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ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 74/ मन्त्र 4
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - सोमारुद्रौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ति॒ग्मायु॑धौ ति॒ग्महे॑ती सु॒शेवौ॒ सोमा॑रुद्रावि॒ह सु मृ॑ळतं नः। प्र नो॑ मुञ्चतं॒ वरु॑णस्य॒ पाशा॑द्गोपा॒यतं॑ नः सुमन॒स्यमा॑ना ॥४॥
स्वर सहित पद पाठति॒ग्मऽआ॑युधौ । ति॒ग्महे॑ती॒ इति॑ ति॒ग्मऽहे॑ती । सु॒ऽशेवौ॑ । सोमा॑रुद्रा । इ॒ह । सु । मृ॒ळ॒त॒म् । नः॒ । प्र । नः॒ । मु॒ञ्च॒त॒म् । वरु॑णस्य । पाशा॑त् । गो॒पा॒यत॑म् । नः॒ । सु॒ऽम॒न॒स्यमा॑ना ॥
स्वर रहित मन्त्र
तिग्मायुधौ तिग्महेती सुशेवौ सोमारुद्राविह सु मृळतं नः। प्र नो मुञ्चतं वरुणस्य पाशाद्गोपायतं नः सुमनस्यमाना ॥४॥
स्वर रहित पद पाठतिग्मऽआयुधौ। तिग्महेती इति तिग्मऽहेती। सुऽशेवौ। सोमारुद्रा। इह। सु। मृळतम्। नः। प्र। नः। मुञ्चतम्। वरुणस्य। पाशात्। गोपायतम्। नः। सुऽमनस्यमाना ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 74; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ किं कुर्य्यातामित्याह ॥
अन्वयः
हे सोमारुद्राविव वर्त्तमानौ तिग्मायुधौ तिग्महेती सुशेवौ वैद्यराजानौ ! युवामिह नः सु मृळतं नोऽस्मान् वरुणस्य पाशात्प्र मुञ्चतं सुमनस्यमाना सन्तौ नः सततं गोपायतम् ॥४॥
पदार्थः
(तिग्मायुधौ) तिग्मानि तेजस्वीन्यायुधानि ययोस्तौ (तिग्महेती) तिग्मस्तीव्रो हेतिर्वज्रो ययोस्तौ (सुशेवौ) सुसुखौ (सोमारुद्रौ) शुद्धावोषधीप्राणाविव (इह) अस्मिन् संसारे (सु) सुष्ठु (मृळतम्) सुखयतम् (नः) अस्मान् (प्र) (नः) अस्मान् (मुञ्चतम्) (वरुणस्य) उदानस्येव बलवतो रोगस्य (पाशात्) बन्धनात् (गोपायतम्) (नः) अस्मान् (सुमनस्यमाना) सुष्ठु विचारयन्तौ ॥४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा महौषधिबहिःप्राणौ सर्वान् सदा पालयतस्तथोत्तमौ राजवैद्यौ सर्वेभ्य उपद्रवरोगेभ्यो निरन्तरं रक्षत इति ॥४॥ अत्रौषधिप्राणवद्वैद्यराजयोः कृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति चतुःसप्ततितमं सूक्तमष्टादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (सोमारुद्रौ) शुद्ध औषधी और प्राणों के समान वर्त्तमान (तिग्मायुधौ) तेज आयुधों तथा (तिग्महेती) पैने वज्रवालो (सुशेवौ) अच्छे सुखयुक्त वैद्य और राजजनो ! तुम (इह) इस संसार में (नः) हम लोगों को (सु, मृळतम्) अच्छे प्रकार सुखी करो तथा (नः) हम लोगों को (वरुणस्य) उदान के समान बलवान् रोग के (पाशात्) बन्धन से (प्र, मुञ्चतम्) छुड़ाओ और (सुमनस्यमाना) सुन्दर विचारवान् होते हुए (नः) हम लोगों की निरन्तर (गोपायतम्) रक्षा करो ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे महौषाधि और बहिः प्राण वायु सबकी सदा पालना करते हैं, वैसे उत्तम राजा और वैद्यजन समस्त उपद्रव और रोगों से निरन्तर रक्षा करते हैं ॥४॥ इस सूक्त में ओषधि और प्राण के समान वैद्य और राजा के कामों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह चौहत्तरवाँ सूक्त और अठारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
जल और अग्नि के तुल्य वैद्यों को आरोग्यरक्षार्थ औषध संग्रह का उपदेश।
भावार्थ
( सोमारुद्रौ ) जल अग्निवत् शान्तिदायक और पीड़ानाशक जन ( तिग्म-आयुधौ ) तीक्ष्ण प्रहारसाधनों से युक्त, ( तिग्म-हेती ) तीक्ष्ण शस्त्रों वाले, ( सु-शेवौ ) उत्तम सुखदायक पुरुष ( नः सुमृडतम् ) हमें अच्छी प्रकार सुखी करें। वे दोनों (सु-मनस्यमाना ) शुभ चित्त वाले होते हुए (नः) हमें ( वरुणस्य पाशात् ) वरुण अर्थात् उदान के समान प्रबल रोग के पाश से ( नः मुञ्चतम् ) हमें छुड़ावें और ( नः गोपायतम् ) हमारी रक्षा करें । इत्यष्टादशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ सोमारुद्रौ देवते । छन्दः – १, २, ४ त्रिष्टुप् । ३ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ चतुर्ऋचं सूक्तम् ।।
विषय
वरुण के पाश से छुटकारा
पदार्थ
[१] हे (सोमारुद्रौ) = सोमरक्षण व रोगद्रावण के पवित्र भावो! आप (तिग्मायुधौ) = बड़े तीक्ष्ण धनुषवाले हो और तिग्महेती तीक्ष्ण शरों [बाणों] वाले हो । (सुशेवौ) = उत्तम सुख को देनेवाले आप (इह) = इस जीवन में रोगविनाश के द्वारा, (नः) = हमारे लिये (सुमृडतम्) = उत्तम सुख को देनेवाले होइये। [२] ये सोम और (रुद्र नः) = हमें (वरुणस्य पाशात्) = वरुण के पास से (प्रमुञ्चतम्) = मुक्त करें। अनृतवादी को ही वरुण के पाश बाँधते हैं। ये सोम और रुद्र हमें अमृत से छुड़ाकर वरुण के पाशों से भी मुक्त करें। इस प्रकार (सुमनस्यमाना) = हमें शोभन मनवाला बनाते हुए ये सोम और रुद्र (नः) = हमें (गोपायतम्) = सुरक्षित करें।
भावार्थ
भावार्थ- सोम और रुद्र का आराधन रोगविनाश द्वारा हमें सुखी बनाये । तथा यह आराधन हमें अमृत से छुड़ाकर सुरक्षित करे । इस प्रकार सोम और रुद्र के आराधन से अपना रक्षण करनेवाला यह 'पायु' बनता है (पाति इति) । अपने में शक्ति को भरनेवाला 'भारद्वाज' तो यह है ही। यह युद्ध में सदा विजयी बनता है। युद्ध के एक-एक उपकरण का यह चित्रण करता है और कहता है
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे महौषधी व बहिः प्राणवायू सर्वांचे पालन करतात तसे उत्तम राजा व वैद्य संपूर्ण उपद्रव व रोगांपासून सदैव रक्षण करतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Soma and Rudra, lords of health and total well being, bearing weapons of blazing efficacy and shattering blows of thundering strength, givers of peace and joy, bless us with health of body, mind and soul and lasting well being. Release us from the snares of Varuna, bondage of sin and disease by the laws of nature. Happy, kind and gracious, protect and promote us in life against sin, disease and indiscretion.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What do they--the king and the physician do again-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king and physician ! you who are like the Soma and other herbs and Pranas (vital breaths), who are armed with sharp weapons and thunderbolt like arms-kind and loving, be gracious unto us. Release us from the noose (band) of the fierce disease, powerful like the Udana (a vital breath). Keep us from sorrow in your loving kindness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! as great medicine and Pranas always nourish all, so good kings and physicians protect all from difficulties and diseases.
Foot Notes
(तिग्महेती) तिग्मस्तोब्रो हेतिर्वज्रौ य्योस्तौ।हेतिरीति वज्रनाम (NG 2, 20) = Whose arms like thunderbolt are sharp. (वरुणस्य) उदानस्येव बलवतो रोगस्य । प्रानोदानौयै मित्रावरुणौ (S. Br. 1, 8, 3, .12; 3, 6, 1. 16) तस्मात् वरुण उदान इति स्वष्टम् उदानवत्प्रवलरोगग्रहणमत्र | = Of the full disease powerful like Udana (a vital breath).
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