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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 21/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    न या॒तव॑ इन्द्र जूजुवुर्नो॒ न वन्द॑ना शविष्ठ वे॒द्याभिः॑। स श॑र्धद॒र्यो विषु॑णस्य ज॒न्तोर्मा शि॒श्नदे॑वा॒ अपि॑ गुर्ऋ॒तं नः॑ ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । या॒तवः॑ । इ॒न्द्र॒ । जू॒जु॒वुः॒ । नः॒ । न । वन्द॑ना । श॒वि॒ष्ठ॒ । वे॒द्याभिः॑ । सः । श॒र्ध॒त् । अ॒र्यः । विषु॑णस्य । ज॒न्तोः । मा । शि॒श्नऽदे॑वाः । अपि॑ । गुः॒ । ऋ॒तम् । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न यातव इन्द्र जूजुवुर्नो न वन्दना शविष्ठ वेद्याभिः। स शर्धदर्यो विषुणस्य जन्तोर्मा शिश्नदेवा अपि गुर्ऋतं नः ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न। यातवः। इन्द्र। जूजुवुः। नः। न। वन्दना। शविष्ठ। वेद्याभिः। सः। शर्धत्। अर्यः। विषुणस्य। जन्तोः। मा। शिश्नऽदेवाः। अपि। गुः। ऋतम्। नः ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 21; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ के तिरस्करणीयः सन्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे शविष्ठेन्द्र ! यथा यातवो नो न जूजुवुर्ये शिश्नदेवास्त ऋतं मा गुरपि च नोऽस्मान्न प्राप्नुवन्तु ते च विषुणस्य जन्तोर्वेद्याभिर्वन्दना मा गुर्योऽर्यो विषुणस्य जन्तोः शर्धन्त्सोऽस्मान्प्राप्नोतु ॥५॥

    पदार्थः

    (न) (यातवः) सङ्ग्रामं ये यान्ति ते (इन्द्र) दुष्टशत्रुविदारक (जूजुवुः) सद्यो गच्छन्ति (नः) अस्मान् (न) निषेधे (वन्दना) वन्दनानि स्तुत्यानि कर्माणि (शविष्ठ) अतिशयेन बलयुक्त (वेद्याभिः) ज्ञातव्याभिर्नीतिभिः (सः) (शर्धत्) उत्सहेत् (अर्यः) स्वामी (विषुणस्य) शरीरे व्याप्तस्य (जन्तोः) जीवस्य (मा) (शिश्नदेवाः) अब्रह्मचर्या कामिनो ये शिश्नेन दीव्यन्ति क्रीडन्ति ते (अपि) (गुः) प्राप्नुयुः (ऋतम्) सत्यं धर्मम् (नः) अस्मान् ॥५॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! ये कामिनो लम्पटा स्युस्ते युष्माभिः कदापि न वन्दनीयास्तेऽस्मान् कदाचिन्माप्नुवन्त्विति मन्यध्वम्। ये च धर्मात्मानस्ते वन्दनीयाः सेवनीयाः सन्ति कामातुराणां धर्मज्ञानं सत्यविद्या च कदाचिन्न जायते ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब कौन तिरस्कार करने योग्य हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (शविष्ठ) अत्यन्त बलयुक्त (इन्द्र) दुष्ट शत्रुजनों के विदीर्ण करनेवाले जन ! जैसे (यातवः) संग्राम को जानेवाले (नः) हम लोगों को (न)(जूजुवुः) प्राप्त होते हैं और जो (शिश्नदेवाः) शिश्न अर्थात् उपस्थ इन्द्रिय से विहार करनेवाले ब्रह्मचर्य्यरहित कामी जन हैं वे (ऋतम्) सत्यधर्म को (मा, गुः) मत पहुँचें (अपि) और (नः) हम लोगों को (न) न प्राप्त हों वे ही (विषुणस्य) शरीर में व्याप्त (जन्तोः) जीव को (वेद्याभिः) जानने योग्य नीतियों से (वन्दना) स्तुति करने योग्य कर्मों को न पहुँचे और (यः) जो (अर्यः) स्वामी जन शरीर में व्याप्त जीव को (शर्धत्) उत्साहित करे (सः) वह हम को प्राप्त हो ॥५॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो कामी लंपट जन हों, वे तुम लोगों को कदापि वन्दना करने योग्य नहीं, वे हम लोगों को कभी न प्राप्त हों, इसको तुम लोग जानो और जो धर्मात्मा जन हैं, वे वन्दना करने तथा सेवा करने योग्य हैं, कामातुरों को धर्मज्ञान और सत्यविद्या कभी नहीं होती है ॥५॥

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    विषय

    दुष्ट का भी जन यज्ञादि में विघ्न न करें ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! सूर्यवत् तेजस्विन् ! ( यातवः ) पीड़ा देने वाले, वा आक्रमणकारी लोग ( नः न जुजुवुः ) हम तक न पहुंचें, हमारा घात न करें। हे ( शविष्ठ ) बलशालिन् ! (वेद्याभिः) ज्ञान प्राप्त करने की क्रियाओं से वे पीड़ादायक लोग ( नः वन्दना ) हमारे स्तुत्य उपदेश योग्य उत्तम कार्यों तक भी ( न जुजुवुः ) न पहुंचें, न नाश करें। ( अर्यः ) स्वामी, राजा ( विषुणस्य जन्तोः ) विस्तृत फैले प्रजाजन को ( शर्धत् ) उत्साहित करे और ( शिश्न-देवाः ) उपस्थेन्द्रिय से क्रीड़ा विलास करने वाले, कामी, नीच पुरुष ( नः ) हमारे ( ऋतं ) सत्य व्यवहार, धर्म्म, कर्म्म, वेद ज्ञान, यज्ञ, और हमारे अन्न जल को भी ( मा अपि गुः ) प्राप्त न हों । इति तृतीयो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १, ६, ८,९ विराट् त्रिष्टुप् । २, १० निचृत्त्रिष्टुप् । ३, ७ भुरिक् पंक्तिः । ४, ५ स्वराट् पंक्तिः ।। दशर्चं सूक्तम ।।

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    विषय

    ऋत से दूर रहनेवाले 'शिश्नदेव'

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (यातवः) = पीड़ा का आधान करनेवाले 'काम-क्रोध-लोभ' रूप राक्षसीभाव (नः) = हमें (न जूजुवुः) = हिंसित न करें। हे (शविष्ठ) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (वन्दना) = [वन्दनानि] प्रभु के प्रति वन्दन व स्तवन वेद्याभिः = ज्ञान की क्रियाओं से न [जूजुवुः] = हमें पृथक् न करें। हम वन्धनों में ही न रह जायें, ज्ञान को भी अवश्य प्राप्त करें। [२] (सः) = वह (अर्यः) = स्वामी प्रभु विषुणस्य [विष् व्याप्तौ] = कर्त्तव्य कर्मों में व्याप्त (जन्तोः) = प्राणी को शर्धत् उत्साहित करनेवाले हों। (शिश्नदेवा:) = [शिश्नेन दीव्यन्ति क्रीडन्ति] = अब्रह्मचर्य लोग- असंयमी पुरुष (नः) = हमारे ऋतम् यज्ञों को (मा अपिगुः) = मत प्राप्त हों। संयमी पुरुष ही यज्ञ आदि उत्तम कर्मों को करनेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-हमें राक्षसीभाव हिंसित न करें। हम स्तवन में प्रवृत्त हुए हुए ज्ञान को उपेक्षित न कर दें। प्रभु कर्तव्य कर्मों में (व्याप्त) लग्नशील मनुष्य को ही उत्साहित करते हैं। असंयमी पुरुष यज्ञों में प्रवृत्त नहीं होते।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जे कामी, लंपट लोक असतील त्यांना कधीही नमन करू नये. ते आपल्याजवळ नसावेत हे जाणा. जे धार्मिक लोक असतात ते वंदन करण्यायोग्य असतात व सेवा करण्यायोग्य असतात. कामातुर लोक धर्मज्ञान व सत्यविद्या कधी जाणू शकत नाहीत. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord most potent, let not the wicked and violent approach and hurt us. Let them not affect our holy works in spite of their tactics worth knowing though they be. O noble lord, control and nullify the various and disorderly people. Let not the sensual and licentious sex slaves vitiate our moral conduct and rectitude.

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