ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 40/ मन्त्र 3
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
समि॑द्धे अ॒ग्नौ सु॒त इ॑न्द्र॒ सोम॒ आ त्वा॑ वहन्तु॒ हर॑यो॒ वहि॑ष्ठाः। त्वा॒य॒ता मन॑सा जोहवी॒मीन्द्रा या॑हि सुवि॒ताय॑ म॒हे नः॑ ॥३॥
स्वर सहित पद पाठसम्ऽइ॑द्धे । अ॒ग्नौ । सु॒ते । इ॒न्द्र॒ । सोमे॑ । आ । त्वा॒ । व॒ह॒न्तु॒ । हर॑यः । वहि॑ष्ठाः । त्वा॒ऽय॒ता । मन॑सा । जो॒ह॒वी॒मि॒ । इन्द्र॑ । आ । या॒हि॒ । सु॒वि॒ताय॑ । म॒हे । नः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
समिद्धे अग्नौ सुत इन्द्र सोम आ त्वा वहन्तु हरयो वहिष्ठाः। त्वायता मनसा जोहवीमीन्द्रा याहि सुविताय महे नः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽइद्धे। अग्नौ। सुते। इन्द्र। सोमे। आ। त्वा। वहन्तु। हरयः। वहिष्ठाः। त्वाऽयता। मनसा। जोहवीमि। इन्द्र। आ। याहि। सुविताय। महे। नः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 40; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजा राजजनाश्च किं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! वहिष्ठा हरयो समिद्धेऽग्नौ सुते सोमे त्वा त्वामाऽऽवहन्तु। हे इन्द्र ! यंत्वायता मनसाऽहं त्वां जोहवीमि स त्वं महे सुविताय न आ याहि ॥३॥
पदार्थः
(समिद्धे) सम्यक् प्रदीप्ते (अग्नौ) पावके (सुते) निष्पन्ने (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद (सोमे) उक्ते महौषधिरसे (आ) (त्वा) त्वाम् (वहन्तु) प्रापयन्तु (हरयः) अश्वा इव मनुष्याः (वहिष्ठाः) अतिशयेन वोढारः (त्वायता) त्वां प्राप्तेन (मनसा) विज्ञानेन (जोहवीमि) भृशमाह्वयामि (इन्द्र) दुःखदारिद्र्यविदारक (आ) (याहि) समन्तादागच्छ (सुविताय) प्रेरणायै (महे) महते (नः) अस्मान् ॥३॥
भावार्थः
हे राजन् ! त्वमुत्तमैर्मनुष्यैस्सह वैद्यान्सुपरीक्ष्योत्तमान् रसानन्नानि च सम्पाद्य भुक्त्वैक्यमतं कृत्वा प्रजाजनान् रक्षित्वा महदैश्वर्यं प्राप्याऽस्मानपि श्रीमतः सम्पादय ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजा और राजा के जन क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के देनेवाले (वहिष्ठाः) अतिशय प्राप्त करानेवाले (हरयः) घोड़ों के सदृश मनुष्य (समिद्धे) उत्तम प्रकार प्रदीप्त (अग्नौ) अग्नि में और (सुते) उत्पन्न हुए (सोमे) बड़ी औषधी के रस में (त्वा) आपको (आ, वहन्तु) सब प्रकार से प्राप्त करावें और हे (इन्द्र) दुःख दारिद्र्य के विदारनेवाले ! जिन (त्वायता) आपको प्राप्त हुए (मनसा) विज्ञान से मैं आपको (जोहवीमि) अत्यन्त पुकारता हूँ, वह आप (महे) बड़ी (सुविताय) प्रेरणा के लिये (नः) हम लोगों को (आ, याहि) सब प्रकार से प्राप्त हूजिये ॥३॥
भावार्थ
हे राजन् ! आप उत्तम मनुष्यों के साथ वैद्यों की उत्तम प्रकार परीक्षा कर, उत्तम रसों और अन्नों को सम्पन्न कर उनका भोजन कर, एकमत कर और प्रजाजनों की रक्षा करके अत्यन्त ऐश्वर्य्य को प्राप्त होकर हम लोगों को भी धनयुक्त करिये ॥३॥
विषय
उसके शिष्यवत् कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( अग्नौ समिद्धे ) अग्नि के खूब प्रदीप्त हो जाने के समान (अग्नौ ) अग्रणी नायक के ( सम-इद्धे ) अति प्रज्वलित, तेजस्वी हो जाने पर ( सोमे सुते ) राष्ट्र ऐश्वर्य के अभिषेक द्वारा प्राप्त हो जाने पर हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! ( त्वा ) तुझको ( वहिष्ठा:) अपने ऊपर धारण करने वाले वा राज्य-भार को वहन करने में अत्यन्त कुशल ( हरयः ) विद्वान् मनुष्य उत्तम अश्वों के समान ही ( त्वा वहन्तु ) तुझे सन्मार्ग पर ले जावें । मैं प्रजाजन ( त्वायता मनसा ) तुझे चाहने वाले चित्त से ( जोहवीमि ) निरन्तर पुकारता हूँ । हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्य के देने वाले ! तू ( नः महे सुविताय ) हमारे बड़े भारी उत्तम शासन वा ऐश्वर्य भाव की वृद्धि करने के लिये हमें ( आ याहि ) प्राप्त हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: ।। इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १, ३ विराट् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् । ४ भुरिक् पंक्तिः । ५ स्वराट् पंक्तिः । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
समिद्धे अग्नौ, सुते सोमे
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (अग्नौ समिद्धे) = ज्ञानाग्नि के दीप्त होने पर तथा (सोमे सुते) = सोम का सम्पादन होने पर, हे प्रभो ! (त्वा) = आपको (वहिष्ठाः) = वोद्धृतम-वहन करने में उत्तम (हरयः) = इन्द्रियाश्व (आवहन्तु) = हमारे लिये प्राप्त करानेवाले हों । अर्थात् इन्द्रियाँ हमें प्रभु को प्राप्त कराने में सहायक बनें। [२] हे (इन्द्र) = प्रभो ! (त्वायता) = आपकी कामनावाले (मनसा) = मन से (जोहवीमि) = मैं आपको पुकारता हूँ। (आयाहि) = आप हमें प्राप्त होइये और (नः) = हमारे (महे सुविताय) = महान् कल्याण के लिये होइये ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु प्राप्ति के लिये आवश्यक है कि - [क] ज्ञानाग्नि को समिद्ध करें, [ख] सोम शक्ति का सम्पादन करें, [ग] मन में प्रभु प्राप्ति की प्रबल कामनावाले हों। यह प्रभु प्राप्ति हमारे महान् कल्याण के लिये होगी।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा ! तू उत्तम लोकांसह वैद्याची उत्तम प्रकारे परीक्षा करून उत्तम रस व अन्न तयार करून त्यांचे भोजन करून एकमताने प्रजेचे रक्षण करून अत्यंत ऐश्वर्य प्राप्त कर व आम्हाला श्रीमंत कर. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
When the fire is kindled and rising and the soma is distilled, let the strongest motive forces of transport and the most powerful leaders who can bear the burdens of the commonwealth bring you here. And when you are here I invoke and invite you with a mind wholly dedicated to you, Indra, destroyer of pain and suffering, come for our great pleasure and prosperity of well being.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should the king and the officers of the State do-is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! giver of prosperity, let those men who are powerful and rapid going (like the horses and who are conveyors of great delight, bring you here when the fire is kindled and the great juice of soma and other invigorating herbs has been extracted. O Indra! destroyer of poverty and misery, come here to give us great impetus and encouragement as I invoke with devoted mind, desiring you intensely.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king! with the help of the best men and having tested well the Vaidyas (physicians) get the food and juices prepared by experts, take them, create unity among the subjects, protect them, attain prosperity and make us also prosperous.
Foot Notes
(हरयः) अश्वा इव मनुष्याः । हरयः इति मनुष्यनाम- (NG 2, 3)। = Men powerful and rapid going like the horses. (सुविताय) प्रेरणायै = For impetus or impulsion, encouragement. (इन्द्र) दुःखदारिद्रय विदारक । इन्दुः-इन्दन् शत्रूणां दारयितावा (NKT 10, 1, 8) | अत्र दुःखदारिद्रयादि रुपाणी शत्रूणाम्। = Destroyer of misery and poverty.
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