ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 40/ मन्त्र 2
मि॒त्रस्तन्नो॒ वरु॑णो॒ रोद॑सी च॒ द्युभ॑क्त॒मिन्द्रो॑ अर्य॒मा द॑दातु। दिदे॑ष्टु दे॒व्यदि॑ती॒ रेक्णो॑ वा॒युश्च॒ यन्नि॑यु॒वैते॒ भग॑श्च ॥२॥
स्वर सहित पद पाठमि॒त्रः । तत् । नः॒ । वरु॑णः । रोद॑सी॒ इति॑ । च॒ । द्युऽभ॑क्तम् । इन्द्रः॑ । अ॒र्य॒मा । द॒दा॒तु । दिदे॑ष्टु । दे॒वी । अदि॑तिः । रेक्णः॑ । वा॒युः । च॒ । यत् । नि॒यु॒वैते॒ इति॑ नि॒ऽयु॒वैते॑ । भगः॑ । च॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मित्रस्तन्नो वरुणो रोदसी च द्युभक्तमिन्द्रो अर्यमा ददातु। दिदेष्टु देव्यदिती रेक्णो वायुश्च यन्नियुवैते भगश्च ॥२॥
स्वर रहित पद पाठमित्रः। तत्। नः। वरुणः। रोदसी इति। च। द्युऽभक्तम्। इन्द्रः। अर्यमा। ददातु। दिदेष्टु। देवी। अदितिः। रेक्णः। वायुः। च। यत्। नियुवैते इति निऽयुवैते। भगः। च ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 40; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
ये रोदसीव मित्रोऽर्यमेन्द्रो वरुणो वायुश्च द्युभक्तं तन्नो ददातु देव्यदितिर्भगश्च यद्रेक्णो नियुवैते तत् विद्वानस्माँश्च दिदेष्टु ॥२॥
पदार्थः
(मित्रः) सखा (तत्) तम् (नः) अस्मभ्यम् (वरुणः) जलसमुदायः (रोदसी) द्यावापृथिवी (च) (द्युभक्तम्) यो दिवं भजति तम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यो राजा (अर्यमा) न्यायकारी (ददातु) (दिदेष्टु) उपदिशतु (देवी) विदुषी (अदितिः) स्वरूपेणखण्डिता (रेक्णः) अधिकं धनम् (वायुः) पवनः (च) (यत्) यत् (नियुवैते) योजयेताम् (भगः) (च) ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यास्सर्वदा पुरुषार्थेन सर्वानैश्वर्ययुक्तान् कारयन्तु ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
जो (रोदसी) आकाश और पृथिवी के समान (मित्रः) मित्र (अर्यमा) न्यायकारी (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् राजा (वरुणः) जलसमूह (वायुः) और पवन (च) भी (द्युभक्तम्) जो प्रकाश को सेवता है (तत्) उस को (नः) हम लोगों के लिये (ददातु) देओ और (देवी) विदुषी (अदितिः) स्वरूप से अखण्डित (भगः) और ऐश्वर्यवान् (च) भी (यत्) जिस (रेक्णः) अधिक धन को (नियुवैते) निरन्तर जोड़े उस का विद्वान् जन हमें (च) भी (दिदेष्टु) उपदेश करें ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । मनुष्य सर्वदा पुरुषार्थ से सब को ऐश्वर्ययुक्त करावें ॥२॥
विषय
विद्वान् सम्पन्न वीर शासकों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( मित्रः ) स्नेही, मित्र ( वरुणः ) जलवत् श्रेष्ठ पुरुष, ( रोदसी च) आकाश और पृथिवी के तुल्य स्त्री और पुरुष और ( इन्द्रः अर्यमा ) सूर्य और मेघ के तुल्य राजा और न्यायाधीश ( नः ) हमें ( तत् ) वह नाना प्रकार का ( द्यु-भक्तम् ) बहुत दिनों तक सेवन करने योग्य ऐश्वर्य ( ददातु ) प्रदान करे। (अदितिः देवी ) अन्नदात्री भूमि के तुल्य विदुषी, अखण्ड व्रतचारिणी स्त्री, (भगः च वायुः च) ऐश्वर्य वान् और बलवान् सूर्य और वायु के तुल्य तेजस्वी बलवान् पुरुष ( यत् रेक्णः ) जो धन और बल वीर्य ( नि-युवैते ) अच्छी प्रकार परस्पर मिल कर उत्पन्न करते हैं उसका हमें भी (दिदेष्टु) विद्वान् पुरुप उपदेश करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः । छन्दः—१ पंक्ति: । ३ भुरिक् पंक्तिः विराट् पंक्तिः। २, ४ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ७ निचृत्त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
राजा विद्वानों का सहयोग ले
पदार्थ
पदार्थ - (मित्रः) = स्नेही, (वरुणः) = श्रेष्ठ पुरुष, (रोदसी च) = आकाश, पृथिवी के तुल्य स्त्री, और (इन्द्रः अर्यमा) = सूर्य, मेघ के तुल्य राजा और न्यायाधीश (नः) = हमें (तत्) = वह नाना प्रकार का (द्युभक्तम्) = बहुत दिनों तक सेवन-योग्य ऐश्वर्य (ददातु) = देवे। (अदितिः देवी) = अन्नदात्री भूमिके तुल्य विदुषी स्त्री, (भगः च वायुः च) = ऐश्वर्यवान् और बलवान् सूर्य और वायु तुल्य तेजस्वी बली पुरुष (यत् रेक्णः) = जो धन और बल (नि-युवैते) = अच्छी प्रकार मिलकर उत्पन्न करते हैं उसका हमें भी (दिदेष्ट) = विद्वान् पुरुष उपदेश करे।
भावार्थ
भावार्थ - न्याय प्रिय राजा अपनी प्रजा स्त्री-पुरुषों, मित्रों, श्रेष्ठ पुरुषों को भरपूर ऐश्वर्य प्रदान करे। राष्ट्र की स्त्री विदुषी तथा पुरुष तेजस्वी बलवान् हों ऐसी व्यवस्था विद्वानों के सहयोग से राजा करे।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी सदैव पुरुषार्थाने सर्वांना ऐश्वर्य प्राप्त करून द्यावे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May Mitra, lord dear as friend, Varuna, oceans of earth and space, the heaven and the earth and sky, Indra, lord ruler of energy, power and excellence, and Aryama, lord of justice, give us heavenly gifts of divinity. And may Aditi, imperishable generous Mother Nature, Vayu, the wind, and Bhaga, lord of power and glory, bestow upon us what they produce, promote and preserve for us.
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