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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 61/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र वां॒ स मि॑त्रावरुणावृ॒तावा॒ विप्रो॒ मन्मा॑नि दीर्घ॒श्रुदि॑यर्ति। यस्य॒ ब्रह्मा॑णि सुक्रतू॒ अवा॑थ॒ आ यत्क्रत्वा॒ न श॒रदः॑ पृ॒णैथे॑ ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । वा॒म् । सः । मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ॒ । ऋ॒तऽवा॑ । विप्रः॑ । मन्मा॑नि । दी॒र्घ॒ऽश्रुत् । इ॒य॒र्ति॒ । यस्य॑ । ब्रह्मा॑णि । सु॒क्र॒तू॒ इति॑ सुऽक्रतू । अवा॑थः । आ । यत् । क्रत्वा॑ । न । श॒रदः॑ । पृ॒णैथे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र वां स मित्रावरुणावृतावा विप्रो मन्मानि दीर्घश्रुदियर्ति। यस्य ब्रह्माणि सुक्रतू अवाथ आ यत्क्रत्वा न शरदः पृणैथे ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। वाम्। सः। मित्रावरुणौ। ऋतऽवा। विप्रः। मन्मानि। दीर्घऽश्रुत्। इयर्ति। यस्य। ब्रह्माणि। सुक्रतू इति सुऽक्रतू। अवाथः। आ। यत्। क्रत्वा। न। शरदः। पृणैथे ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 61; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशौ भवेतामित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मित्रावरुणा ! स ऋतावा दीर्घश्रुद्विप्रो वां मन्मानीयर्ति यस्य ब्रह्माणि सुक्रतू सन्तौ युवां प्रावाथः यत् क्रत्वा न शरद आपृणैथे तौ युवां वयं सततं सत्कुर्याम ॥२॥

    पदार्थः

    (प्र) (वाम्) युवाम् (सः) (मित्रावरुणौ) प्राणोदानाविवाध्यापकोपदेशकौ (ऋतावा) सत्यसेवी (विप्रः) मेधावी (मन्मानि) मन्तव्यानि विज्ञानानि (दीर्घश्रुत्) यो दीर्घं विस्तीर्णानि बहुकालं वा शास्त्राणि शृणोति (इयर्ति) प्राप्नोति (यस्य) (ब्रह्माणि) धनानि (सुक्रतू) शोभनप्रज्ञायुक्तौ (अवाथः) रक्षेताम् (आ) (यत्) (क्रत्वा) प्रज्ञया (न) इव (शरदः) शरदाद्यृतून् (पृणैथे) पूरयतम् ॥२॥

    भावार्थः

    हे विद्वांसः ! यो दीर्घकालं ब्रह्मचर्येण शास्त्राण्यधीते स एव मेधावी भूत्वा सर्वान् मनुष्यान् रक्षितुं शक्नोति ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे दोनों कैसे हों, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (मित्रावरुणौ) प्राण और उदान वायु के सदृश वर्त्तमान अध्यापक और उपदेशक जनो ! (सः) वह (ऋतावा) सत्य का सेवन करने और (दीर्घश्रुत्) बहुत शास्त्रों को वा बहुत काल पर्य्यन्त शास्त्रों को सुननेवाला (विप्रः) बुद्धिमान् जन (वाम्) आप दोनों के (मन्मानि) विज्ञानों को (इयर्त्ति) प्राप्त होता है (यस्य) जिसके (ब्रह्माणि) धनों को (सुक्रतू) सुन्दर बुद्धि से युक्त होते हुए आप (प्र, अवाथः) रक्षा करें और (यत्) जिसकी (क्रत्वा) बुद्धि से (न) जैसे पदार्थों को वैसे (शरदः) शरद् आदि ऋतुओं को (आ, पृणैथे) अच्छे प्रकार पूरो, उन आप दोनों का हम लोग निरन्तर सत्कार करें ॥२॥

    भावार्थ

    हे विद्वानो ! जो बहुत काल पर्य्यन्त ब्रह्मचर्य्य से शास्त्रों को पढ़ता है, वही बुद्धिमान् होकर सब मनुष्यों की रक्षा करने को समर्थ होता है ॥२॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीपरमविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना निर्मिते संस्कृतार्यभाषाभ्यां समन्विते सुप्रमाणयुक्त ऋग्वेदभाष्ये सप्तमे मण्डले चतुर्थानुवाक एकषष्टितमे सूक्ते पञ्चमाष्टके पञ्चमाध्याये तृतीयवर्गे द्वितीयमन्त्रस्य भाष्यं समाप्तम् ॥ उक्तस्वामिकृतं भाष्यं चैतावदेवेति ॥ सं० १९५६ वि० आषाढ कृष्णा ५ को छपके समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    उत्तम जीवन व्यतीत करने का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे ( मित्रा वरुणा ) सब के स्नेही और सब से वरण करने योग्य श्रेष्ठ स्त्री पुरुषो ! ( यस्य ) जिसके ( ब्रह्माणि ) उत्तम ज्ञानों और धनों की आप दोनों ( सु-क्रतू ) उत्तम कर्मवान् होकर ( अवाथ ) रक्षा करते हो और ( यत् ) जिसके ( क्रत्वा न ) यज्ञवत् कर्म और ज्ञान सामर्थ्य से ( शरदः पृणैथे ) जीवन के समस्त वर्षों को सुखपूर्वक व्यतीत करते हो । ( सः विप्रः ) वह विद्वान् पुरुष ( ऋतावा ) न्याय और सत्य ज्ञान से युक्त और ( दीर्घ-श्रुत् ) दीर्घ काल तक वेदादि सत्य शास्त्रों का श्रवण करने वाला, बहुश्रुत होकर ( वां ) आप लोगों के प्रति ( मन्मानि) मनन करने योग्य ज्ञानों को ( इयर्ति ) उपदेश प्रवचन आदि करे । *

    टिप्पणी

    * अत्रयावन्महर्षिदयानन्दभाष्यमुपलभ्यत ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ मित्रा वरुणौ देवते ॥ छन्दः—१ भुरिक् पंक्तिः । २, ४ त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, ७ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    उत्तम जीवन

    पदार्थ

    पदार्थ- हे (मित्रा-वरुणा) = स्नेही और वरणीय स्त्री पुरुषो! (यस्य) = जिसके (ब्रह्माणि) = ज्ञानों और धनों की आप दोनों (सु-क्रतू) = उत्तम कर्मवान् होकर (अवाथ) = रक्षा करते हो और (यत्) = जिसके (क्रत्वा न) = कर्म और ज्ञान - सामर्थ्य से (शरदः पृणैथे) = जीवन के वर्षों को सुखपूर्वक बिताते हो (सः विप्रः) = वह विद्वान् (ऋतावा) = न्याय और सत्य से युक्त और (दीर्घ श्रुत्) = दीर्घ काल तक वेदादि सत्य शास्त्रों का श्रोता (वां) = आप के प्रति (मन्मानि) = मननीय ज्ञानों का (इयति) = उपदेश करे।

    भावार्थ

    भावार्थ - वेदादि सत्यशास्त्रों के ज्ञाता व्याख्याता विद्वान् कर्मशील स्त्री-पुरुषों को धन की जीवन जीने का उपदेश किया करें जिससे उनके जीवन सुखपूर्वक व्यतीत रक्षा एवं उत्तम न्याय युक्त होवें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे विद्वानांनो ! जो दीर्घकालपर्यंत ब्रह्मचर्याने शास्त्र शिकतो तोच बुद्धिमान बनून सर्व माणसांचे रक्षण करण्यास समर्थ असतो.

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Mitra and Varuna, divinities of nature and humanity, your hymns of knowledge and power, that vibrant sage and scholar, a veteran reader and long time listener dedicated to truth and the laws of nature, studies, proclaims and extends by application. O powers of divine action, inspire, strengthen and protect his studies and fulfil his mission with intelligence and revelations as you fulfil the seasons of the year with natural evolution of their spirits.

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