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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 46/ मन्त्र 3
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्रः प्रगाथो वा छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - मध्यमः

    यः स॑त्रा॒हा विच॑र्षणि॒रिन्द्रं॒ तं हू॑महे व॒यम्। सह॑स्रमुष्क॒ तुवि॑नृम्ण॒ सत्प॑ते॒ भवा॑ स॒मत्सु॑ नो वृ॒धे ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । स॒त्रा॒ऽहा । विऽच॑र्षणिः । इन्द्र॑म् । तम् । हू॒म॒हे॒ । व॒यम् । सह॑स्रऽमुष्क । तुवि॑ऽनृम्ण । सत्ऽप॑ते । भव॑ । स॒मत्ऽसु॑ । नः॒ । वृ॒धे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः सत्राहा विचर्षणिरिन्द्रं तं हूमहे वयम्। सहस्रमुष्क तुविनृम्ण सत्पते भवा समत्सु नो वृधे ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। सत्राऽहा। विऽचर्षणिः। इन्द्रम्। तम्। हूमहे। वयम्। सहस्रऽमुष्क। तुविऽनृम्ण। सत्ऽपते। भव। समत्ऽसु। नः। वृधे ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 46; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः सङ्ग्रामे कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

    अन्वयः

    हे सहस्रमुष्क तुविनृम्ण सत्पत इन्द्र ! यो विचर्षणिः सत्राहेन्द्रमाह्वयति तथा तं वयं हूमहे स त्वं समत्सु नो वृधे भवा ॥३॥

    पदार्थः

    (यः) (सत्राहा) सत्यदिनानि (विचर्षणिः) विद्वान् मनुष्यः (इन्द्रम्) ऐश्वर्य्ययुक्तम् (तम्) (हूमहे) प्रशंसामः (वयम्) (सहस्रमुष्क) असङ्ख्यवीर्य्य (तुविनृम्ण) बहुधन (सत्पते) सतां विदुषां पालक (भवा) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (समत्सु) सङ्ग्रामेषु (नः) अस्माकम् (वृधे) वर्धनाय ॥३॥

    भावार्थः

    तमेव वयं प्रशंसामो यः प्रतिदिनमस्माकं रक्षो विधत्ते तमेव वयं सङ्ग्रामे संरक्षेम ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य सङ्ग्राम में कैसा वर्त्ताव करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (सहस्रमुष्क) असङ्ख्य पराक्रमवाले (तुविनृम्ण) बहुत धनों से युक्त (सत्पते) विद्वानों के पालनेवाले अत्यन्त ऐश्वर्य्य से युक्त (यः) जो (विचर्षणिः) विद्वान् मनुष्य (सत्राहा) सत्य दिनों में (इन्द्रम्) अत्यन्त ऐश्वर्य्य से युक्त को पुकारता है, वैसे (तम्) उसकी (वयम्) हम लोग (हूमहे) प्रशंसा करते हैं और आप (समत्सु) सङ्ग्रामों में (नः) हम लोगों की (वृधे) वृद्धि के लिये (भवा) हूजिये ॥३॥

    भावार्थ

    उसी की हम लोग प्रशंसा करते हैं, जो प्रतिदिन हम लोगों की रक्षा करता है और उसी की हम लोग सङ्ग्राम में रक्षा करें ॥३॥

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    विषय

    इन्द्रपद वाच्य ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो (सत्राहा ) सब दिनों, वा (सत्राहा ) सत्य बल से शत्रुओं का नाश करने में समर्थ, ( विचर्षणिः ) विश्व का विविध प्रकार से द्रष्टा है (वयम् ) हम (तम् ) उसको (इन्द्रं हूमहे) ‘इन्द्र’ नाम से पुकारते हैं । और उस ( इन्द्रं ) ऐश्वर्यवान् को अपनी रक्षा के लिये पुकारें । हे ( सत्पते ) सज्जनों के पालक ! हे ( तुवि-नृम्ण ) बहुत से धनों के स्वामिन् ! हे ( सहस्र-मुष्क ) सहस्रों को पुष्ट करने वाले ! और असंख्य वीर्यों, बलों से युक्त ! तू ( समत्सु ) संग्रामों के अवसरों पर ( नः वृधे भव ) हमारी वृद्धि के लिये हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रः प्रगाथं वा देवता । छन्दः - १ निचृदनुष्टुप् । ५,७ स्वराडनुष्टुप् । २ स्वराड् बृहती । ३,४ भुरिग् बृहती । ८, ९ विराड् बृहती । ११ निचृद् बृहती । १३ बृहती । ६ ब्राह्मी गायत्री । १० पंक्ति: । १२,१४ विराट् पंक्ति: ।। चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    शक्ति प्राप्ति व संग्राम विजय

    पदार्थ

    [१] (यः) = जो (सत्राहा) = महान् शत्रुओं के नाशक (विचर्षणिः) = हमारा विशेषरूप से ध्यान करनेवाले प्रभु हैं, (तं इन्द्रम्) उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को (वयम्) = हम (हूमहे) = पुकारते हैं। प्रभु का आराधन हमें शत्रुओं के विनाश के योग्य बनाता है। [२] हे (सहस्रमुष्क) = अनन्त वीर्यवाले (तुविनृम्ण) = महान् धनवाले (सत्पते) = सज्जनों के रक्षक प्रभो! आप (समत्सु) = संग्रामों में (नः) = हमारे (वृधे) = वर्धन के लिये (भवा) = होइये। आप से शक्ति की वृद्धि को प्राप्त करके ही तो हम संग्रामों में विजयी बनेंगे।

    भावार्थ

    भावार्थ– हे प्रभो! आप ही हमें शक्ति प्राप्त कराते हैं और आप ही हमें संग्रामों में विजयी करते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो प्रत्येक दिवशी आमचे रक्षण करतो त्याचीच आम्ही प्रशंसा करतो. त्याचेच आम्हीही युद्धात रक्षण केले पाहिजे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    We invoke and adore Indra, lord of glory, constant watcher of humanity and human actions, and pray: O lord protector of truth, commanding thousandfold vitality and flames of fiery forces, master of universal wealth, be with us for our advancement in the struggles of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should men deal in the battles-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O wealthy and protector of the good ! you are endowed with infinite virility and riches, we sincerely call upon you on all days, like a learned person calls upon you. You, who are most manly with a thousand powers, help us in the battles for prosperity.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    We praise only him, who protects us every day and we may also guard him in the battle.

    Foot Notes

    (सत्राहा) सत्यदिनानि । सत्ता इति सत्यनाम (NG 3, 10)। = All true days. (सहस्रमुष्क ) असंख्यातवीर्ग्य । सहस्रमिति बहुनाम (NG 3, 1) ।= Endowed with infinite virility, most manly with a thousand powers. (तुविनृम्ण) बहुधन । तुवीति बहुनाम (NG 3, 1) नृम्यणम् इति धननाम (NG 2, 10)। = Possessor of abundant wealth.

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