ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 31/ मन्त्र 4
त्वं श॒तान्यव॒ शम्ब॑रस्य॒ पुरो॑ जघन्थाप्र॒तीनि॒ दस्योः॑। अशि॑क्षो॒ यत्र॒ शच्या॑ शचीवो॒ दिवो॑दासाय सुन्व॒ते सु॑तक्रे भ॒रद्वा॑जाय गृण॒ते वसू॑नि ॥४॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । श॒तानि॑ । अव॑ । शम्ब॑रस्य । पुरः॑ । ज॒घ॒न्थ॒ । अ॒प्र॒तीनि॑ । दस्योः॑ । अशि॑क्षः । यत्र॑ । शच्या॑ । श॒ची॒ऽवः॒ । दिवः॑ऽदासाय । सु॒न्व॒ते । सु॒त॒ऽक्रे॒ । भ॒रत्ऽवा॑जाय । गृ॒ण॒ते । वसू॑नि ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं शतान्यव शम्बरस्य पुरो जघन्थाप्रतीनि दस्योः। अशिक्षो यत्र शच्या शचीवो दिवोदासाय सुन्वते सुतक्रे भरद्वाजाय गृणते वसूनि ॥४॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। शतानि। अव। शम्बरस्य। पुरः। जघन्थ। अप्रतीनि। दस्योः। अशिक्षः। यत्र। शच्या। शचीऽवः। दिवःऽदासाय। सुन्वते। सुतऽक्रे। भरत्ऽवाजाय। गृणते। वसूनि ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 31; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजा किं कुर्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे शचीवः सुतक्र इन्द्र ! राजँस्त्वं यथा सूर्यः शम्बरस्य शतानि पुरोऽव जघन्थ तथा दस्योरप्रतीनि शतानि पुरो जघन्थ शच्यैतानशिक्षो यत्र दिवोदासाय सुन्वते गृणते भरद्वाजाय वसूनि दद्यास्तत्रैतेन विद्याप्रचारं कारय ॥४॥
पदार्थः
(त्वम्) (शतानि) (अव) (शम्बरस्य) मेघस्येव शत्रोः (पुरः) पुराणि (जघन्थ) हंसि (अप्रतीनि) अप्रतीतान्यपि (दस्योः) परद्रव्यापहारकस्य दुष्टस्य (अशिक्षः) शिक्षय (यत्र) (शच्या) सुशिक्षितया वाचोत्तमेन कर्मणा वा (शचीवः) शची प्रशस्ता प्रज्ञा विद्यते यस्य सः (दिवोदासाय) विज्ञानस्य दात्रे (सुन्वते) सारनिष्पादकाय (सुतक्रे) सुष्ठुप्रसन्न (भरद्वाजाय) विज्ञानधर्त्रे (गृणते) स्तुवते (वसूनि) द्रव्याणि ॥४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो राजा सूर्य्यवन्न्यायप्रकाशको मेघवद्विद्यादिप्रचाराय पुष्कलधनदाता भवति स एव विजयमाप्नोति ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (शचीवः) उत्तम बुद्धिवाले (सुतक्रे) उत्तम प्रकार प्रसन्न अत्यन्त ऐश्वर्य के देनेवाले राजन् ! (त्वम्) आप जैसे सूर्य्य (शम्बरस्य) मेघ के समान शत्रु के (शतानि) सैकड़ों (पुरः) नगरों का (अव, जघन्थ) नाश करते हो, वैसे (दस्योः) दूसरे के द्रव्य चुरानेवाले दुष्टजन के (अप्रतीनि) नहीं जाने गये भी सैकड़ों नगरों का नाश करिये और (शच्या) उत्तमशिक्षायुक्त वाणी वा उत्तम कर्म्म से इनको (अशिक्षः) शिक्षा दीजिये और (यत्र) जहाँ (दिवोदासाय) विज्ञान के देने तथा (सुन्वते) सार के निकालनेवाले (गृणते) स्तुति करते हुए (भरद्वाजाय) विज्ञान के धारण करनेवाले के लिये (वसूनि) द्रव्यों को दीजिये, वहाँ इससे विद्या का प्रचार कराइये ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा सूर्य्य के सदृश न्याय का प्रकाश करनेवाला और मेघ के सदृश विद्या आदि के प्रचार के लिये बहुत धन का देनेवाला होता है, वही सर्वत्र विजय को प्राप्त होता है ॥४॥
विषय
missing
भावार्थ
हे ( शचीवः ) शक्तिशालिन् ! हे बुद्धिमन् ! हे ( सुतक्रे, सुत-क्रे ) सुप्रसन्न ! हे उत्तम ऐश्वर्य द्वारा क्रीत ! उत्तम वेतन पर बद्ध अथवा उत्तम ऐश्वर्यों से अन्यों और अन्यों के श्रमों को अपने लिये ख़रीदने में समर्थ ( त्वं ) तू ( शम्बरस्य ) शान्ति के नाशक (दस्योः) प्रजा के नाशकारी, दुष्ट एवं शत्रु के ( शतानि ) सैकड़ों और (अप्रतीनि) अप्रतीत, न मालूम देने वाली, गुप्त स्थानों और ( पुरः ) नगरियों, बस्तियों को भी ( अव जघन्थ ) पता लगा और नाश कर । ( यत्र ) जिस राष्ट्र में तू ( सुन्वते ) ऐश्वर्य बढ़ाने वा अभिषेक करने वाले ( दिवः दासाय ) तेजस्वी सूर्यवत् तेरे पास मृत्यवत् सेवक प्रजाजनों को और (गृणते) उपदेश करने वाले (भरद्-वाजाय) ज्ञानधारक विद्वान् पुरुष को तू ( वसूनि अशिक्षः ) नाना ऐश्वर्य प्रदान करे वहां तू सुख से विराज ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुहोत्र ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः-१ निचृत् त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पंक्ति: । ३ पंक्ति: । ४ निचृदतिशक्वरी । ५ त्रिष्टुप् । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'शंवर' [ईर्ष्या] का विनाश
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (त्वम्) = आप (दस्योः) = उपक्षय के कारणभूत (शम्बरस्य) = शान्ति पर परदा डाल देनेवाले ईर्ष्या रूप असुर के शतानि सैंकड़ों (अप्रतीनि) = जिनपर आक्रमण करना कठिन है, उन (पुरः) = नगरों को (अव जघन्थ) = नष्ट करते हैं। [२] (यत्र) = जिस ईर्ष्या के नष्ट होने पर हे (शचीवः) = प्रज्ञावन् प्रभो! आप (शच्या अशिक्ष:) = प्रज्ञा के साथ सब धनों को देते हैं। हे (सुतक्रे) = उत्पन्न सोम के द्वारा क्रीत प्रभो! आप (दिवोदासाय) = ज्ञान के सेवक, ज्ञानोपार्जन में प्रवृत्त, (सुन्वते) = यज्ञशील (भरद्वाजाय) = अपने में शक्ति का भरण करनेवाले (गृणते) = स्तोता उपासक के लिये (वसूनि) = निवास के लिये आवश्यक सब धनों को देते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ईर्ष्या को विनष्ट करते हैं। शक्ति के साथ सब आवश्यक धनों को प्राप्त कराते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो राजा सूर्याप्रमाणे न्यायप्रकाशक, मेघवृष्टीप्रमाणे विद्येचा प्रचार करण्यासाठी पुष्कळ धन देतो त्यालाच विजय मिळतो. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Break open the hundreds of hidden strongholds and treasures of the wealth and power of the dark clouds and hoards collected by the thief, and there, O lord of light and power of knowledge and wisdom, with knowledge and expertise, provide the means and materials of prosperity and well being for the advancement of the generous scientist, creative artist, pharmacist, technologist and celebrant of divinity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a king do-is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O very wise and cheerful king ! as the sun rends asunder hundreds of clouds, so smite down the hundreds of cities and even impregnable castles of the cloud like wicked foe who takes away other's protection. Teach them with refined speech and good deeds. While you give wealth of various kinds to an upholder and giver of true knowledge, devotee of God and extractor of juice of the invigorating herbs, spread knowledge far and wide through him.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
That king alone achieves victory who is illuminator of justice like the sun and giver or showerer of abundant wealth for the dissemination of knowledge etc. like the cloud.
Foot Notes
(शम्बरस्य) मेघस्येव शत्रोः । शम्बर इति मेघनाम (NG 1,10)। = Of the enemy who is like a cloud (coverer of happiness). (शच्या) सुशिक्षितया वाचोसमेन कर्मणा वा । शचीति वाङ्नाम (NG 1, 11) शचीति कर्मलाभ (NG 2, 15 )। = By refined speech or good deeds. (भारद्वाजाय) विज्ञानधर्ते । बाज: वज-गतौ (भ्वा०) गतेष्त्रिष्वर्थेषुज्ञानार्थग्रहणमय । = For an upholder of true knowledge. (दिवोदासाय) विज्ञानस्य दात्रे | = For a giver of true knowledge. (सुतक्रे) सुष्ठुप्रसन्न | = Very cheerful.
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