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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 31/ मन्त्र 2
    ऋषिः - सुहोत्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    त्वद्भि॒येन्द्र॒ पार्थि॑वानि॒ विश्वाच्यु॑ता चिच्च्यावयन्ते॒ रजां॑सि। द्यावा॒क्षामा॒ पर्व॑तासो॒ वना॑नि॒ विश्वं॑ दृ॒ळ्हं भ॑यते॒ अज्म॒न्ना ते॑ ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वत् । भि॒या । इ॒न्द्र॒ । पार्थि॑वानि । विश्वा॑ । अच्यु॑ता । चि॒त् । च्य॒व॒य॒न्ते॒ । रजां॑सि । द्यावा॒क्षामा॑ । पर्व॑तासः । वना॑नि । विश्व॑म् । दृ॒ळ्हम् । भ॒य॒ते॒ । अज्म॑न् । आ । ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वद्भियेन्द्र पार्थिवानि विश्वाच्युता चिच्च्यावयन्ते रजांसि। द्यावाक्षामा पर्वतासो वनानि विश्वं दृळ्हं भयते अज्मन्ना ते ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वत्। भिया। इन्द्र। पार्थिवानि। विश्वा। अच्युता। चित्। च्यवयन्ते। रजांसि। द्यावाक्षामा। पर्वतासः। वनानि। विश्वम्। दृळ्हम्। भयते। अज्मन्। आ। ते ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 31; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः किं जानीयुरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! ते भिया विश्वाच्युता पार्थिवानि रजांसि चित् च्यावयन्ते यथा सूर्येण द्यावाक्षामा पर्वतासो वनानि विश्वञ्च तथा त्वद्दृळ्हमज्मन्नाऽऽभयते ॥२॥

    पदार्थः

    (त्वत्) (भिया) (इन्द्र) विद्युदिव वर्त्तमान (पार्थिवानि) पृथिव्यां विदितानां जन्तुविशेषाणि (विश्वा) सर्वाणि (अच्युता) क्षयरहितानि (चित्) (च्यावयन्ते) गमयन्ति (रजांसि) लोकान् (द्यावाक्षामा) द्यावापृथिव्यौ (पर्वतासः) शैलाः (वनानि) जङ्गलानि (विश्वम्) सर्वं जगत् (दृळ्हम्) (भयते) (अज्मन्) मार्गे (आ) (ते) तव ॥२॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यथा न्यायकारिणो वीरपुरुषात् कातरा बिभ्यति तथैव विद्युतः सर्वे प्राणिनो बिभ्यति ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य क्या जानें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) बिजुली के सदृश वर्त्तमान ! (ते) आपके (भिया) भय से (विश्वा) सम्पूर्ण (अच्युता) नाश से रहित (पार्थिवानि) पृथिवी में विदित जन्तु विशेष (रजांसि) लोकों को (चित्) निश्चित (च्यावयन्ते) चलाते हैं तथा जैसे सूर्य्य से (द्यावाक्षामा) अन्तरिक्ष और पृथिवी तथा (पर्वतासः) पर्वत और (वनानि) जंगल (विश्वम्) सम्पूर्ण जगत् को चलाते हैं, वैसे (त्वत्) आपसे (दृळ्हम्) दृढ़ विश्व (अज्मन्) मार्ग में (आ, भयते) अच्छे प्रकार भय करता है ॥२॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे न्यायकारी वीरपुरुष से कायर जन डरते हैं, वैसे ही बिजुली से सब प्राणी डरते हैं ॥२॥

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    विषय

    उसके सद्गुण । विद्युत्वद् भयकारी बल ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! प्रभो ! ( त्वत् भिया ) तुझ से भयभीत होकर, तेरे शासन में ( विश्वा पार्थिवानि ) समस्त पृथिवी के जन्तु (अच्युता) स्वयं नष्ट न होकर भी ( रजांसि चित् च्यावयन्ते) अन्य लोकों को भी मार्ग पर जाने देते हैं, वे एक दूसरे का नाश नहीं करते । ( ते अज्मन्) तेरे बड़े भारी बल के अधीन ( द्यावा क्षामा ) सूर्य और पृथिवी के तुल्य समस्त नर नारी, ( पर्वतासः ) पर्वतों या मेघों के तुल्य बड़े २ प्रजापालक जन और ( वनानि ) जंगल, वा सेव्य नाना ऐश्वर्य (विश्वं दृढ़ ) सब पदार्थ स्थिर रहकर भी विद्युत् के समान (भयते) भय करता है, तेरा शासन स्वीकार करता है । विद्युत् के प्रहार से जैसे मेघ ( पार्थिवानि रजांसि ) पृथिवी से लिये जलों को नीचे गिरा देते हैं । सब उसके भय से कांपते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सुहोत्र ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः-१ निचृत् त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पंक्ति: । ३ पंक्ति: । ४ निचृदतिशक्वरी । ५ त्रिष्टुप् । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रभु के शासन में

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (त्वद्भिया) = आपके भय से (पार्थिवानि) = [पृथिवी=अन्तरिक्षम्] इस अन्तरिक्ष में होनेवाले (विश्वा) = सब (अच्युता चित्) = बड़े दृढ़ जिनका स्वस्थान से हिलाना बड़ा कठिन है ऐसे अच्युत भी, (रजांसि) = लोक (च्यावयन्ते) = स्थानच्युत कराये जाते हैं। [२] (द्यावाक्षामा) = ये द्युलोक व पृथिवीलोक, (पर्वतासः) = पर्वत, (वनानि) = वन, अन्य भी (विश्वम्) = सब (दृळहम्) = यह दृढ़ लोक (ते अज्मन्) = आपके आगमन में (आभयते) = समन्तात् भयभीत हो उठता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के भय से यह संसार भयभीत हो उठता है। सब संसार प्रभु के शासन में चलता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जसे न्यायी वीर पुरुषाला भित्रे लोक घाबरतात तसेच विद्युतला सर्व प्राणी घाबरतात. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, sole lord of law and power, by the fear and pressure of your presence, all the unshakables on earth and in the skies stir and move along their functional course. Heaven and earth, clouds and mountains, deep forests, indeed the entire fixed and functionary world of existence fears the unmoved motion of your pervasive presence and dare not relent in their function.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men know — is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O (Indra) King ! who act like electricity or lightning, through your fear even the firm things move all objects of the world. As by the sun, heaven and earth mountains, forests, and all things of the world are moved, so you move all even as all fear a firm, just and breve person, though it may be firm, on the way.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! as all fear firm a, just and brave person. so all beings fear from the lightning or electricity.

    Translator's Notes

    In the case the meaning of the mantra is so clear that the revered commentator did not deem it necessary to explain. It is as follows:- "O Lord of the world, through fear of you all regions of the earth, though very firm, shake and tremble. All that is firm is frightened as you behave, the earth, the heaven, the mountains and the forests.

    Foot Notes

    (रजांसि) लोकान्। = Worlds. (इन्द्र) विद्युदिव = O king mighty like the lightning or electricity. (अध्मन्) मार्गे = On the way.

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