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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 17/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - आर्च्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    ते ते॑ दे॒वाय॒ दाश॑तः स्याम म॒हो नो॒ रत्ना॒ वि द॑ध इया॒नः ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ते । ते॒ । दे॒वाय॑ । दाश॑तः । स्या॒म॒ । म॒हः । नः॒ । रत्ना॑ । वि । द॒धः॒ । इ॒या॒नः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ते ते देवाय दाशतः स्याम महो नो रत्ना वि दध इयानः ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ते। ते। देवाय। दाशतः। स्याम। महः। नः। रत्ना। वि। दधः। इयानः ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 17; मन्त्र » 7
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते परस्परं किं किं प्रदद्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे अध्यापक ! यो भवान् न इयानो महो रत्ना वि दधस्तस्मै ते देवाय ते यं दाशतः स्याम ॥७॥

    पदार्थः

    (ते) (ते) तुभ्यम् (देवाय) विदुषेऽध्यापकाय (दाशतः) दातारः (स्याम) (महः) महान्ति (नः) अस्मभ्यम् (रत्ना) विद्यादिरमणीयप्रज्ञाधनानि (वि) (दधः) विदधाति (इयानः) प्राप्नुवन् ॥७॥

    भावार्थः

    यथाऽध्यापकाः प्रीत्या विद्याः प्रदद्युस्तथा विद्यार्थिनो वाङ्मनःशरीरधनैरध्यापकान् प्रीणीयुरिति ॥७॥ अत्राध्यापकविद्यार्थिकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्यृग्वेदे सप्तममण्डले प्रथमोऽनुवाकः सप्तदशं सूक्तं पञ्चमेऽष्टके द्वितीयाध्याये त्रयोविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे परस्पर क्या क्या देवें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे अध्यापक ! जो आप (नः) हमारे लिये (इयानः) प्राप्त होते हुए (महः) बड़े-बड़े (रत्ना) रत्नों को (वि, दधः) विधान करते हो (ते) उन (देवाय) विद्वान् अध्यापक आप के लिये (ते) वे हम लोग (दाशतः) देनेवाले (स्याम) हों ॥७॥

    भावार्थ

    जैसे अध्यापक जन प्रीति के साथ विद्यायें देवें, वैसे विद्यार्थी जन वाणी, मन शरीर और धनों से अध्यापकों को तृप्त करें ॥७॥ इस सूक्त में अध्यापक और विद्यार्थियों के कृत्य का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये। यह ऋग्वेद के सप्तम मण्डल में पहिला अनुवाक और सत्रहवाँ सूक्त तथा पाँचवें अष्टक के द्वितीयाध्याय में तेईसवाँ वर्ग पूरा हुआ ॥

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    विषय

    यज्ञाग्निवत् विद्वान् शासक के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    जो तू ( नः इयानः ) हमें प्राप्त होकर ( महः रत्ना ) बड़े, उत्तम २ पदार्थ (विदधे ) बनाता, और उत्तम २ कर्मों का विधान, अनुशासन करता है (ते देवाय) तुझ विद्वान्, के लिये हम सदा ( दाशतः स्याम ) सब कुछ देने वाले हों । इति त्रयोविंशो वर्गः ॥ इति प्रथमोऽनुवाकः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ३, ४, ६, ७ आर्च्युष्णिक् । २ साम्नी त्रिष्टुप् । ५ साम्नी पंक्तिः । सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रभु के प्रति अर्पण व रत्न प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] (ते) = वे हम सब, हे प्रभो ! (देवाय) = सब कुछ देनेवाले प्रकाशस्वरूप (ते) = आपके लिये (दाशतः) = अपना अर्पण करते हुए स्याम हों। हम अपनी इच्छाओं को आपकी इच्छा में मिला दें। हमारी कोई स्वतन्त्र इच्छा न रहे। [२] (इयानः) = उपगम्यमान होते हुए आप (नः) = हमारे लिये (महः) = महनीय (रत्ना) = रमणीय पदार्थों को (विदध:) = [विधत्स्व] धारण कराइये। प्रभु के उपासक को प्रभु सब रत्नों को प्राप्त कराते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु के प्रति अपना अर्पण करें। प्रभु हमारे लिये सब रमणीय रत्नों को धारण करायेंगे। अगले सूक्त में वसिष्ठ ऋषि 'इन्द्र' नाम से प्रभु का स्तवन करते हैं -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे अध्यापक प्रेमाने विद्या शिकवितात तसे विद्यार्थ्यांनी वाणी, मन, शरीर व धन याद्वारे अध्यापकांना तृप्त करावे. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O great one, as you come, you bear and bring for us the jewel wealths, honours and excellences of life. We pray may we too with gratitude be servers and givers in honour of the generous and brilliant light and fire of life.

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