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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 21/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    त्वमि॑न्द्र॒ स्रवि॑त॒वा अ॒पस्कः॒ परि॑ष्ठिता॒ अहि॑ना शूर पू॒र्वीः। त्वद्वा॑वक्रे र॒थ्यो॒३॒॑ न धेना॒ रेज॑न्ते॒ विश्वा॑ कृ॒त्रिमा॑णि भी॒षा ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । इ॒न्द्र॒ । स्रवि॑त॒वै । अ॒पः । क॒रिति॑ कः । परि॑ऽस्थिताः । अहि॑ना । शू॒र॒ । पू॒र्वीः । त्वत् । वा॒व॒क्रे॒ । र॒थ्यः॑ । न । धेनाः॑ । रेज॑न्ते । विश्वा॑ । कृ॒त्रिमा॑णि । भी॒षा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमिन्द्र स्रवितवा अपस्कः परिष्ठिता अहिना शूर पूर्वीः। त्वद्वावक्रे रथ्यो३ न धेना रेजन्ते विश्वा कृत्रिमाणि भीषा ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। इन्द्र। स्रवितवै। अपः। करिति कः। परिऽस्थिताः। अहिना। शूर। पूर्वीः। त्वत्। वावक्रे। रथ्यः। न। धेनाः। रेजन्ते। विश्वा। कृत्रिमाणि। भीषा ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 21; मन्त्र » 3
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स राजा किंवत्किं कुर्य्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    हे शूरेन्द्र राजन् ! यथा सूर्य्यः स्रवितवा अहिना सह पूर्वीः परिष्ठिता अपः करोति तथा त्वं प्रजाः सन्मार्गे को यथा सूर्यादयो रथ्यो वावक्रे कृत्रिमाणि रेजन्ते तथा त्वद्भीषा प्रजा धेना न प्रवर्त्तन्ताम् ॥३॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (इन्द्र) सूर्य इव विद्वन् (स्रवितवै) स्रवितुम् (अपः) जलानि (कः) करोषि (परिष्ठिताः) परितः सर्वतः स्थिताः (अहिना) मेघेन (शूर) (पूर्वीः) पूर्वे स्थिताः (त्वत्) (वावक्रे) वक्रा गच्छन्ति (रथ्यः) रथाय हितोऽश्वः (न) इव (धेनाः) प्रयुक्ता वाच इव (रेजन्ते) कम्पन्ते (विश्वा) सर्वाणि (कृत्रिमाणि) कृत्रिमाणि (भीषा) भयेन ॥३॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यो राजा सूर्यवत्प्रजाः पालयति दुष्टान्भीषयति स एव व्याप्तसुखो भवति ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह राजा किसके तुल्य क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (शूर) शूरवीर (इन्द्रः) सूर्य के समान विद्वान् राजा ! जैसे सूर्य्य (स्रवितवै) वर्षा को (अहिना) मेघ के साथ (पूर्वीः) पहिले स्थिर हुए (परिष्ठिताः) वा सब ओर से स्थिर होनेवाले (अपः) जलों को उत्पन्न करता है, वैसे (त्वम्) आप प्रजा जनों को सन्मार्ग में (कः) स्थिर करो जैसे सूर्य आदि और (रथ्यः) रथ के लिये हितकारी घोड़ा यह सब पदार्थ (वावक्रे) टेढ़े चलते हैं और (विश्वा) समस्त (वि, कृत्रिमणि) विशेषता से कृत्रिम किये कामों को (रेजन्ते) कंपित करते हैं, वैसे (त्वत्) तुम से (भीषा) उत्पन्न हुए भय से प्रजाजन (धेनाः) बोली हुई वाणियों के (न) समान प्रवृत्त हों ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो राजा सूर्य्य के समान प्रजाजनों की पालना करता है, दुष्टों को भय देता है, वही सुख से व्याप्त होता है ॥३॥

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    विषय

    सूर्य विद्युत् के तुल्य राजा का प्रजा को सन्मार्ग में चलाने के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार सूर्य या विद्युत् ( अहिना परिस्थिता ) मेघ रूप से या सूर्य द्वारा सर्वत्र व्यापक होकर विद्यमान ( अपः ) जल परमाणुओं को ( स्रवितवै अक: ) नीचे बहने के लिये प्रवृत्त करता है । उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे ( शूर ) शूरवीर ! ( त्वम् ) तु ( पूर्वी: ) समृद्धि से पूर्ण ( अहिना परि स्थिताः ) अग्रगन्ता नायक से अधिष्ठित ( अपः ) आप्त प्रजाओं को (स्त्रवितवै अकः) सन्मार्ग पर चलने के लिये तैयार करता और ( अहिना परिस्थिताः ) अभिमुख आकर हनन करने वाले शत्रु के अधीन स्थित शत्रु सेनाओं को (अपः ) जलों के समान ( स्त्रवितवै अकः ) बहने या भाग जाने को बाधित कर। ( त्वत् धेना: ) तेरी वाणियां ( रथ्यः न ) रथारोही वीरों वा रथ के अश्वों के समान वेग से वा ( वावक्रे ) वक्रता पूर्वक सौन्दर्य से निकलें, प्रकट हों । और ( विश्वा ) समस्त ( कृत्रिमाणि ) कृत्रिम, अपने २ स्वार्थ कारणों से बने मित्र और शत्रुजन ( भीषा रेजन्ते ) भय से कांपें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १, ६, ८,९ विराट् त्रिष्टुप् । २, १० निचृत्त्रिष्टुप् । ३, ७ भुरिक् पंक्तिः । ४, ५ स्वराट् पंक्तिः ।। दशर्चं सूक्तम ।।

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    विषय

    सोमरक्षण व सुन्दर जीवन

    पदार्थ

    [१] हे (शूर) = शत्रुओं के शीर्ण करनेवाले (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक प्रभो ! (त्वम्) = आप (अहिना) = आहनन करनेवाली वासना से (परिष्ठिताः) = चारों ओर से घिरे हुए (पूर्वी:) = हमारा पालन व पूरण करनेवाले (अपः) = रेतः कणरूप जलों को (स्त्रवितवा) = शरीर में सर्वत्र गतिमय होने के लिये (कः) = करते हैं। वासना को विनष्ट करके [अहि-वृत्र-काम] आप रेतः कणों को शरीर में व्याप्त करते हैं। [२]( त्वद्) = आपसे ही (रथ्यः न) = शरीर-रथ के इन्द्रियाश्वों के समान (धेना:) = ज्ञान की वाणियाँ (वावक्रे) = हमारे अन्दर खूब ही गतिवाली होती हैं, अर्थात् आप हमें इन्द्रियाश्वों को प्राप्त कराते हैं तथा वेदवाणियों का ज्ञान देते हैं। इस प्रकार हृदयस्थ आपके भीषा भय से (विश्वा) = सब (कृत्रिमाणि) = कृत्रिम बातें (रेजन्ते) = कम्पित हो उठती हैं, मनुष्य इन कृत्रिम बातों से ऊपर उठकर स्वाभाविक सुन्दर जीवनवाला बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु वासना को विनष्ट करके सोम को शरीर में व्याप्त करते हैं। हमारे लिये उत्तम इन्द्रियाश्वों व ज्ञान की वाणियों को प्राप्त कराते हैं। सब कृत्रिम दोषों को दूर करके हमारे जीवन को सुन्दर बनाते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो राजा सूर्याप्रमाणे प्रजेचे पालन करतो, दुष्टांना भयभीत करतो तोच सुखी होतो. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And you Indra, leader and ruler, set aflow the natural voice and energies of the nation otherwise withheld from expression by diffidence, fear and darkness of ignorance. Freed by you, the energies of the nation flow freely into action like words of eloquence directed to a definite purpose like streams flowing to the sea and chariot horses directed to a destination, and then all artificial creations of fear tremble like fear itself.

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