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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 28/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    तव॒ प्रणी॑तीन्द्र॒ जोहु॑वाना॒न्त्सं यन्नॄन्न रोद॑सी नि॒नेथ॑। म॒हे क्ष॒त्राय॒ शव॑से॒ हि ज॒ज्ञेऽतू॑तुजिं चि॒त्तूतु॑जिरशिश्नत् ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तव॑ । प्रऽनी॑ती । इ॒न्द्र॒ । जोहु॑वानान् । सम् । यत् । नॄन् । न । रोद॑सी॒ इति॑ । नि॒नेथ॑ । म॒हे । क्ष॒त्राय॑ । शव॑से । हि । ज॒ज्ञे । अतू॑तुजिम् । चि॒त् । तूतु॑जिः । अ॒शि॒श्न॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तव प्रणीतीन्द्र जोहुवानान्त्सं यन्नॄन्न रोदसी निनेथ। महे क्षत्राय शवसे हि जज्ञेऽतूतुजिं चित्तूतुजिरशिश्नत् ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तव। प्रऽनीती। इन्द्र। जोहुवानान्। सम्। यत्। नॄन्। न। रोदसी इति। निनेथ। महे। क्षत्राय। शवसे। हि। जज्ञे। अतूतुजिम्। चित्। तूतुजिः। अशिश्नत् ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 28; मन्त्र » 3
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स राजा किं कुर्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! हि त्वं महे क्षत्राय शवसे जज्ञे तूतुजिः सन् हिंस्राँश्चिद्भवानशिश्नद्यज्जोहुवानान् नॄनतूतुजिं रोदसी न त्वं सन्निनेथ तस्य तव प्रणीती सह वयं राज्यं पालयेम ॥३॥

    पदार्थः

    (तव) (प्रणीती) प्रकृष्टनीत्या (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (जोहुवानान्) भृशमाहूयमानान् (सम्) (यत्) (नॄन्) नायकान् (न) इव (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (निनेथ) नयसि (महे) (क्षत्राय) राज्याय धनाय वा (शवसे) बलाय (हि) यतः (जज्ञे) जायते (अतूतुजिम्) भृशमहिंस्रम् (चित्) अपि (तूतुजिः) बलवान् (अशिश्नत्) हिनस्ति ॥३॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । ये राजपुरुषाः सूर्यपृथिवीवत् सर्वाः प्रजा धृत्वा धर्मं नयेयुस्ते नीतिज्ञा वेदितव्याः ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त ! (हि) जिस कारण आप (महे) महान् (क्षत्राय) राज्य धन और (शवसे) बल के लिये (जज्ञे) उत्पन्न होते (तूतुजिः) बलवान् होते हुए हिंसक लोगों को (चित्) भी आप (अशिश्नत्) मारते और (यत्) जो (जोहुवानान्) निरन्तर बुलाये हुए (नॄन्) जन और (अतूतुजिम्) निरन्तर न हिंसा करनेवाले को (रोदसी) आकाश और पृथिवी के (न) समान आप (सम्, निनेथ) अच्छे प्रकार पहुँचाते हो उन (तव) आप की (प्रणीती) उत्तम नीति के साथ हम लोग राज्य पालें ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो राजपुरुष सूर्य और पृथिवी के समान समस्त प्रजाजनों को धारण कर धर्म को पहुँचावें, वे नीति जाननेवाले समझने चाहियें ॥३॥

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    विषय

    शासकों का शासन करे, कर न देने वालों को दण्ड दे। बड़े धन बल का स्वामी हो ।

    भावार्थ

    ( रोदसी न) सूर्य जिस प्रकार आकाश और पृथ्वी के पदार्थों को सन्मार्ग पर चलाता है उसी प्रकार ( यत् ) जो पुरुष (जोहुवानात् ) निरन्तर आदर से बुलाने, पुकारने वाले, और आदरपूर्वक राज्य के नाना पदों पर बुलाये गये ( नॄन् ) नायक पुरुषों को ( सं निनेथ ) अच्छी प्रकार सन्मार्ग पर चलाता है और जो ( तूतुजि: ) शत्रुओं का नाशक और प्रजा का पालक होकर ( अतूतुजिं) अपनी अहिंसक प्रजा और कर न देने वाले शत्रु का ( अशिश्नत् ) शासन करता है वह तू ( हि ) निश्चय से ( महे क्षत्राय ) बड़े भारी क्षात्र बल, और धन प्राप्त करने और ( महे शवसे ) बड़े भारी बल, सैन्य बल का सञ्चालन करने के लिये ( जज्ञे ) समर्थ होता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ इन्द्रा देवता ॥ छन्दः – १, २, ५ निचृत्त्रिष्टुप् । ३ भुरिक् पंक्तिः । ४ स्वराट् पंक्तिः॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    राजा विद्रोहियों को कठिन दण्ड दे

    पदार्थ

    पदार्थ - (रोदसी न) = सूर्य जैसे आकाश और पृथ्वी को मार्ग पर चलाता है वैसे ही (यत्) = जो पुरुष (जोहुवानान्) = निरन्तर पुकारनेवाले और बुलाये गये, (नॄन्) = नायक पुरुषों को (सं निनेथ) = सन्मार्ग पर चलाता है और जो (तूतुजि:) = शत्रु नाशक होकर (अतूतुजिं) = अहिंसक प्रजा और कर न देनेवाले शत्रु का (अशिश्नत्) = शासन करता है वह, तू हि निश्चय से महे क्षत्राय-बड़े क्षात्र बल और महे शवसे-बड़े सैन्य बल के सञ्चालन के लिये जज्ञे-समर्थ है।

    भावार्थ

    भावार्थ - राजा को योग्य है कि वह दण्ड विधान को कठोरता के साथ राज्य में लागू करे। दण्ड के बिना शासन कभी भी नहीं चल सकता। जो कर न देनेवाले, देशद्रोही तथा भ्रष्टाचार करनेवाले हैं राजा उन्हें कठोर दण्ड देवे।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे राजपुरुष सूर्य पृथ्वीप्रमाणे सर्व प्रजेला धारण करून धर्माचा प्रसार करतात ते नीतिमान असतात हे जाणले पाहिजे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, by your ethics and policy you guide the leading lights of humanity and those called upon to duty as you light up the earth and space, and thus surely by nature and character you rise to the mighty power of the governance of the great social order. Truly the mighty and the dynamic govern and guide the weak who need protection.

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