ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 39/ मन्त्र 2
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒यमु॑शा॒नः पर्यद्रि॑मु॒स्रा ऋ॒तधी॑तिभिर्ऋत॒युग्यु॑जा॒नः। रु॒जदरु॑ग्णं॒ वि व॒लस्य॒ सानुं॑ प॒णीँर्वचो॑भिर॒भि यो॑ध॒दिन्द्रः॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । उ॒शा॒नः । परि॑ । अद्रि॑म् । उ॒स्राः । ऋ॒तधी॑तिऽभिः । ऋ॒त॒ऽयुक् । यु॒जा॒नः । रु॒जत् । अरु॑ग्णम् । वि । व॒लस्य॑ । सानु॑म् । प॒णीन् । वचः॑ऽभिः । अ॒भि । यो॒ध॒त् । इन्द्रः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमुशानः पर्यद्रिमुस्रा ऋतधीतिभिर्ऋतयुग्युजानः। रुजदरुग्णं वि वलस्य सानुं पणीँर्वचोभिरभि योधदिन्द्रः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठअयम्। उशानः। परि। अद्रिम्। उस्राः। ऋतधीतिऽभिः। ऋतऽयुक्। युजानः। रुजत्। अरुग्णम्। वि। वलस्य। सानुम्। पणीन्। वचःऽभिः। अभि। योधत्। इन्द्रः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 39; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वद्भिः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! यथाऽयमृतधीतिभिरुस्रा युजान इन्द्रोऽद्रिं परि रुजद्वलस्य सानुं हन्तुमभि वि योधत् तथर्तयुगुशानो वचोभिरुत्तमं जनमरुग्णं पणींश्च साध्नुहि ॥२॥
पदार्थः
(अयम्) (उशानः) कामयमानः (परि) सर्वतः (अद्रिम्) मेघम् (उस्राः) किरणान् (ऋतधीतिभिः) जलधारकैर्गुणैः (ऋतयुक्) य ऋतेन सत्येन युनक्ति (युजानः) धारयन् (रुजत्) भनक्ति (अरुग्णम्) रोगरहितम् (वि) (वलस्य) मेघस्य। वल इतिमेघनाम। (निघं०१.१०) (सानुम्) शिखराकारं घनम् (पणीन्) प्रशंसनीयान् व्यवहारान् (वचोभिः) वचनैः (अभि) (योधत्) युध्यते (इन्द्रः) सूर्य्यः ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ! यथा सूर्यः स्वरश्मिभिर्भूमेर्जलमाकृष्य धृत्वा मेघाकारं हत्वा पृथिव्यां निपात्य सर्वान् व्यवहारान्त्साध्नोति तथैव विद्वद्भ्यः शुभा विद्या आकृष्य धृत्वोत्तमेषु विद्यार्थिषु वर्षित्वाऽविद्यां हत्वा विज्ञानेन धर्मार्थकाममोक्षव्यवहारान्निष्पादयत ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वानों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वन् ! जैसे (अयम्) यह (ऋतधीतिभिः) जल के धारण करनेवाले गुणों से (उस्राः) किरणों को (युजानः) धारण करता हुआ (इन्द्रः) सूर्य्य (अद्रिम्) मेघ को (परि, रुजत्) विभाग करता है और (वलस्य) मेघ के (सानुम्) शिखर के आकार मेघ को नाश करने को (अभि, वि, योधत्) सब ओर से विशेष कर युद्ध करता है, वैसे (ऋतयुक्) सत्य से युक्त होनेवाला (उशानः) कामना करता हुआ (वचोभिः) वचनों से उत्तम जनों को (अरुग्णम्) रोगरहित और (पणीन्) प्रशंसा करने योग्य व्यवहारों को सिद्ध कीजिये ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वान् जनो ! जैसे सूर्य्य अपनी किरणों से भूमि से जल का आकर्षण कर धारण कर और मेघ के आकार का नाश करके पृथिवी के ऊपर गिराय सम्पूर्ण व्यवहारों को सिद्ध करता है, वैसे ही विद्वानों से श्रेष्ठ विद्याओं का आकर्षण कर, धारण करके उत्तम विद्यार्थियों में वर्षाय और अविद्या का नाश करके विज्ञान से धर्म्म, अर्थ काम और मोक्ष के व्यवहारों को सिद्ध करो ॥२॥
विषय
गुरु शिष्य के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( उशानः ऋग् इन्द्रः ऋतधीतिभिः वलस्यसानु रुजत्, पणीन् अभि योधत् ) कान्तिमान्, तेजोयुक्त सूर्य वा विद्युत्, जलधारक किरणों से व्यापक मेघ के उच्च भाग को छिन्न भिन्न करता है, स्तुत्य व्यवहारों को गर्जनाओं सहित करता है, उसी प्रकार ( अयम् ) यह ( उशानः ) विद्याओं की कामना करने वाला, (युजानः ) विद्याभ्यास में मनोयोग देने वाला विद्यार्थी जन ( ऋत-युग ) सत्य ज्ञान के भीतर योग देने वाला हो, और ( ऋत-धीतिभिः ) ज्ञान को धारण करने के उपायों से ( अद्रिं परि उस्राः ) मेघवत् ज्ञानवर्षण करने वाले गुरु के प्रति अपनी इन्द्रिय वृत्तियों को (युजानः ) लगाने वाला हो । वह ( इन्द्रः ) अज्ञान का नाश करने में समर्थ विद्वान्, गुरु ( अरुग्णं ) न टूटे हुए ( वलस्य ) व्यापक ( सानु ) अज्ञान के प्रबल अंश को ( रुजत) छिन्न भिन्न करे, विद्या के कठिन मर्मों को खोले । वह ( वचोभिः) उत्तम वचनों द्वारा (पणीन् प्रति ) अपने विद्यार्थियों को लक्ष्य कर उनके प्रति ( अभि योधत्) युक्ति प्रतियुक्तियों से आक्षेप-प्रत्याक्षेप करे, वादविवाद द्वारा सिद्धान्तों की शिक्षा दे । अर्थात् गुरु स्वयं वीर के समान विद्यार्थी के लिये सब कठिन स्थलों को सरल कर दिया करे । तो साथ ही ( अयम् उशानः ) यह गुरु भी ( ऋत-युग् ) सत्य ज्ञान का योग कराने वाला होकर (ऋत-धीतिभिः ) सत्य ज्ञान धारण कराने वाली क्रियाओं से ( अद्रिं परि उस्रा: युजानः ) अपने अभीत, निर्भय शिष्य के प्रति किरणोंवत् वाणियों को प्रदान करता हुआ रहे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः – १, ३ विराट् त्रिष्टुप् । । २ त्रिष्टुप् । ४, ५ भुरिक् पंक्तिः ।। पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'बल व पणियों' के साथ युद्ध
पदार्थ
[१] (अयं इन्द्रः) = ये परमैश्वर्यशाली प्रभु (अद्रिं परि) = अविद्या पर्वत का भाग बनी हुई [ भागे] (उस्त्राः) = ज्ञानेन्द्रिय रूप गौवों को (उशानः) = हमारे लिये प्राप्त कराने की कामना करते हुए (धीतिभिः) = सत्यकर्मा उपासकों से (युजान:) = युक्त हुए हुए (ऋतयुक्) = हमारे साथ ऋत को जोड़नेवाले (वलस्य) = ज्ञान पर परदा डाल देनेवाले वलासुर [काम-वासना] के (सानुम्) = समुच्छ्रित (अरुग्णम्) = जिसका भंग बड़ा कठिन है उस अविद्या पर्वत को (विरुजत्) = भग्न करते हैं। अर्थात् प्रभु उपासकों के अज्ञान को नष्ट करके इन्द्रियों को अविद्याजनित वैषयिक बन्धनों से मुक्त करते हैं । [२] ये शत्रुविद्रावक प्रभु (पणीन्) = अविद्या की अनुचरभूत पूर्णरूप से व्यावहारिक [सांसारिक] वृत्तियों को, लोभ व कृपणता से धनार्जन की वृत्तियों को (वचोभिः) = ज्ञान की वाणियों द्वारा (अभियोधत्) = पराभूत करते हैं। प्रभु कृपा से ज्ञान की वाणियाँ इस अध्यात्म युद्ध में कृपणता को परास्त करती हैं। हम उदारवृत्ति के बनकर धर्ममय जीवनवाले बन पाते हैं 'उदारं धर्ममित्याहुः' ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमें ज्ञान प्राप्त कराके हमारी इन्द्रियों को विषय बन्धनों से मुक्त करते हैं। हमारी वासना व कृपणता को दूर करते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो ! जसा सूर्य आपल्या किरणांनी भूमीवरील जलाचे आकर्षण करून धारण करतो, मेघांच्या आकाराचा नाश करून पृथ्वीवर पाडतो व संपूर्ण व्यवहार करतो तसेच विद्वानांकडून श्रेष्ठ विद्येचे आकर्षण व धारण करून उत्तम विद्यार्थ्यांवर विद्येची वृष्टी करून अविद्येचा नाश करून विज्ञानाने धर्म, अर्थ, काम मोक्षाबाबतचे व्यवहार करा. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
This poet, like the sun, loving, inspiring and impassioned, in unison with the truth and law of existence, with waves of energy bearing rays of light and showers of rain, breaks the clouds of darkness, lights up impenetrable tops of mighty mountains, opens up treasures of wealth, and blesses the untainted and the celebrants. Thus does Indra fight and shine.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should the enlightened persons do -is again told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O enlightened person ! as the sun with his attributes, upholding waters, harnessing his rays, smites down the cloud and fights to break down the top of the thick cloud, so being united with truth, desiring the welfare of all, unite with a man who is good and healthy and accomplish admirable dealings.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O highly learned persons ! as the sun draws with his rays water from earth, upholds it and smites down the cloud, makes it fall down on earth and accomplishes all dealings, so you should draw all good sciences from the enlightened men, uphold them, shower them on good students, dispel all ignorance and accomplish with true knowledge (righteousness) wealth, fulfilment of noble desires and emancipation.
Foot Notes
(उस्रा) किरणान् । उस्रा इति रश्मिनाम (NG 1, 5)। = Rays. (अद्रिम) मेघम् । अद्रिरिति मेघनाम (NG 1, 10) ) । = Cloud, ( वलस्य) मेघस्य । वल इति मेघनाम (NG 1, 10) । = Cloud.
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