ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 31/ मन्त्र 5
स स॑त्यसत्वन्मह॒ते रणा॑य॒ रथ॒मा ति॑ष्ठ तुविनृम्ण भी॒मम्। या॒हि प्र॑पथि॒न्नव॒सोप॑ म॒द्रिक्प्र च॑ श्रुत श्रावय चर्ष॒णिभ्यः॑ ॥५॥
स्वर सहित पद पाठसः । स॒त्य॒ऽस॒त्व॒न् । म॒ह॒ते । रणा॑य । रथ॑म् । आ । ति॒ष्ठ॒ । तु॒वि॒ऽनृ॒म्ण॒ । भी॒मम् । या॒हि । प्र॒ऽप॒थि॒न् । अव॑सा । उप॑ । म॒द्रिक् । प्र । च॒ । श्रु॒त॒ । श्र॒व॒य॒ । च॒र्ष॒णिऽभ्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स सत्यसत्वन्महते रणाय रथमा तिष्ठ तुविनृम्ण भीमम्। याहि प्रपथिन्नवसोप मद्रिक्प्र च श्रुत श्रावय चर्षणिभ्यः ॥५॥
स्वर रहित पद पाठसः। सत्यऽसत्वन्। महते। रणाय। रथम्। आ। तिष्ठ। तुविऽनृम्ण। भीमम्। याहि। प्रऽपथिन्। अवसा। उप। मद्रिक्। प्र। च। श्रुत। श्रवय। चर्षणिऽभ्यः ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 31; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्स राजा किं कुर्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे सत्यसत्वन् प्रपथिंस्तुविनृम्ण ! स त्वं महते रणाय रथमा तिष्ठाऽवसा भीमं सङ्ग्राममुप याहि मद्रिक् सन् विद्वद्भ्यः श्रुत चर्षणिभ्यश्च प्र श्रावय ॥५॥
पदार्थः
(सः) (सत्यसत्वन्) सत्यानि सत्वान्यन्तःकरणादीनि यस्य तत्सम्बुद्धौ (महते) (रणाय) सङ्ग्रामाय (रथम्) रमणीयं यानम् (आ) (तिष्ठ) (तुविनृम्ण) बहुधनयुक्त (भीमम्) भयङ्करम् (याहि) (प्रपथिन्) प्रकृष्टः पन्था विद्यते यस्य तत्सम्बुद्धौ (अवसा) रक्षणादिना (उप) (मद्रिक्) यो मामञ्चति मदभिमुखः (प्र) (च) (श्रुत) शृणु (श्रावय) (चर्षणिभ्यः) मनुष्येभ्यः ॥५॥
भावार्थः
यो राजा सत्यवादिभ्यो राजनीतिकृत्यं श्रुत्वाऽन्येभ्यः श्रावयित्वा शुद्धात्मा सन्त्सर्वस्य रक्षणाय दुष्टपराजयं करोति स एवातुलश्रीको भवतीति ॥५॥ अत्रेन्द्रराजकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकत्रिंशत्तमं सूक्तं तृतीयो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (सत्यसत्वन्) शुद्ध अन्तःकरण आदि इन्द्रियों युक्त (प्रपथिन्) उत्तम मार्गवाले और (तुविनृम्ण) बहुत धन से युक्त ! (सः) वह आप (महते) बड़े (रणाय) सङ्ग्राम के लिये (रथम्) सुन्दर वाहन पर (आ, तिष्ठ) स्थित हूजिये और (अवसा) रक्षण आदि से (भीमम्) भयङ्कर सङ्ग्राम को (उप, याहि) प्राप्त हूजिये तथा (मद्रिक्) मेरे सम्मुख हुए विद्वानों से (श्रुत) सुनिये (चर्षणिभ्यः, च) और मनुष्यों के लिये (प्र, श्रावय) सुनाइये ॥५॥
भावार्थ
जो राजा सत्यवादियों से राजनीति के कृत्य को सुनकर अन्यों को सुना कर शुद्धचित्तवाला सब के रक्षण के लिये दुष्टों का पराजय करता है, वही बहुत लक्ष्मीवाला होता है ॥५॥ इस सूक्त में इन्द्र और राजा के कृत्य का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यही इकतीसवाँ सूक्त और तृतीय वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
गुरुजन संग का उपदेश
भावार्थ
हे ( सत्य-सत्वन् ) सत्यपालक बलवान् पुरुषों के स्वामिन् ! हे सत्य अन्तःकरण और बल वाले ! हे (तुवि-नृम्ण) बहुत ऐश्वर्यशालिन् ! तू ( महते रणाय ) बड़े भारी संग्राम के लिये ( भीमम् ) भयजनक ( रथम् ) रथ वा रथ सैन्य पर ( आ तिष्ठ ) बैठ, उस पर शासन कर । हे ( प्र-पथिन् ) उत्तम मार्ग चलने हारे वा उत्तम अश्व यानादि के स्वामिन् ! तू ( अवसा ) रक्षा, बल तथा ज्ञान सहित ( मद्रिक ) मेरे समीप ( उप याहि ) प्राप्त हो और ( चर्षणिभ्यः ) विद्वान्, ज्ञानदृष्टा पुरुषों से ( प्र श्रुत च) उत्तम २ वचन सुना कर (चर्षणिभ्यः प्र श्रावय च ) मनुष्यों के हितार्थ उत्तम ज्ञानों को सुनाया भी कर । इति तृतीयो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुहोत्र ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः-१ निचृत् त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पंक्ति: । ३ पंक्ति: । ४ निचृदतिशक्वरी । ५ त्रिष्टुप् । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'सत्यसत्या तुविनृम्ण' प्रभु
पदार्थ
[१] हे (सत्यसत्वन्) = सत्य बलवाले (तुविनृम्ण) = महान् धनवाले प्रभो ! (सः) = वे आप (महते रणाय) = इस महान् अध्यात्म संग्राम के लिये, काम-क्रोध-लोभ आदि से युद्ध के लिये, (भीमम्) = इस शत्रुभयंकर (रथं अतिष्ठ) = शरीर-रथ पर स्थित होइये। आपकी शक्ति से शक्ति-सम्पन्न होकर मैं इन शत्रुओं को जीतनेवाला बनूँ। [२] (प्रपथिन्) = हे प्रकृष्ट मार्गवाले प्रभो! आप (अवसा) = रक्षण के हेतु से (मद्रिक् उपयाहि) = मुझे आभिमुख्येन प्राप्त होइये। आपको प्राप्त करके मैं इन शत्रुओं के आक्रमण से अपने को बचा सकूँ । (च) = और (हे श्रुत) = ज्ञान-सम्पन्न प्रभो! आप (चर्षणिभ्यः) = हम श्रमशील मनुष्यों के लिये (प्रश्रावय) = प्रकृष्ट ज्ञान को प्राप्त कराइये ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमारे शरीर-रथ में स्थित हों। इसी से हमें शक्ति व धन की प्राप्ति होगी और हम जीवन-संग्राम में सफल होंगे। प्रभु हमें रक्षा प्राप्त करायें, ज्ञान दें जिससे हम रक्षित हो सकें। 'सुहोत्र' ऋषि ही इन्द्र का स्तवन करते हैं -
मराठी (1)
भावार्थ
जो राजा सत्यवादी लोकांकडून राजनीतीचे कार्य ऐकून इतरांना ऐकवितो, शुद्ध चित्त करून सर्वांच्या रक्षणासाठी दुष्टांचा पराजय करतो तोच अत्यंत श्रीमंत होतो. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O lord commander of the power of truth and reality, master of manifold wealth and splendour, ready for the arduous battle of life, ride the awesome chariot, go forward, traveller of the path of rectitude, come to us too with the wisdom of revealed omniscience with all your modes of defence and protection and proclaim the truth for the people.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a king do-is again told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! endowed with pure intellect mind and hear, traveler of the path of righteousness, possessor of abundant wealth, mount on your charming car for the great battle. With your protective powers go to the fierce battle. Tending towards by me (and your other subjects) hear the words of wisdom uttered the enlightened persons and make others also hear them.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
That king only becomes the master of infinite wealth who hears the duties of the rulers from absolutely truthful enlightened persons, makes others also hear them and being pure souled, defeats the wicked for the protection of all good persons.
Translator's Notes
अन्त: करणानि means inner senses consisting of मन (mind) बुद्धि (intellect) चित्त अहङ्कार (ego consciousness).
Foot Notes
(सत्यसत्वन्) सत्यानि सत्वान्यन्त: करणादीनि यस्य तत्सम्बुद्धौ | = Endowed with pure intellect mind and heart. (तुविनम्ण) बहुधनयुक्त | = Endowed with much wealth.
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