ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 42/ मन्त्र 5
इ॒मं नो॑ अग्ने अध्व॒रं जु॑षस्व म॒रुत्स्विन्द्रे॑ य॒शसं॑ कृधी नः। आ नक्ता॑ ब॒र्हिः स॑दतामु॒षासो॒शन्ता॑ मि॒त्रावरु॑णा यजे॒ह ॥५॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । अ॒ध्व॒रम् । जु॒ष॒स्व॒ । म॒रुत्ऽसु॑ । इन्द्रे॑ । य॒शस॑म् । कृ॒धि॒ । नः॒ । आ । नक्ता॑ । ब॒र्हिः । स॒द॒ता॒म् । उ॒षसा॑ । उ॒शन्ता॑ । मि॒त्रावरु॑णा । य॒ज॒ । इ॒ह ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमं नो अग्ने अध्वरं जुषस्व मरुत्स्विन्द्रे यशसं कृधी नः। आ नक्ता बर्हिः सदतामुषासोशन्ता मित्रावरुणा यजेह ॥५॥
स्वर रहित पद पाठइमम्। नः। अग्ने। अध्वरम्। जुषस्व। मरुत्ऽसु। इन्द्रे। यशसम्। कृधि। नः। आ। नक्ता। बर्हिः। सदताम्। उषसा। उशन्ता। मित्रावरुणा। यज। इह ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 42; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते गृहस्थातिथयः परस्परस्मै किं किं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! त्वं मरुत्स्विन्द्रे न इममध्वरं सततं जुषस्व नोऽस्माकं यशसं कृधि नक्तोषासा बर्हिरासदतामिहोशन्ता मित्रावरुणा त्वं यज ॥५॥
पदार्थः
(इमम्) (नः) अस्माकम् (अग्ने) पावक इव विद्याप्रकाशितातिथे (अध्वरम्) उपदेशाख्यं यज्ञम् (जुषस्व) (मरुत्सु) मनुष्येषु (इन्द्रे) राजनि (यशसम्) कीर्तिम् (कृधि) अत्र द्व्यच० इति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (आ) (नक्ता) रात्रिम् (बर्हिः) उत्तमासनम् (सदताम्) आसीदेत् (उषसा) दिनेन (उशन्ता) कामयमानौ (मित्रावरुणा) प्राणोदानाविव स्त्रीपुरुषौ (यज) (इह) अस्मिन् जगति ॥५॥
भावार्थः
यदाऽतिथिरागच्छेत्तदा गृहस्था अर्घ्यपाद्यासनमधुपर्कप्रियवचनान्नादिभिः सत्कृत्य पृष्ट्वा सत्यासत्यनिर्णयं कुर्वन्त्वतिथिञ्च प्रश्नान् समादधातु ॥५॥
हिन्दी (2)
विषय
फिर वे गृहस्थ अतिथि परस्पर के लिये क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के समान विद्या से प्रकाशित अतिथि ! आप (मरुत्सु) मनुष्यों के (इन्द्रे) और राजा के निमित्त (नः) हम लोगों के (इमम्) इस (अध्वरम्) उपदेशरूपी यज्ञ को निरन्तर (जुषस्व) सेवो (नः) हमारी (यशसम्) कीर्ति की वृद्धि (कृधि) करो (नक्तोषासा) रात्रि को दिन के साथ (बर्हिः) तथा उत्तम आसन को (आ, सदताम्) स्वीकार करो स्थिर होओ और (इह) इस जगत् में (उशन्ता) कामना करते हुए (मित्रावरुणा) प्राण और उदान के समान स्त्री-पुरुषों को आप (यज) मिलो ॥५॥
भावार्थ
जब अतिथि आवें तब गृहस्थ अर्घ्य, पाद्य, आसन, मधुपर्क, वचन और अन्नादिकों से उसका सत्कार कर और पूछ कर सत्य और असत्य का निर्णय करें और अतिथि भी प्रश्नों के समाधान देवें ॥५॥
विषय
विद्वानों की संगति करें
पदार्थ
पदार्थ- हे (अग्ने) = अग्नितुल्य तेजस्विन्! विद्वन्! (नः इमं अध्वरं) = तू हमारे इस यज्ञ को (जुषस्व) = सेवन कर । (मरुत्सु) = मनुष्यों और (इन्द्रे) = राजा में भी (नः) = हमारे (अध्वरं यशसं कृधि) = यज्ञ को कीर्ति-युक्त कर । (नक्ता उषासः) = रात और दिन, (उशन्ता) = चाहनेवाले (मित्रावरुणा) = स्नेही, परस्पर को वरण करनेवाले स्त्री-पुरुषों को (इह यज) = इस स्थान पर धर्मोपदेश दे। तू (बर्हिः सदताम्) = उत्तमासन पर विराज ।
भावार्थ
भावार्थ- गृहस्थी जन अपने घर पर यज्ञ में उत्तम विद्वानों को श्रेष्ठ आसन पर बैठाकर उनसे धर्मोपदेश सुनें। इस प्रकार वे विद्वान् तुम्हारी तथा तुम्हारे यज्ञ की कीर्ति शासक राजा आदि में तथा समस्त मनुष्यों में फैलावेंगे।
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा अतिथी घरी येतो तेव्हा गृहस्थानी अर्घ्य, पाद्य, आसन, मधुपर्क, प्रियवचन इत्यादींनी सत्कार करून व प्रश्न विचारून सत्य-असत्याचा निर्णय घ्यावा व अतिथींनीही त्यांच्या प्रश्नांची उत्तरे द्यावीत. ॥ ५ ॥ हे विद्वानांनो ! तुम्ही आम्हाला विद्या द्या. ज्यामुळे आम्ही प्रजेकडून उत्तम धन प्राप्त करून तुमचे सदैव रक्षण करू. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, venerable and brilliant guest of the house, accept and enjoy this yajnic hospitality of ours for the sake of the people and our social order and thereby enhance our honour and virtue. For the night and day, grace the yajnic seat and join the people who respect you, for the advancement of love, friendship and sense of justice in society.
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