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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 21/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र य॑न्ति य॒ज्ञं वि॒पय॑न्ति ब॒र्हिः सो॑म॒मादो॑ वि॒दथे॑ दु॒ध्रवा॑चः। न्यु॑ भ्रियन्ते य॒शसो॑ गृ॒भादा दू॒रउ॑पब्दो॒ वृष॑णो नृ॒षाचः॑ ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । य॒न्ति॒ । य॒ज्ञम् । वि॒पय॑न्ति । ब॒र्हिः । सो॒म॒ऽमादः॑ । वि॒दथे॑ । दु॒ध्रऽवा॑चः । नि । ऊँ॒ इति॑ । भ्रि॒य॒न्ते॒ । य॒शसः॑ । गृ॒भात् । आ । दू॒रेऽउ॑पब्दः । वृष॑णः । नृ॒ऽसाचः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र यन्ति यज्ञं विपयन्ति बर्हिः सोममादो विदथे दुध्रवाचः। न्यु भ्रियन्ते यशसो गृभादा दूरउपब्दो वृषणो नृषाचः ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। यन्ति। यज्ञम्। विपयन्ति। बर्हिः। सोमऽमादः। विदथे। दुध्रऽवाचः। नि। ऊँ इति। भ्रियन्ते। यशसः। गृभात्। आ। दूरेऽउपब्दः। वृषणः। नृऽसाचः ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 21; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः किं कुर्य्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    ये सोममादो दुध्रवाचो वृषणो नृषाचो यज्ञं प्र यन्ति विदथे बर्हिर्विपयन्त्यु ये यशसो गृभादा भ्रियन्ते दूरउपब्दो निभ्रियन्ते ते विजयमाप्नुवन्ति ॥२॥

    पदार्थः

    (प्र) (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (यज्ञम्) विद्वत्सङ्गादिकम् (विपयन्ति) विशेषेण गच्छन्ति (बर्हिः) अन्तरिक्षे (सोममादः) ये सोमेन मदन्ति हर्षन्ति ते (विदथे) सङ्ग्रामे (दुध्रवाचः) दुर्धरा वाग्येषान्ते (नि) (उ) (भ्रियन्ते) ध्रियन्ते (यशसः) कीर्तेः (गृभात्) गृहात् (आ) (दूरउपब्दः) दूर उपब्दिर्वाग्येषान्ते। उपब्दिरिति वाङ्नाम। (निघं०१.११)(वृषणः) बलिष्ठाः (नृषाचः) ये नृभिर्नायकैस्सह सम्बध्नन्ति ते ॥२॥

    भावार्थः

    यथा यज्ञानुष्ठातार आनन्दमाप्नुवन्ति तथा युद्धकुशला विजयं लभन्ते यथा दूरकीर्तिर्विद्वान् भवति तथा यशोचितानि कर्माणि कृत्वा परोपकारिणो जना भवन्तु ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो (सोममादः) सोम से हर्षित होते (दुध्रवाचः) वा जिनकी दुःख से धारण करने योग्य वाणी (वृषणः) वे बलिष्ठ (नृषाचः) नायक मनुष्यों से सम्बन्ध करनेवाले जन (यज्ञम्) विद्वानों के सङ्ग आदि को (प्र, यन्ति) प्राप्त होते हैं (विदथे) संग्राम में (बर्हिः) अन्तरिक्ष में (विपयन्ति) विशेषता से जाते हैं (उ) और जो (यशसः) कीर्ति से वा (गृभात्) घर से (आ, भ्रियन्ते) अच्छे प्रकार उत्तमता को धारण करते हैं तथा (दूरउपब्दः) जिनकी दूर वाणी पहुँचती वे सज्जन (नि) निरन्तर उत्तमता को धारण करते हैं और वे विजय को प्राप्त होते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे यज्ञ का अनुष्ठान करनेवाले आनन्द को प्राप्त होते हैं, वैसे युद्ध में निपुण पुरुष विजय को प्राप्त होते हैं, जैसे दूरदेशों में कीर्ति रखनेवाला विद्वान् जन होता है, वैसे यश से संचय किये कर्मों को कर परोपकारी जन हों ॥२॥

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    विषय

    विद्वानों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( सोम-मादः ) अन्न, ऐश्वर्य और बलवीर्य से हर्ष युक्त, प्रसन्न, और ( दुध्र-वाचः ) दुर्धर बड़ी कठिनता से धारण करने योग्य वाणी के स्वामी, शासक लोग ( यज्ञं ) आदर, सत्कार, यज्ञ, विद्वत्संग और परस्पर के दृढ़ संघ को ( प्र यन्ति ) प्राप्त करते हैं, (बर्हिः विपयन्ति) उत्तम वृद्धिशील पद वा आसन को प्राप्त करते और (विदथे) यज्ञ वा संग्राम में वा ज्ञान-व्यवहार में विशेष रूप से रहते हैं। वे (यशसः गृभात् ) यशोजनक घर से निकल कर (वृषणः) बलवान् पुरुष (नृपाचः) मनुष्यों का समवाय बनाकर ( दूरे-उपब्द: ) दूर २ देशों तक अपनी वाणी वा वक्तव्य पहुंचाते और ( नि भ्रियन्ते) निरन्तर आदर प्राप्त करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १, ६, ८,९ विराट् त्रिष्टुप् । २, १० निचृत्त्रिष्टुप् । ३, ७ भुरिक् पंक्तिः । ४, ५ स्वराट् पंक्तिः ।। दशर्चं सूक्तम ।।

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    विषय

    'यज्ञशील पवित्र हृदय उत्कृष्ट ज्ञानी'

    पदार्थ

    [१] (सोममादः) = सोमरक्षण से उल्लास को प्राप्त होनेवाले ये व्यक्ति (यज्ञं प्रयन्ति) = यज्ञ को प्राप्त होते हैं। यज्ञमय जीवनवाले होते हैं। (बर्हिः) = वासनाशून्य हृदयान्तरिक्ष को (विपयन्ति) = विस्तीर्ण करते हैं [विपिः स्तरण कर्मा सा०] । (विदथे) = ज्ञान-यज्ञों में ये व्यक्ति (दुध्रवाचः) = दुर्धारवाणीवाले होते हैं, इनकी युक्तियुक्त बातों का किसी के लिये भी खण्डन करना कठिन होता है। सोमरक्षण इन्हें 'यज्ञशील-पवित्र हृदय व उत्कृष्ट ज्ञानी' बनाता है। [२] (यशसः) = यश के (गृभात्) = ग्रहण से (ये उ) = निश्चयपूर्वक (आ) = समन्तात् (नि भ्रियन्ते) = नीचे धारण किये जाते हैं, अर्थात् अधिक और अधिक नम्र हो जाते हैं। जितना (यश) = उतने नम्र । (दूरे उपब्द:) = [दूरे उपब्दिः येषा ते] दूर-दूर जिनका-जिनका यश का शब्द फैला हुआ है, ऐसे ये सोमरक्षक पुरुष (वृषण:) = शक्तिशाली होते हैं और (नृषाचः) = मनुष्यों के साथ समवेत होकर चलनेवाले होते हैं। सबके साथ मिलते हैं, उनके दुःखों में सहानुतिवाले होते हुए उनके दुःखों को दूर करने के लिये यत्नशील होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से मनुष्य 'यज्ञशील- पवित्र हृदय व उत्कृष्ट ज्ञानी' बनता है। ये सोमरक्षक पुरुष यशस्वी व नम्र बनते हैं। सुदूर कीर्ति शब्दोंवाले, शक्तिशाली व मनुष्यों के दुःखों को दूर करनेवाले होते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे यज्ञाचे अनुष्ठान करणारे आनंदित होतात. तसे युद्धात निपुण असलेले पुरुष विजयी होतात. जशी विद्वानांची कीर्ती दूरदेशी पसरलेली असते तसे यशदायी कर्म करून परोपकारी बनावे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Lovers of soma ecstasy march forward to join the yajna of the social order, their shouts of joy resounding to the skies. The brave and generous leaders of the nation move forward from the home, with resounding proclamations bearing vibrations of their characteristic home and fame, to join the assembly.

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