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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 40/ मन्त्र 4
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    आ या॑हि॒ शश्व॑दुश॒ता य॑या॒थेन्द्र॑ म॒हा मन॑सा सोम॒पेय॑म्। उप॒ ब्रह्मा॑णि शृणव इ॒मा नोऽथा॑ ते य॒ज्ञस्त॒न्वे॒३॒॑ वयो॑ धात् ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । या॒हि॒ । शश्व॑त् । उ॒श॒ता । य॒या॒थ॒ । इन्द्र॑ । म॒हा । मन॑सा । सो॒म॒ऽपेय॑म् । उप॑ । ब्रह्मा॑णि । शृ॒ण॒वः॒ । इ॒मा । नः॒ । अथ॑ । ते॒ । य॒ज्ञः । त॒न्वे॑ । वयः॑ । धा॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ याहि शश्वदुशता ययाथेन्द्र महा मनसा सोमपेयम्। उप ब्रह्माणि शृणव इमा नोऽथा ते यज्ञस्तन्वे३ वयो धात् ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। याहि। शश्वत्। उशता। ययाथ। इन्द्र। महा। मनसा। सोमऽपेयम्। उप। ब्रह्माणि। शृणवः। इमा। नः। अथ। ते। यज्ञः। तन्वे। वयः। धात् ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 40; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजादिभिः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! यो यज्ञो नस्ते च तन्वे वयो धात्तेनाथेमा ब्रह्माणि त्वं महा मनसोशता शृणवः शश्वद्ययाथ सोमपेयं पातुमुपायाहि ॥४॥

    पदार्थः

    (आ) (याहि) आगच्छ (शश्वत्) निरन्तरम् (उशता) कामयमानेन विदुषा सह (ययाथ) गच्छ (इन्द्र) परमधनप्रद (महा) महता (मनसा) विज्ञानयुक्तेन चित्तेन (सोमपेयम्) सोमश्चासौ पेयश्च तम् (उप) (ब्रह्माणि) धनानि वेदान् वा (शृणवः) शृणुयाः (इमा) इमानि (नः) अस्माकम् (अथा) अनन्तरम्। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (यज्ञः) सद्विद्याव्यवहारवर्धको व्यवहारः (तन्वे) शरीराय (वयः) जीवनम् (धात्) दधाति ॥४॥

    भावार्थः

    हे विद्वांसो राजादयो जना ! यूयं विद्वद्भिः सह सङ्गत्य बुद्धिबलवर्द्धकावाहारविहारौ सदा कृत्वा परस्परं विचार्य्य ब्रह्मचर्यादिनाऽऽयुर्वर्द्धयत येन सर्वे महाशया आप्ता भवेयुः ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजा आदिकों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) अत्यन्त धन के देनेवाले ! जो (यज्ञः) सद्विद्या और व्यवहार को बढ़ानेवाला व्यवहार (नः) हम लोगों के और (ते) आपके (तन्वे) शरीर के लिये (वयः) जीवन को (धात्) धारण करता है उससे (अथा) इसके अनन्तर (इमा) इन (ब्रह्माणि) धनों को वेदों को आप (महा) बड़े (मनसा) विज्ञानयुक्त चित्त से (उशता) कामना करते हुए विद्वान् के साथ (शृणवः) सुनिये और (शश्वत्) निरन्तर (ययाथ) प्राप्त हूजिये तथा (सोमपेयम्) पीने योग्य सोमलता के रस को पीने के लिये (उप, आ, याहि) समीप प्राप्त हूजिये ॥४॥

    भावार्थ

    हे विद्वान् राजा आदि जनो ! आप लोग विद्वानों के साथ मेल कर, बुद्धि और बल के बढ़ानेवाले आहार और विहार को कर, परस्पर विचार करके ब्रह्मचर्य्य आदि से अवस्था को बढ़ावें, जिससे सब महाशय आप्त होवें ॥४॥

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    विषय

    उसके शिष्यवत् कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! तू ( शश्वत् ) निरन्तर ( उशता ) प्रजा को चाहने वाले ( मनसा ) चित्त से ( आ याहि ) प्राप्त हो । तू ( महा मनसा ) बड़े उदार चित्त ज्ञान से युक्त होकर ( सोम-पेयम् ) पुत्र वा शिष्यवत् पालन करने योग्य राष्ट्र-ऐश्वर्य रूप रक्षायोग्य धन को ( ययाथ ) प्राप्त कर । ( नः ) हमारे ( इमा ) इन ( ब्रह्माणि ) उत्तम वेदोपदेशों को स्वयं शिष्यवत् ( उप शृणवः ) ध्यानपूर्वक श्रवण कर । ( अथ ) और ( यज्ञः ) सत्संग, आदर सत्कार तथा प्रजा का कर आदि देना, और दानवान् प्रजाजन भी ( ते तन्वे ) तेरे शरीर और विस्तृत राष्ट्र के लिये ( वयः धात् ) उत्तम अन्न और बल प्रदान करे, तुझे पुष्ट करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: ।। इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १, ३ विराट् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् । ४ भुरिक् पंक्तिः । ५ स्वराट् पंक्तिः । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रभु प्राप्ति के चार साधन

    पदार्थ

    [१] जीव से प्रभु कहते हैं कि- हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (आयाहि) = हमारे समीप (आ शश्वत्) = सदा (उशता) = चाहते हुए (महा मनसा) = बड़े दिल से (सोमपेयम्) = सोम के पान को (ययाथ) = प्राप्त हो। यह सोमपान [वीर्य-रक्षण] तुझे हमारे समीप लानेवाला हो। [२] (नः) = हमारी (इमा) = इन (ब्रह्माणि) = ज्ञान की वाणियों को (उपशृणव:) = आचार्यों के समीप बैठकर सुननेवाला हो । (अध) = अब (यज्ञः) = यह यज्ञ (ते तन्वे) = तेरे शरीर के लिये (वयोः) = उत्कृष्ट जीवन को (धात्) = धारण करे।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु प्राप्ति के साधन निम्न हैं— [क] प्रभु की ओर जाना, प्रभु की उपासना, [ख] सोम का पान करना, [ग] ज्ञान की वाणियों को सुनना, [घ] यज्ञशील बनना ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे विद्वान राजा ! तू विद्वानांबरोबर मेळ घालून बुद्धी व बल वाढविणारा आहार-विहार, परस्पर विचार व ब्रह्मचर्य इत्यादींनी दीर्घायु व्हावेस, ज्यामुळे सर्व लोक विद्वान व्हावेत. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, mighty ruler and dispenser of peace and prosperity, come here without let up with inspired sages and leaders with magnanimous mind and morale to this nectar drink of the soma of governance and enlightenment. Listen carefully to these songs of adoration and words of the Veda, and, we pray, may this yajnic business of governance and administration bear and bring us good food, energy and a long age of good health for our person and the social order.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should king and officers of the State do-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king! giver of great wealth, come here to attend the Yajna (dealing that increases good knowledge and conduct) which upholds or ennobles your and our life. Along with the enlightened persons, who desires the welfare of all and with great mind, endowed with true knowledge, listen to the Vedas, go constantly or be active and come to drink the Soma (juice of the invigorating herbs) which is worth drinking.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

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    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O enlightened king and other persons! you should associate yourselves with great scholars, taking food and drink, which increase intellect and strength, consulting one another, enhance your span of life or age with the observance of Brahamacharya (abstinence) and other means, so that all may be absolutely truthful and large hearted.

    Foot Notes

    (उशता) कामयमानेन विदुषा सह (उशता) वश-कान्तौ (अदा०) कान्ति: कामना | = With an enlightened person who desires the welfare of all. (यज्ञ:) स विद्याव्यवहारवधंको व्यवहारः । यजे-देवपूजा सङ्गतिकरणदानेषु (भ्वा०) अत्र देवपूजा सङ्गतिकरणार्थं | = Dealing which increases good knowledge and conduct.

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