ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 58/ मन्त्र 6
प्र सा वा॑चि सुष्टु॒तिर्म॒घोना॑मि॒दं सू॒क्तं म॒रुतो॑ जुषन्त। आ॒राच्चि॒द्द्वेषो॑ वृषणो युयोत यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥६॥
स्वर सहित पद पाठप्र । सा । वा॒चि॒ । सु॒ऽस्तु॒तिः । म॒घोना॑म् । इ॒दम् । सु॒ऽउ॒क्तम् । म॒रुतः॑ । जु॒ष॒न्त॒ । आ॒रात् । चि॒त् । द्वेषः॑ । वृ॒ष॒णः॒ । यु॒यो॒त॒ । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सा वाचि सुष्टुतिर्मघोनामिदं सूक्तं मरुतो जुषन्त। आराच्चिद्द्वेषो वृषणो युयोत यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥६॥
स्वर रहित पद पाठप्र। सा। वाचि। सुऽस्तुतिः। मघोनाम्। इदम्। सुऽउक्तम्। मरुतः। जुषन्त। आरात्। चित्। द्वेषः। वृषणः। युयोत। यूयम्। पात। स्वस्तिऽभिः। सदा। नः ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 58; मन्त्र » 6
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 6
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वांसः किं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे वृषणो ! मघोनां वाचि सा सुष्टुतिस्तदिदं सूक्तं मरुतः प्रजुषन्त साऽस्मान् जुषतां यूयं द्वेष आरात् दूरान्निकटाच्चिद्युयोत स्वस्तिभिर्नस्सदा पात ॥६॥
पदार्थः
(प्र) (सा) (वाचि) वाण्याम् (सुष्टुतिः) शोभना प्रशंसा (मघोनाम्) बहुपूजितधनानाम् (इदम्) (सूक्तम्) शोभनं वचनम् (मरुतः) विद्वांसो मनुष्याः (जुषन्त) सेवन्ताम् (आरात्) दूरात् समीपाद् वा (चित्) अपि (द्वेषः) द्वेष्टॄन् दुष्टान् शत्रून् मनुष्यान् (वृषणः) बलिष्ठाः (युयोत) पृथक्कुरुत (यूयम्) (पात) (स्वस्तिभिः) (सदा) (नः) ॥६॥
भावार्थः
ये मनुष्यास्सदैव सत्यस्य वक्तारस्ते स्तावकाः स्युस्तैस्सह बलं वर्धयित्वा सर्वशत्रून् निवार्य श्रेष्ठान् सदा रक्षन्तु ॥६॥ अत्र मरुद्विद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्यष्टपञ्चाशत्तमं सूक्तमष्टाविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वान् जन क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (वृषणः) बलयुक्त जनो ! (मघोनाम्) बहुत श्रेष्ठ धनवालों की (वाचि) वाणी में (सा) वह (सुष्टुतिः) सुन्दर प्रशंसा है (इदम्) इस (सूक्तम्) उत्तम वचन को (मरुतः) विद्वान् मनुष्य (प्र, जुषन्त) सेवन करें (सा) वह हम लोगों को सेवन करे (यूयम्) आप लोग (द्वेषः) करनेवालों को (आरात्) समीप से वा दूर से (चित्) भी (युयोत) पृथक् करिये और (स्वस्तिभिः) कल्याणों से (नः) हम लोगों की (सदा) सब काल में (पात) रक्षा कीजिये ॥६॥
भावार्थ
जो मनुष्य सदा ही सत्य के कहनेवाले हों, वे ही स्तुति करनेवाले होवें, उन के साथ बल को बढ़ाय के सब शत्रुओं को दूर करके श्रेष्ठों की सदा रक्षा करो ॥६॥ इस सूक्त में वायु और विद्वान् के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह अट्ठावनवाँ सूक्त और अट्ठाईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
अध्यक्षों के कर्त्तव्य, उनको उत्तम २ उपदेश ।
भावार्थ
( मघोनां ) उत्तम आदर योग्य धन, ऐश्वर्य के स्वामी जनों की ( सा सु-स्तुतिः ) वह उत्तम स्तुति ( प्र-वाचि ) अच्छी प्रकार कही जाती है। हे ( मरुतः ) विद्वान् पुरुषो ! आप लोग ( इदं ) इस प्रकार के ( सूक्तम् ) उत्तम वचन ( जुषन्त ) सेवन किया करें । हे ( वृषभः ) बलवान् पुरुषो ! आप लोग ( द्वेषः ) द्वेषी शत्रुओं और द्वेष भावों को भी ( आरात् चित् युयोत ) दूर ही पृथक् करो । और ( स्वस्तिभिः ) उत्तम सुखकारी साधनों से ( सदा नः यूयं पात ) सदा हमें आप लोग बचाइये ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ मरुती देवताः॥ छन्दः –३, ४ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप् । १ विराट् त्रिष्टुप् । २, ६ भुरिक्पंक्तिः ॥ षडर्चं सूकम् ॥
विषय
द्वेष भावों को दूर करो
पदार्थ
पदार्थ- (मघोनां) = आदरयोग्य धन, ऐश्वर्य के स्वामी जनों की (सा सु-स्तुतिः) = वह उत्तम स्तुति (प्र-वाचि) = अच्छी प्रकार कही जाती है । हे (मरुतः) = विद्वान् पुरुषो! आप (इदं) = इस प्रकार के (सूक्तम्) = उत्तम वचन (जुषन्त) = सेवन करें। हे (मरुतः) = बलवान् पुरुषो! आप लोग (द्वेष:) = द्वेषी शत्रुओं और द्वेष भावों को भी (आरात् चित् युयोत) = दूर ही करो और (स्वस्तिभिः) = सुखकारी साधनों से (सदा नः यूयं पात) = सदा हमारी रक्षा करो।
भावार्थ
भावार्थ- विद्वान् पुरुष राष्ट्र जनों को ऐसे उत्तम उपदेश करें जिनसे लोगों का परस्पर द्वेषभाव दूर हो तथा वे परस्पर प्रेम से मिलकर राष्ट्रोन्नति में सहयोगी बनें। अगले सूक्त का ऋषि वसिष्ठ और मरुत, मृत्युञ्जय रुद्र देवता हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे सदैव सत्य बोलणारी असतात त्यांची स्तुती केली पाहिजे. त्यांच्या संगतीत बल वाढवून सर्व शत्रूंना दूर करून श्रेष्ठांचे सदैव रक्षण करावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
This song of adoration of the mighty glorious powers is expressed in holy words. May the Maruts accept it with pleasure. O generous benefactors and protectors, cast off far from us all hate, anger and jealousy. O scholars and sages, dynamic Maruts, pray protect and promote us with all good and well being of life without relent for all time.
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