ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 31/ मन्त्र 3
त्वं कुत्से॑ना॒भि शुष्ण॑मिन्द्रा॒शुषं॑ युध्य॒ कुय॑वं॒ गवि॑ष्टौ। दश॑ प्रपि॒त्वे अध॒ सूर्य॑स्य मुषा॒यश्च॒क्रमवि॑वे॒ रपां॑सि ॥३॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । कुत्से॑न । अ॒भि । शुष्ण॑म् । इ॒न्द्र॒ । अ॒शुष॑म् । यु॒ध्य॒ । कुय॑वम् । गवि॑ष्टौ । दश॑ । प्र॒ऽपि॒त्वे । अध॑ । सूर्य॑स्य । मु॒षा॒यः । च॒क्रम् । अवि॑वेः । रपां॑सि ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं कुत्सेनाभि शुष्णमिन्द्राशुषं युध्य कुयवं गविष्टौ। दश प्रपित्वे अध सूर्यस्य मुषायश्चक्रमविवे रपांसि ॥३॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। कुत्सेन। अभि। शुष्णम्। इन्द्र। अशुषम्। युध्य। कुयवम्। गविष्टौ। दश। प्रऽपित्वे। अध। सूर्यस्य। मुषायः। चक्रम्। अविवेः। रपांसि ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 31; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राज्ञा किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! त्वं शुष्णमशुषं कुत्सेन गविष्टौ कुयवमभि युध्याध प्रपित्वे दश रपांसि मुषायः सूर्यस्य चक्रमविवेः ॥३॥
पदार्थः
(त्वम्) (कुत्सेन) वज्रेण (अभि) (शुष्णम्) बलम् (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद राजन् (अशुषम्) अशुष्कम् (युध्य) (कुयवम्) कुत्सिता यवा यस्मिंस्तत् (गविष्टौ) किरणसमागमे (दश) (प्रपित्वे) प्राप्तौ (अध) (सूर्यस्य) (मुषायः) चोरय (चक्रम्) चक्रमिव (अविवेः) व्याप्नुहि (रपांसि) हिंसनानि ॥३॥
भावार्थः
हे राजंस्त्वमधर्मिणा शत्रुणा सहैव युध्यस्व न धर्मात्मना, एवं कृते यथा सूर्यस्याऽभितो भूगोलाश्चक्रवद् भ्रमन्ति तथैव प्रजाजनास्त्वां दृष्ट्वा पुरुषार्थेन प्रचलिष्यन्ति ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के देनेवाले राजन् ! (त्वम्) आप (शुष्णम्) बल और (अशुषम्) शुष्करहित को (कुत्सेन) वज्र से (गविष्टौ) किरणों के समागम में (कुयवम्) कुत्सित यव जिसमें उसको (अभि, युध्य) अभियोधन करो (अध) इसके अनन्तर (प्रपित्वे) प्राप्ति में (दश) दश (रपांसि) हिंसनों को (मुषायः) चुराओ और (सूर्यस्य) सूर्य्य के (चक्रम्) चक्र को (अविवेः) व्याप्त होओ ॥३॥
भावार्थ
हे राजन् ! आप अधर्मी शत्रु के साथ ही युद्ध करिये, धर्मात्मा के साथ न करिये, ऐसा करने पर जिस प्रकार सूर्य्य के चारों ओर भूगोल चक्र के समान घूमते हैं, वैसे ही प्रजाजन आपको देखकर पुरुषार्थ से चलेंगे ॥३॥
विषय
इन्द्र कृषक का वर्णन । राजचक्र प्रवर्त्तन । दुष्टनाश । प्रजा की शिक्षा का प्रबन्ध करने का उपदेश ।
भावार्थ
( इन्द्र ) विद्युत् के समान तेजस्विन् ! शत्रुहन्तः ! हे ( इन्द्र ) भूमि के विदारक ! कृषक ! ( त्वं ) तू ( कुत्सेन ) वज्र या हथियार, हल के बल से ( अशुषम् शुष्णम् ) कभी न सूखने वाले, अपार जल के बल को प्राप्त करके (गविष्टौ ) बैलों, तथा भूमि की इष्टि अर्थात् प्राप्ति और उसमें बीज वपन आदि करके ( कु-यवं ) कुत्सित जौं आदि धान्य उत्पन्न करने के दोष को (अभि यु-द्ध्य ) दूर कर । और उत्तम अन्न प्राप्त कर । इसी प्रकार हे राजन् ! तू शस्त्र बल से अपार बल प्राप्त करके (गविष्टौ ) भूमि को प्राप्त करने के लिये ( कुयवं ) कुत्सित अन्न खाने वाले अथवा कुत्सित उपायों से प्रजा का नाश करने वाले दुष्ट जन का ( अभि युद्धय ) बराबर मुक़ाबला किया कर । ( अध) और (प्रपित्वे ) उत्तम ऐश्वर्य प्राप्त होने पर ( सूर्यस्य दश रपांसि ) सूर्य के दसों हननकारी बलों को ( मुषायः ) प्राप्त कर और ( चक्रम् अविवेः ) राष्ट्र में चक्र का सञ्चालन कर अथवा ( सूर्यस्य चक्रम् ) सूर्य के चक्र या विम्ब या ग्रह चक्र के समान अपने राज चक्र को ( मुषायः ) उसके अनुकरण में चला वा ( मुषायः = पुषायः ) पुष्ट कर । (रपांसि अविवेः ) हनन साधन सैन्यों को सञ्चालित कर तथा ( रपांसि ) पापकारी दुष्ट पुरुषों को (दश) नष्ट कर, वा ( दश अविवेः ) दशों दिशाओं से दूर कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुहोत्र ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः-१ निचृत् त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पंक्ति: । ३ पंक्ति: । ४ निचृदतिशक्वरी । ५ त्रिष्टुप् । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
काम, लोभ व क्रोध का विनाश
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वम्) = आप (कुत्सेन) = इन वासनाओं का हिंसन करनेवाले उपासक के साथ (अशुषम्) = शोषपितुमशक्य=जिसका शोषण करना बड़ा कठिन है उस (शुष्णम्) = शक्तियों का शोषण करनेवाले कामासुर [को] (अभियुध्य) = आभिमुख्येन युद्ध करते हैं। (गविष्टौ) = संग्राम में (कुयवम्) = सब बुराइयों से मिश्रण करानेवाले लोभ को (दश) = [अदश:] आप हिंसित करते हैं। [२] (अध) = अब (प्रपित्वे) = [प्रपतने] प्रकृष्ट आक्रमणवाले युद्ध में (सूर्यस्य) [सूर् to hurt, kill] = नष्ट करनेवालों में प्रमुख क्रोध के (चक्रम्) = चक्र को, दौर को (मुषायः) = आप अपहृत करते हैं । अर्थात् आप क्रोध को विनष्ट करते हो। इस प्रकार (रथांसि) = सब दोषों को आप (अविवे:) = [अपणमय:] हमारे जीवन से दूर करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- काम-क्रोध-लोभ को दूर करके प्रभु हमारे जीवनों को निर्दोष बनाते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा ! तू अधर्मी शत्रूबरोबर युद्ध कर, धर्मात्मा लोकांबरोबर करू नकोस. असे केल्यामुळे सूर्याच्या चारही बाजूंनी भूगोल जसे चक्राप्रमाणे फिरतात तसे प्रजाजन तुला पाहून पुरुषार्थाने वागतील. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord ruler and giver of light, having fought out the voracious drought and bad harvest with the thunderbolt of natural energy, keen for success in the development of lands and cows and the project of solar energy, you deplete ten injurious impediments and ride the chariot of the dominion like the sun in orbit.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a king do-is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra-king! giver of great wealth, attain inexhaustible strength and fight with that wicked person who sells bad barley and other articles of food etc. with your thunder belt- like weapon in day time when there is the commingling of the rays of the sun. On the attainment of wealth and prosperity, refrain from doing ten kinds of sins which are harmful to all and administer the state like the cycle or wheel of the sun.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king! you should fight with a wicked enemy only and not with a righteous one, by so doing, as all worlds revolve around the sun like a wheel, so all your people will move industriously at your very light.
Translator's Notes
Ten sins opposite to the five Yamas (restraints) mentioned in the Yoga Darhsana and five Niyamas (observances) may be taken consisting of violence, untruth, steal, adultery, greediness, impurity, covetousness, excessive luxury or indulgence, reading obscene books, atheism.
Foot Notes
(शुष्णम्) बलम । शुष्णम् इति बलनाम (NG 2,9) = Strength. (कुत्सेन) वज्र ेण । कुत्स इति वज्रनाम (NG 2,20)। = With a powerful weapon like the thunderbolt. (गविष्टौ) किरणसमागये । गाव इति रश्मिनाम (NG 1,5 ) यज-देवपूजा सङ्गतिकरण दानेषु (भ्वा०) अत्र सङ्गतिकरणार्थं ग्रहणाम् | = In day time when there are the rays of the sun. (रपासि) हिंसनानि । रपो रिप्रमिति पापनामनी भवता: ( NKT 4,3,21) अत्र हिसाsसत्यस्तेय व्यभिचार परिग्रहा शौचासन्तोपातपो स्वाध्यायानीश्वर प्रणिधानानां धृति क्षमादि विरोधिनां वा पापन्तंग्रहणं कर्तुंशभ्यते । = Violent actions.
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