ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 40/ मन्त्र 6
मात्र॑ पूषन्नाघृण इरस्यो॒ वरू॑त्री॒ यद्रा॑ति॒षाच॑श्च॒ रास॑न्। म॒यो॒भुवो॑ नो॒ अर्व॑न्तो॒ नि पा॑न्तु वृ॒ष्टिं परि॑ज्मा॒ वातो॑ ददातु ॥६॥
स्वर सहित पद पाठमा । अत्र॑ । पू॒ष॒न् । आ॒घृ॒णे॒ । इ॒र॒स्यः॒ । वरू॑त्री । यत् । रा॒ति॒ऽसाचः॑ । च॒ । रास॑न् । म॒यः॒ऽभुवः॑ । नः॒ । अर्व॑न्तः । नि । पा॒न्तु॒ । वृ॒ष्टिम् । परि॑ऽज्मा । वातः॑ । द॒दा॒तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मात्र पूषन्नाघृण इरस्यो वरूत्री यद्रातिषाचश्च रासन्। मयोभुवो नो अर्वन्तो नि पान्तु वृष्टिं परिज्मा वातो ददातु ॥६॥
स्वर रहित पद पाठमा। अत्र। पूषन्। आघृणे। इरस्यः। वरूत्री। यत्। रातिऽसाचः। च। रासन्। मयःऽभुवः। नः। अर्वन्तः। नि। पान्तु। वृष्टिम्। परिऽज्मा। वातः। ददातु ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 40; मन्त्र » 6
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 6
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वांसः किं कुर्वन्तीत्याह ॥
अन्वयः
हे आघृणे पूषन् ! यथा परिज्मा वातो वृष्टिं ददातु तथा मयोभुवोऽर्वन्तो रातिषाच आप्ता नो नि पान्तु यद्या वरूत्री वरणीया विद्यास्ति तां च रासन् तथेरस्यस्त्वं कुर्याः माऽत्र विद्वेषी भवेः ॥६॥
पदार्थः
(मा) (अत्र) अस्मिन् (जगति) (पूषन्) पुष्टिकर्तः (आघृणे) सर्वतो दीप्ते (इरस्यः) प्राप्तुं योग्यः (वरूत्री) वर्तुमर्हा (यत्) याः (रातिषाचः) दानकर्तारः (च) (रासन्) प्रयच्छन्ति (मयोभुवः) शुभं भावुकाः (नः) अस्मान् (अर्वन्तः) प्राप्नुवन्तः (नि) नितराम् (पान्तु) रक्षन्तु (वृष्टिम्) (परिज्मा) यः परितस्सर्वतो गच्छति सः (वातः) वायुः (ददातु) ॥६॥
भावार्थः
ये विद्वांस आप्तवद्वर्तित्वा सर्वेभ्यः सुखं विद्यां च प्रयच्छन्ति ते सर्वाभिरक्षकास्सन्ति ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वान् जन क्या करते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (आघृणे) सब ओर से प्रकाशित (पूषन्) पुष्टि करनेवाले ! जैसे (परिज्मा) सब ओर से जो जाता है वह (वातः) वायु (वृष्टिम्) वर्षा को (ददातु) देवे वैसे (मयोभुवः) श्रेष्ठता हुवानेवाले (अर्वन्तः) प्राप्त होते हुए (रातिषाचः) दानकर्ता जन (नः) हम लोगों की (नि, पान्तु) निरन्तर रक्षा करें और (यत्) जो (वरूत्री) स्वीकार करने योग्य विद्या है (च) उस को भी (रासन्) देते हैं, वैसे (इरस्यः) प्राप्त होने योग्य आप करें (मा) और मत (अत्र) इस जगत् में विद्वेषी होओ ॥६॥
भावार्थ
जो विद्वान् जन श्रेष्ठ जनों के तुल्य वर्त कर सब के लिये सुख वा विद्या देते हैं, वे सब के सब ओर से रक्षक हैं ॥६॥
विषय
तेजस्वी राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (आघृणे ) सब ओर दीप्ति वाले तेजस्विन् ! ( पूषन् ) सर्वपोषक ! तू ( अत्र ) इस राष्ट्र में ( मा इरस्य ) विनाश मत कर । ( यत् ) जो ( वरूत्री ) वरण करने योग्य विदुषी स्त्री और जो ( रातिषाचः च ) दानशील पुरुष भी ( रासन् ) प्रदान करते हैं वे ( मयः-भुवः ) शान्ति सुख के दाता ( नः अर्वन्तः ) हमें प्राप्त होकर ( नः निपान्तु ) हमारी रक्षा करें । और ( परिज्मा ) पृथ्वी पर शासक ( वातः ) वायु के समान बलवान् होकर मेघवत् ( वृष्टिं ददातु ) प्रजा को समस्त सुखों की वृष्टि प्रदान करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः । छन्दः—१ पंक्ति: । ३ भुरिक् पंक्तिः विराट् पंक्तिः। २, ४ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ७ निचृत्त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
सुख की वर्षा करो
पदार्थ
पदार्थ- हे (आघृणे) = सब ओर दीप्त! (पूषन्) = सर्वपोषक! तू (अत्र) = इस राष्ट्र में (मा इरस्य) = विनाश मत कर। (यत्) = जो (वरूत्री) = वरण-योग्य (विदुषी) = स्त्री और जो (रातिषाचः च) = दानशील पुरुष (रासन्) = प्रदान करते हैं वे (मयः भुवः) = सुख-दाता (नः अर्वन्तः) - हमें प्राप्त होकर (नि पान्तु) = रक्षा करें और (परि-ज्मा) = पृथ्वी पर शासक (वातः) = वायु तुल्य बलवान् होकर (वृष्टिं ददातु) = प्रजा पर सुख-वृष्टि करें।
भावार्थ
भावार्थ- राजा राष्ट्र के अन्दर किसी हिंसक को न पनपने दे। उनके तेज और ऐश्वर्य को नष्ट करके राष्ट्र को विनाश तथा अशान्ति से बचावे। और अपनी उत्तम प्रजा पर मेघ के समान खूब सुख की वर्षा करे।
मराठी (1)
भावार्थ
जे विद्वान लोक श्रेष्ठाप्रमाणे वर्तन करून सर्वांना सुख व विद्या देतात ते सर्वांचे सगळीकडून रक्षक असतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Pushan, refulgent lord giver of health and sustained growth, worthy of attainment as you are, pray sustain me here and sustain all that what Mother Nature and divine speech and generous givers of society give us. May the universal givers of peace and well being protect and promote us. May the winds blowing all round for all alike bring us showers of rain and bliss.
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