices.

    Foot Notes

    (वर्ष:) रूपम् । वर्प इति रूपनाम (NG 3, 7)। = Form. (विजेहमानः) शब्दायमानः । जेहृ-प्रयत्ने । अत्रोपर्गादिबलात् शब्दार्थकः । = Neighing. (भसत्) भासयति । भस भर्त्सन दीप्स्यो: (जुहो० ) अत्र दीप्त्यर्थः । दीप्ति: = Illuminates.

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