ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 39/ मन्त्र 5
ऋषि: - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
नू गृ॑णा॒नो गृ॑ण॒ते प्र॑त्न राज॒न्निषः॑ पिन्व वसु॒देया॑य पू॒र्वीः। अ॒प ओष॑धीरवि॒षा वना॑नि॒ गा अर्व॑तो॒ नॄनृ॒चसे॑ रिरीहि ॥५॥
स्वर सहित पद पाठनु । गृ॒णा॒नः । गृ॒ण॒ते । प्र॒त्न॒ । रा॒ज॒न् । इषः॑ । पि॒न्व॒ । व॒सु॒ऽदेया॑य । पू॒र्वीः । अ॒पः । ओष॑धीः । अ॒वि॒षा । वना॑नि । गाः । अर्व॑तः । नॄन् । ऋ॒चसे॑ । रि॒री॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नू गृणानो गृणते प्रत्न राजन्निषः पिन्व वसुदेयाय पूर्वीः। अप ओषधीरविषा वनानि गा अर्वतो नॄनृचसे रिरीहि ॥५॥
स्वर रहित पद पाठनु। गृणानः। गृणते। प्रत्न। राजन्। इषः। पिन्व। वसुऽदेयाय। पूर्वीः। अपः। ओषधीः। अविषा। वनानि। गाः। अर्वतः। नॄन्। ऋचसे। रिरीहि ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 39; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे राजन् प्रत्न ! त्वं गृणते गृणानो वसुदेयाय पूर्वीरिष अप ओषधीरविषा वनानि गा अर्वतो नॄनृचसे पिन्व नू रिरीहि ॥५॥
पदार्थः
(नू) क्षिप्रम्। अत्र ऋचि तुनुघेति चेति दीर्घः। (गृणानः) स्तुवन् (गृणते) स्तुवते (प्रत्न) प्राचीन दीर्घायुष्क (राजन्) विद्याविनयाभ्यां प्रकाशमान (इषः) अन्नादीन् (पिन्व) सेवस्व (वसुदेयाय) वसूनि द्रव्याणि देयानि येन तस्मै (पूर्वीः) पूर्णसुखान् (अपः) जलानि (ओषधीः) यवादीन् (अविषा) अविद्यमानं विषं येषु तानि (वनानि) जङ्गलानि (गाः) धेन्वादीन् (अर्वतः) अश्वादीन् (नॄन्) मनुष्यादीन् (ऋचसे) प्रशंसिताय कर्मणे (रिरीहि) याचस्व। रिरीहीति याच्ञाकर्मा। (निघं०३.१९) ॥५॥
भावार्थः
यो राजा सत्यवादी सत्यवक्तॄन् प्रीणाति विद्वद्भ्यो विद्याविनयौ प्राप्य सदैव प्रजासुखमिच्छति यज्ञेनोत्तमैः सुगन्धितफलपुष्पयुक्तैर्वृक्षैर्लतादिभिः सर्वान्त्सुखयन् जलौषधिवृक्षगोऽश्वमनुष्यसुखवृद्धये परमेश्वरं विदुषो वा याचते स चेहाऽमुत्राऽनन्तमानन्दं प्राप्नोतीति ॥५॥ अत्रेन्द्रविद्वत्सूर्य्यराजगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकोनचत्वारिंशत्तमं सूक्तमेकादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (1)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (राजन्) विद्या और विनय से प्रकाशमान (प्रत्न) प्राचीन तथा दीर्घ आयु युक्त आप (गृणते) स्तुति करते हुए के लिये (गृणानः) स्तुति करते हुए (वसुदेयाय) द्रव्य देने योग्य जिससे उसके लिये (पूर्वीः) पूर्ण सुखवाले (इषः) अन्न आदिकों को (अपः) जलों को (ओषधीः) यव आदिकों को (अविषा) नहीं विद्यमान विष जिनमें उन (वनानि) जंगलों को (गाः) धेनु आदिकों को (अर्वतः) अश्व आदिकों को और (नॄन्) मनुष्य आदिकों को (ऋचसे) प्रशंसित कर्म्म के लिये (पिन्व) सेवन करिये और (नू) शीघ्र (रिरीहि) याचना करिये ॥५॥
भावार्थ
जो राजा सत्यवादी है और सत्य बोलनेवालों को प्रसन्न करता है और विद्वानों से विद्या और विनय को प्राप्त होकर सदा ही प्रजा के सुख चाहता है तथा यज्ञ और उत्तम सुगन्धित फल पुष्प से युक्त वृक्षों से और लता आदिकों से सब को सुखयुक्त करता हुआ, जल, ओषधि, वृक्ष, गौ, घोड़ा और मनुष्यों के सुख की वृद्धि के लिये परमेश्वर वा विद्वानों से याचना करता है, वही इस लोक और परलोक के अनन्त आनन्द को प्राप्त होता है ॥५॥ इस सूक्त में इन्द्र, विद्वान्, सूर्य और राजा के गुणवर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह उनचालीसवाँ सूक्त और ग्यारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो राजा सत्यवादी असून सत्यवचनी लोकांना प्रसन्न करतो व विद्वानांकडून विद्या व विनय प्राप्त करून सदैव प्रजेचे सुख इच्छितो, यज्ञाने आणि उत्तम सुगंधित फळाफुलांनी युक्त वृक्ष, गाय, घोडा व माणसांच्या सुखाच्या वृद्धीसाठी परमेश्वर किंवा विद्वानांची याचना करतो तोच इहलोक व परलोक यांच्या अनंत आनंदाला प्राप्त करतो. ॥ ५ ॥
English (1)
Meaning
Raj an, brilliant ruler, ancient power, praised and celebrated by devotees, develop and increase abundant food, energy and wealth for the dedicated liberal giver of charities, and for the development and accomplish ment of holy programmes give waters, herbs, inobno- xious forests, cows, horses and brave leaders and competent manpower for the celebrant.
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