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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 46/ मन्त्र 10
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्रः प्रगाथो वा छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    ये ग॑व्य॒ता मन॑सा॒ शत्रु॑माद॒भुर॑भिप्र॒घ्नन्ति॑ धृष्णु॒या। अध॑ स्मा नो मघवन्निन्द्र गिर्वणस्तनू॒पा अन्त॑मो भव ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । ग॒व्य॒ता । मन॑सा । शत्रु॑म् । आ॒ऽद॒भुः । अ॒भि॒ऽप्र॒घ्नन्ति॑ । धृ॒ष्णु॒ऽया । अध॑ । स्म॒ । नः॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । इ॒न्द्र॒ । गि॒र्व॒णः॒ । त॒नू॒ऽपाः । अन्त॑मः । भ॒व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये गव्यता मनसा शत्रुमादभुरभिप्रघ्नन्ति धृष्णुया। अध स्मा नो मघवन्निन्द्र गिर्वणस्तनूपा अन्तमो भव ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये। गव्यता। मनसा। शत्रुम्। आऽदभुः। अभिऽप्रघ्नन्ति। धृष्णुऽया। अध। स्म। नः। मघऽवन्। इन्द्र। गिर्वणः। तनूऽपाः। अन्तमः। भव ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 46; मन्त्र » 10
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स राजा केषां किं कुर्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    हे गिर्वणो मघवन्निन्द्र ! ये धृष्णुया गव्यता मनसा शत्रुमादभुरधास्य सेनामभिप्रघ्नन्ति तैस्सह स्मा नस्तनूपा अन्तमो भव ॥१०॥

    पदार्थः

    (ये) (गव्यता) गवा वाचेवाचरता (मनसा) (शत्रुम्) (आदभुः) समन्ताद्धिंसन्ति (अभिप्रघ्नन्ति) आभिमुख्ये प्रकर्षेण घ्नन्ति (धृष्णुया) प्रगल्भत्वादिना (अध) आनन्तर्ये (स्मा) एव। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (मघवन्) बहुधनयुक्त (इन्द्र) शत्रुविदारक (गिर्वणः) सुशिक्षिताभिर्वाग्भिः सेवित (तनूपाः) स्वस्यान्येषां च शरीराणां रक्षकः (अन्तमः) समीपस्थः (भव) ॥१०॥

    भावार्थः

    हे राजन् ! ये दस्य्वादिदुष्टानां शत्रूणां च निग्रहीतारः प्रजापालनतत्परा धार्मिकजनाः स्युस्तेषां विश्वासेन राज्यकृत्यादीन्यलङ्कुर्याः ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह राजा किन को क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (गिर्वणः) उत्तम प्रकार शिक्षित वाणियों से सेवा किये गये (मघवन्) बहुत धन से युक्त (इन्द्र) शत्रुओं को नाश करनेवाले ! (ये) जो (धृष्णुया) ढीठपन आदि से (गव्यता) वाणी के सदृश आचरण करते हुए (मनसा) मन से (शत्रुम्) शत्रु का (आदभुः) सब प्रकार से नाश करते हैं (अध) इसके अनन्तर इसकी सेना का (अभिप्रघ्नन्ति) सन्मुख अत्यन्त नाश करते हैं, उनके साथ (स्मा) ही (नः) हम लोगों के (तनूपाः) अपने और अन्यों के शरीरों के रक्षक (अन्तमः) समीप में स्थित (भव) हूजिये ॥१०॥

    भावार्थ

    हे राजन् ! जो ठग आदि दुष्ट शत्रुओं के बाँधनेवाले तथा प्रजाओं के पालन में तत्पर धार्मिक जन हों, उनके विश्वास से राज्य के कृत्यों को शोभित करिये ॥१०॥

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    विषय

    उसके कर्त्तव्य । संघ में बल देना राजा का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( गिर्वणः ) उत्तम वाणियों के सेवन करने हारे ! ( मघवन् ) ऐश्वर्यवन् ( ये ) जो लोग ( गव्यता मनसा ) भूमि की इच्छा वाले मन से ( शत्रुम् ) शत्रु को ( धृष्णुया ) दृढ़ और प्रगल्भ होकर ( आ दभुः ) विनाश करते और ( अभि प्र ध्नन्ति ) सब प्रकार से दण्डित करते हैं, हे ( मघवन् ) ऐश्वर्यवन् ! ( नः ) हम लोगों के तू सदा ( तनू-पाः ) शरीरों का रक्षक और ( अन्तमः ) सदा निकटवर्ती ( भव ) हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रः प्रगाथं वा देवता । छन्दः - १ निचृदनुष्टुप् । ५,७ स्वराडनुष्टुप् । २ स्वराड् बृहती । ३,४ भुरिग् बृहती । ८, ९ विराड् बृहती । ११ निचृद् बृहती । १३ बृहती । ६ ब्राह्मी गायत्री । १० पंक्ति: । १२,१४ विराट् पंक्ति: ।। चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    तनूपाः, अन्तमः

    पदार्थ

    [१] उपरले मन्त्र के अनुसार उत्तम घरों में रहते हुए हम वे बनें (ये) = जो (गव्यता मनसा) = [गा:=आगमन इच्छता] ज्ञान की वाणियों को अपनाने की कामनावाले मन से (शत्रुं आदभुः) = कामरूप शत्रु को हिंसित करते हैं। और (धृष्णुया) = शत्रु-घर्षण शक्ति के द्वारा (अभिप्रघ्नन्ति) = इन वासनारूप शत्रुओं का समन्तात् विनाश करते हैं। [२] (अध) = अब, हे मघवन् (इन्द्र) = सर्वैश्वर्यशालिन् शत्रुविद्रावक प्रभो ! आप (स्मा) = निश्चय से (न:) = हमारे होइये, हम आपकी ओर झुकाववाले हों । हे (गिर्वणः) = ज्ञान की वाणियों से सम्भजनीय प्रभो ! आप हमारे (तनूपा:) = शरीरों के रक्षक (अन्तमः) = अन्तिकतम मित्र (भव) = होइये ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम ज्ञान की वाणियों की कामनावाले होते हुए शत्रुओं का धर्षण करें। प्रभु के मित्र बनें, प्रभु हमारे रक्षक अन्तिकतम मत्र हों ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा ! जे ठक इत्यादी दुष्ट शत्रूंना बांधून ठेवणारे व प्रजेचे पालन करण्यात तत्पर धार्मिक लोक असतात त्यांच्या विश्वासावर राज्यकार्य करा. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of peace and power, exalted by words of adoration, give us warriors who, with their love of cows, lands and speech and with the force of their mind and strength of arm and courage, press down the enemies and destroy their arms and armies, and then, also, O lord protector of our person and body politic, be with us at the closest, deep within.

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