ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 65/ मन्त्र 4
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - उषाः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इ॒दा हि वो॑ विध॒ते रत्न॒मस्ती॒दा वी॒राय॑ दा॒शुष॑ उषासः। इ॒दा विप्रा॑य॒ जर॑ते॒ यदु॒क्था नि ष्म॒ माव॑ते वहथा पु॒रा चि॑त् ॥४॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दा । हि । वः॒ । वि॒ध॒ते । रत्न॑म् । अस्ति॑ । इ॒दा । वी॒राय॑ । दाशुषे॑ । उ॒ष॒सः॒ । इ॒दा । विप्रा॑य । जर॑ते । यत् । उ॒क्था । नि । स्म॒ । माऽव॑ते । व॒ह॒थ॒ । पु॒रा । चि॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इदा हि वो विधते रत्नमस्तीदा वीराय दाशुष उषासः। इदा विप्राय जरते यदुक्था नि ष्म मावते वहथा पुरा चित् ॥४॥
स्वर रहित पद पाठइदा। हि। वः। विधते। रत्नम्। अस्ति। इदा। वीराय। दाशुषे। उषसः। इदा। विप्राय। जरते। यत्। उक्था। नि। स्म। माऽवते। वहथ। पुरा। चित् ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 65; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ताः कीदृश्यो भवेयुरित्याह ॥
अन्वयः
हे वीरपुरुषा ! यथोषासस्तथैव वर्त्तमाना भार्या यदि प्राप्नुत तदेदा हि वो विधते रत्नमस्तीदा दाशुषे वीरायेदा जरते विप्राय मावते पुरा चिद्यदुक्थाः सन्ति तानि स्म चिन्नि वहथा ॥४॥
पदार्थः
(इदा) इदानीम् (हि) यतः (वः) युष्मान् (विधते) परिचरते (रत्नम्) रमणीयं धनम् (अस्ति) (इदा) इदानीम् (वीराय) बलिष्ठाय जनाय (दाशुषे) दात्रे (उषासः) उषर्वद्वर्त्तमानाः (इदा) इदानीम् (विप्राय) मेधाविने (जरते) स्तावकाय (यत्) यानि (उक्था) वचनानि (नि) नित्यम् (स्म) एव (मावते) मत्सदृशाय (वहथा) प्राप्नुथ। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (पुरा) पुरस्तात् (चित्) अपि ॥४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! या उषर्वद्वर्त्तमाना भार्या युष्मान् प्राप्नुयुस्तर्ह्यस्मिन्नेव जन्मनि सर्वाणि सुखानि भवतः प्राप्नुयुरविरोधेन वर्त्तमानान् स्त्रीपुरुषान् सदैव यशांसि प्राप्नुवन्ति ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे कैसी हों, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे वीरपुरुषो ! जैसे (उषासः) उषाकाल, उन्हीं के समान वर्त्तमान भार्याओं को जो प्राप्त होओ तो (इदा) अब (हि) ही (वः) तुमको (विधते) सेवन करते हुए के लिये (रत्नम्) रमणीय धन (अस्ति) विद्यमान है वा (इदा) अब (दाशुषे) देते हुए (वीराय) बलिष्ठ जन के लिये और (इदा) अब (जरते) स्तुति करनेवाले (विप्राय) मेधावी पुरुष के लिये (मावते) जो मेरे सदृश है, उसके लिये (पुरा) पहिले (चित्) भी (यत्) जो (उक्था) कहने के योग्य वचन हैं (स्म) उन्हीं को (नि, वहथा) निवाहो ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो उषा के समान वर्त्तमान भार्यायें तुम लोगों को प्राप्त हों तो इसी जन्म में सब सुख तुम लोगों को प्राप्त हों, क्योंकि अविरोध से वर्त्तमान स्त्री-पुरुषों को सदैव यश प्राप्त होते हैं ॥४॥
विषय
उषा के दृष्टान्त से स्त्रियों के कर्त्तव्यों का वर्णन।
भावार्थ
हे ( उषासः ) प्रभात के समान कान्ति युक्त स्त्रियो ! (वः) - आप लोगों में से ( विधते ) विशेषरूप से धारण पोषण करने वाले के लिये ( इदा हि ) इसी अवसर में ( रत्नम् ) रम्य सुख (अस्ति) है । अ ( वीराय दाशुषे ) वीर, दानशील पुरुष को भी ( इदा ) इस समय ( रत्नम् अस्ति ) रमण योग्य सुख प्राप्त होता है। आप लोग ( पुराचित्) पहले के समान ही ( मावते ) मेरे सदृश ( जरते विप्राय ) उपदेष्टा विद्वान् पुरुष के लिये ( यद् उक्था ) जो उत्तम वचन हों वे भी ( इदा ) इस अवसर में ही ( नि वहथ स्म ) प्रकट करो । अर्थात् गृहस्थ का सुख, पुत्रादि लाभ, पालक पोषक वीर्यवान् दानशील पुरुष को भी इसी चढ़ते यौवन काल में ही प्राप्त होता है, इसलिये स्त्रियें अपने सदृश वरों को उत्तम वचनों से इसी काल में वर लिया करें और वरणकाल में विद्वान् आचार्यवत् ही अर्ध पाद्यादि का उपचार किया करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। उषा देवता ।। छन्दः – १ भुरिक् पंक्तिः । ५ विराट् पंक्तिः । २, ३ विराट् त्रिष्टुप । ४, ६ निचृत्त्रिष्टुप् ।। षडृचं सूक्तम् ।।
विषय
विधते, वीराय दाशुषे, विप्राय जरते, मावते
पदार्थ
[१] हे (उषास:) = उषाओ! (इदा) = [इदानीम्] इस समय (विधते) = पूजा करनेवाले के लिये (हि) = निश्चय से (वः) = आपका (रत्नम्) = रमणीय धन (अस्ति) = है। पूजा करनेवाले के लिये आप रमणीय धनों को प्राप्त कराती हो । (इदा) = इस समय (वीराय) = कामादि शत्रुओं को कम्पित करके दूर भगानेवाले (दाशुषे) = दाश्वान् - त्याग वृत्तिवाले पुरुष के लिये, यज्ञशील पुरुष के लिये आपका रमणीय धन है। [२] (इदा) = इस समय यह आपका धन उस (जरते) = स्तुति करनेवाले (विप्राय) = ज्ञानी पुरुष के लिये है, (यद् उक्था) = जिसकी वाणी में स्तोत्रों का निवास है। (मावते) = [मा= लक्ष्मीः] प्रशस्त लक्ष्मी सम्पन्न इस पुरुष के लिये (पुरा चित्) = पहले ही (निवहथ स्म) = रमणीय धनों को प्राप्त कराती ही हो ।
भावार्थ
भावार्थ- उषा काल प्रभु के उपासक के लिये, वीर यज्ञशील पुरुष के लिये, ज्ञानी स्तोता के लिये तथा प्रशस्त लक्ष्मीवाले के लिये रमणीय धनों को प्राप्त कराता है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जर तुम्हाला उषेप्रमाणे भार्या मिळाल्या तर याच जन्मी तुम्हाला सुख मिळेल. कारण विरोध नसेल तर स्त्री-पुरुषांना सदैव यश प्राप्त होते. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O dawns, here and now is the jewel wealth for the servant, for the brave, and for the generous giver. Here it is for the wise sage and for the worshipper. Here is the word of worship as before, pray bring the wealth of life as before for the celebrant like me.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should women be-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O brave men ! if you get wives like the dawns, then there is a charming wealth for a servant of the people, for a mighty and liberal donor and for a wiseman like me, who is a devotee of God and admirer of good virtues. You can get the good words of praise which are there.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! if you can get good wives like the dawns, then in this life itself you can attain all happiness. The husband and wife who never quarrel and live peacefully, always enjoy good reputation.
Foot Notes
(इदा) इदानीम्। = Now. (विप्राय) मेधाविने । विप्र: इति मेधाविनाम (NG 3, 15 ) = For a wise man. (जरते) स्तावकाय ? जरिता इति स्तोत्रिनाम (NG 3,16) = For a devotee of God and admirer of good virtues and men.
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