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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 46/ मन्त्र 4
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्रः प्रगाथो वा छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - मध्यमः

    बाध॑से॒ जना॑न्वृष॒भेव॑ म॒न्युना॒ घृषौ॑ मी॒ळ्ह ऋ॑चीषम। अ॒स्माकं॑ बोध्यवि॒ता म॑हाध॒ने त॒नूष्व॒प्सु सूर्ये॑ ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बाध॑से । जना॑न् । वृ॒ष॒भाऽइ॑व । म॒न्युना॑ । घृषौ॑ । मी॒ळ्हे । ऋ॒ची॒ष॒म॒ । अ॒स्माक॑म् । बो॒धि॒ । अ॒वि॒ता । म॒हा॒ऽध॒ने । त॒नूषु॑ । अ॒प्ऽसु । सूर्ये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बाधसे जनान्वृषभेव मन्युना घृषौ मीळ्ह ऋचीषम। अस्माकं बोध्यविता महाधने तनूष्वप्सु सूर्ये ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बाधसे। जनान्। वृषभाऽइव। मन्युना। घृषौ। मीळ्हे। ऋचीषम। अस्माकम्। बोधि। अविता। महाऽधने। तनूषु। अप्ऽसु। सूर्ये ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 46; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजप्रजाजनाः किं प्रतिजानीरन्नित्याह ॥

    अन्वयः

    हे ऋचीषमेन्द्र राजन् ! ये मन्युना वृषभेव घृषौ मीळ्हे जनान् बाधन्ते यतस्त्वं तान् बाधसेऽस्माकं तनूष्वप्सु महाधनेऽविता सन्त्सूर्य्ये प्रकाश इवाऽस्मान् बोधि तस्माद्भवान् माननीयोऽस्ति ॥४॥

    पदार्थः

    (बाधसे) (जनान्) (वृषभेव) बलिष्ठवृषभवत् (मन्युना) क्रोधेन (घृषौ) दुष्टानां घर्षणे (मीळ्हे) सङ्ग्रामे (ऋचीषम) ऋचा तुल्यप्रशंसनीय (अस्माकम्) (बोधि) विज्ञापय (अविता) (महाधने) सङ्ग्रामे (तनूषु) शरीरेषु (अप्सु) प्राणेषु (सूर्ये) सवितरि ॥४॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। हे राजन् ! वयं दुष्टानां बाधनाय सङ्ग्रामेऽस्मदीयानां रक्षणाय त्वां स्वीकुर्मस्त्वमस्मान् सत्यन्यायकृत्यानि सदैव बोधयेः ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजा और प्रजाजन किसकी प्रतिज्ञा करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (ऋचीषम) ऋचा के सदृश प्रशंसा करने योग्य अत्यन्त ऐश्वर्य से युक्त राजन् ! जो (मन्युना) क्रोध से (वृषभेव) बलयुक्त बैल जैसे वैसे (घृषौ) दुष्टों के घर्षण में (मीळ्हे) सङ्ग्राम में (जनान्) मनुष्यों की बाधा करते हैं, जिससे आप उनकी (बाधसे) बाधा करते हो और (अस्माकम्) हम लोगों के (तनूषु) शरीरों में और (अप्सु) प्राणों में (महाधने) सङ्ग्राम में (अविता) रक्षा करनेवाले हुए (सूर्य्ये) सूर्य्य में प्रकाश जैसे वैसे हम लोगों को (बोधि) जनाइये इससे आप आदर करने योग्य हैं ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे राजन् ! हम लोग दुष्टों के बाधने के लिये और सङ्ग्राम में अपने लोगों की रक्षा के लिये आपका स्वीकार करें तथा आप हम लोगों को सत्य न्यायकृत्य सदा ही जनाइये ॥४॥

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    विषय

    सर्वोपरि शास्ता ।

    भावार्थ

    (ऋचीषम) हे स्तुति-अनुरूप गुण कर्मों और स्वभाव वाले ! राजन् ! वेद मन्त्रों में बतलाये गुणों धर्मों के अनुरूप भगवन् ! ( घृषौ ) घर्षण और (मीढे) वर्षणकाल में ( वृषभा इव) जिस प्रकार मेघों को विद्युत (वाधते ) पीड़ित करता है उसी प्रकार तू भी ( घृषौ ) परस्पर संघर्ष, प्रतिस्पर्धा के अवसर तथा । ( मीढे ) शत्रु पर निरन्तर बाणवर्षा तथा प्रजा पर निरन्तर ऐश्वर्यों की वर्षा तथा भूमियों पर जल सेचनादि के निमित्त ( मन्युना ) क्रोध, और ज्ञानपूर्वक ( वृषभा इव जनान् ) मेघ तुल्य शरवर्षी एवं बलवान् सांडों के समान दृढ नरपुंगवों को भी ( बाधसे ) तू पीड़ित वा दण्डित करने में समर्थ है। हे राजन् ! हे प्रभो ! तू ( मह-धने ) बड़े ऐश्वर्य प्राप्ति के निमित्त होने वाले संग्राम के अवसर में ( तनूषु ) प्रजाओं के शरीरों, ( अप्सु ) प्राणों और ( सूर्ये ) सूर्य में क्रम से आत्मा, जीवन और प्रकाश वा प्रताप के तुल्य होकर ( अस्माकं ) हमारा ( अविता ) रक्षक और ज्ञानदाता होकर हमें ( बोधि ) ज्ञानवान् कर, हमें चेता ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रः प्रगाथं वा देवता । छन्दः - १ निचृदनुष्टुप् । ५,७ स्वराडनुष्टुप् । २ स्वराड् बृहती । ३,४ भुरिग् बृहती । ८, ९ विराड् बृहती । ११ निचृद् बृहती । १३ बृहती । ६ ब्राह्मी गायत्री । १० पंक्ति: । १२,१४ विराट् पंक्ति: ।। चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    तनूषु अप्सु सूर्ये

    पदार्थ

    [१] हे (ऋचीषम) = हे ऋचासम-स्तुति के समान, अर्थात् जितनी भी स्तुति की जाए प्रभु उससे अधिक ही हैं, ऐसे प्रभो ! इस (घृषौ) = शत्रुओं का घर्षण करनेवाले मीढे संग्राम में (वृषभा इव) = शक्ति के सेचन की तरह [वृषभेण इव] (मन्युना) = ज्ञान से (जनान्) = शत्रुजनों को बाधसे तू बाधित करता है। प्रभु हमें शक्ति देते हैं और ज्ञान देते हैं। इस शक्ति व ज्ञान के द्वारा प्रभु हमें संग्राम में विजयी बनाते हैं। [२] हे प्रभो! आप (महाधने) = इस संग्राम में (अस्माकम्) = हमारे (अविता बोधि) = रक्षक होइये। (तनूषु) = शक्तियों के विस्तार के निमित्त, (अप्सु) = रेतः कणों के रक्षण के निमित्त तथा (सूर्ये) = ज्ञान के सूर्य के उदय के निमित्त हमारे रक्षक होइये। आप से रक्षित हुएहुए हम शक्तियों का विस्तार करें, रेतःकणों का रक्षण करें तथा ज्ञानसूर्य को मस्तिष्क रूप गगन में उदित करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- यहाँ जीवन संग्राम में प्रभु ही हमारे शत्रुओं को पीड़ित करते हैं। प्रभु से रक्षित हुए-हुए हम 'शक्ति विस्तार, रेत: कणों के रक्षण व ज्ञानसूर्योदय' को करनेवाले बनते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे राजा! आम्ही दुष्टांना बाधा पोहचविण्यासाठी व युद्धात आमच्या लोकांच्या रक्षणासाठी तुझा स्वीकार करावा व तू आम्हाला सदैव खरा न्याय द्यावास. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, ruler of the world, sacred as hymns of Rgveda, as a bull controls the herd, so you control as well as defend people with righteous passion and justice when they rub against each other or face great conflicts. O lord, be our saviour, giver of enlightenment in the great battles for wealth, health care, water management and the harnessing of solar energy.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should the king and his subjects promise-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O praiseworthy like a Rik of the Veda ! you fight those in the battle, which is waged to subdue the wicked, with wrath like a bull, who gives trouble to the people. Enlighten us, being our protector in our bodies, in our Pranas (vital energy) and in the battle and enlighten us like the light in the sun. As you do this, therefore, are worthy of our honor.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king ! we accept you (as our leader ) for the destruction of the wicked and our protection. Enlighten us about truth, and just duties.

    Foot Notes

    (मीळ हे) सङ्ग्रामे । भीळहे इति संग्रामनाम (NG 2, 17)। = In the battle. (महाधने) सङ्ग्रामे । महाधने इति संग्रामनाम (NG 2, 17)। = In the battle.

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