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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 61/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अमू॑रा॒ विश्वा॑ वृषणावि॒मा वां॒ न यासु॑ चि॒त्रं ददृ॑शे॒ न य॒क्षम् । द्रुह॑: सचन्ते॒ अनृ॑ता॒ जना॑नां॒ न वां॑ नि॒ण्यान्य॒चिते॑ अभूवन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अमू॑रा । विश्वा॑ । वृ॒ष॒णौ॒ । इ॒माः । वा॒म् । न । यासु॑ । चि॒त्रम् । ददृ॑शे । न । य॒क्षम् । दुहः॑ । स॒च॒न्ते॒ । अनृ॑ता । जना॑नाम् । न । वा॒म् । नि॒ण्यानि॑ । अ॒चिते॑ । अ॒भू॒व॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अमूरा विश्वा वृषणाविमा वां न यासु चित्रं ददृशे न यक्षम् । द्रुह: सचन्ते अनृता जनानां न वां निण्यान्यचिते अभूवन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अमूरा । विश्वा । वृषणौ । इमाः । वाम् । न । यासु । चित्रम् । ददृशे । न । यक्षम् । दुहः । सचन्ते । अनृता । जनानाम् । न । वाम् । निण्यानि । अचिते । अभूवन् ॥ ७.६१.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 61; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    अध्यापकोपदेशकयोः (यासु) क्रियासु (चित्रम्) वैचित्र्यम्=शक्तेर्वैलक्षण्यमित्यर्थः (न, ददृशे) न दृष्टिगतं भवति (न यक्षम्) यासु न पूजायोग्यः कश्चिद्भावः (इमाः विश्वा) तौ अध्यापकोपदेशकौ (वाम्) युवां प्रति (वृषणौ) सदुपदेशस्य वृष्टिकर्त्तारौ (न) न भवतः, अन्यच्च (वाम्) युवां प्रति (ते) एवंविधा अध्यापकोपदेशकाः ये (द्रुहः सचन्ते) द्विषन्ति तेषां (अनृता) अनृतानि (निण्यानि) वचांसि (जनानाम्) (अचिते) अज्ञानाय (अभूवन्) भवन्ति अत एव (अमूरा) अज्ञानरहिताः भवन्तः सर्वे सदुपदेशकान् स्वीकुर्य्युः ॥५॥

    भावार्थः

    परमात्मोपदिशति, हे जनाः ! भवन्तः सर्वे अध्यापकोपदेशकयोर्विषये सर्वदैव अज्ञानरहिता भवेयुः, यतस्ते सर्वे उपदेशका अध्यापकाश्च वाग्मिनः सत्यवादिनश्च भवेयुः अन्यच्च ते स्तुतिनिन्दाकर्त्तारोऽपि न स्युः अर्थात् सर्वदैव सरलप्रकृतयः सत्यवादिनो वेदाध्ययनप्रियाश्च अध्यापकस्य उपदेशकस्य च पदे भवद्भिः स्थापनीयाः ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यासु) जिन उपदेशक तथा अध्यापकों की क्रिया में (चित्रम्) विचित्र शक्तियें (न, ददृशे) नहीं देखी जातीं (न, यक्षम्) न जिनमें श्रद्धा का भाव है वे (विश्वा) सम्पूर्ण संसार में (इमाः, वृषणौ) अपनी वाणी की वृष्टि (न) नहीं कर सकते और जो (वाम्) तुम्हारे उपदेशक तथा अध्यापक (जनानाम्) मनुष्यों की (अनृता, द्रुहः, सचन्ते) निन्दा वा दुश्चरित्र कहते हैं, उनकी (निण्यानि) वाणियें (अचिते, अभूवन्) अज्ञान की नाशक नहीं होतीं, इसलिए (अमूरा) तुम लोग पूर्वोक्त दोषों से रहित होओ, यह परमात्मा का उपदेश है ॥५॥

    भावार्थ

    जिन अध्यापक वा उपदेशकों में वाणी की विचित्रता नहीं पाई जाती और जिन की वेदादि सच्छास्त्रों में श्रद्धा नहीं है, उनके अज्ञाननिवृत्तिविषयक भाव संसार में कभी नहीं फैल सकते और न उनकी वाणी वृष्टि के समान सद्गुणरूप अङ्कुर उत्पन्न कर सकती है, इसी प्रकार जो अध्यापक वा उपदेशक रात्रि दिन निन्दा स्तुति में तत्पर रहते हैं, वे भी दूसरों की अज्ञानग्रन्थियों का छेदन नहीं कर सकते, इसलिए उचित है कि उपदेष्टा लोगों को निन्दा-स्तुति के भावों से सर्वथा वर्जित रहकर अपने हृदय में श्रद्धा के अङ्कुर दृढ़तापूर्वक जमाने चाहियें, ताकि सारा संसार आस्तिक भावों से विभूषित हो ॥५॥

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    विषय

    दोनों विद्वानों के वचन, उत्तम ज्ञान से पूर्ण हो ।

    भावार्थ

    हे ( अमूरा ) अमूढ़, मोह में न पड़ने वालो ! हे (विश्वा ) विविध विद्या में प्रवेश करने हारो ! हे ( तृषणौ ) बलवान्, सुखों की वर्षा करने वाले मेघ सूर्यवत् उपकारी स्त्री पुरुषो ! ( इमाः ) ये ( वां ) आप लोगों की ऐसी सरल उत्तम वाणियां हैं ( यासु ) जिनमें ( चित्रं ) अद्भुत और (यक्षम् ) विशेष स्तुति योग्य (न न ददृशे) कुछ नहीं दिखाई देता ऐसा नहीं, प्रत्युत आपकी वाणियों में सर्वत्र अद्भुत और ग्राह्य, स्तुत्य पदार्थ ही विद्यमान है । ( जनानां) मनुष्यों के बीच में (द्रुहः) द्रोही पुरुष ही ( अमृता ) असत्य २ बातों को (सचन्ते) सेवन करते हैं, वे हरेक बातों का उलटा मतलब लगाया करते हैं । वस्तुतः ( वां ) आप लोगों के (निण्यानि) छुपे हुए रहस्य मर्म ( अचिते न अभूवन् ) अज्ञानी पुरुष के लिये नहीं प्रकट होते हैं । अर्थात् उत्तम स्त्री पुरुषों के वचन सरल और स्पष्ट होने चाहियें । द्रोही लोग उनका कुछ का कुछ ही झूठ मतलब लगाते हैं अज्ञानी लोग उनकी यथार्थता नहीं जानते ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ मित्रा वरुणौ देवते ॥ छन्दः—१ भुरिक् पंक्तिः । २, ४ त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, ७ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    उपकारी पुरुष

    पदार्थ

    पदार्थ - हे (अमूरा) = अमूढ़, मोह में न पड़नेवालो! हे (विश्वा) = विद्याओं में प्रवेश करने हारो ! हे (वृषणौ) = सुख-वर्षक मेघ-सूर्यवत् उपकारी स्त्री-पुरुषो! (इमाः) = ये (वां) = आप की ऐसी उत्तम वाणियाँ हैं (यासु) = जिनमें (चित्रं) = अद्भुत और (यक्षम्) = स्तुति योग्य (न न ददृशे) = कुछ नहीं दिखाई देता ऐसा नहीं, प्रत्युत सर्वत्र अद्भुत और स्तुत्य पदार्थ विद्यमान हैं। (जनानां) = मनुष्यों के मध्य (द्रुहः) = द्रोही पुरुष ही (अनृता) = असत्य बातों को (सचन्ते) = सेवन करते हैं। वस्तुत (वां) = आप लोगों के (निण्यानि) = छुपे मर्म (अचिते न अभूवन्) = अज्ञानी पुरुष को नहीं प्रकट होते।

    भावार्थ

    भावार्थ- उपकारी पुरुष के ज्ञानोपदेश, जिज्ञासु व परोपकारी स्त्री पुरुषों को अच्छे लगते हैं। । इन उपदेशों से श्रेष्ठ जन तो अज्ञान से छूटकर सर्वत्र विद्यमान प्रभु की अद्भुत सामर्थ्य को जान लेते हैं, किन्तु अज्ञानी पुरुष ज्ञान व ज्ञानियों के द्रोही होकर कुछ भी प्राप्त नहीं करते।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O wise and generous powers of the world, Mitra and Varuna, these words of adoration are for you and your divine gifts to humanity, in which there is nothing that is not marvellous and nothing that is not divinely consecrated. Only the jealous and hostile among humanity indulge in scandal and falsehood, and even your smallest favours are too deep for the ignorant to perceive and appreciate.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या अध्यापक व उपदेशकांमध्ये वाणीची वैशिष्ट्ये आढळून येत नाहीत व ज्यांची वेद इत्यादी सत्य शास्त्रावर श्रद्धा नसते ते अज्ञान निवारण करू शकत नाहीत. त्यांची वाणी वृष्टीप्रमाणे सद्गुणरूपी अंकुर उत्पन्न करू शकत नाही. त्याप्रमाणेच जे अध्यापक किंवा उपदेशक रात्रंदिवस निंदा-स्तुती करण्यात तत्पर असतात तेही दुसऱ्याचे अज्ञान नष्ट करू शकत नाहीत. त्यासाठी उपदेशकांनी निंदा स्तुतीपासून पृथक राहून आपल्या हृदयात श्रद्धेच्या अंकुराची दृढतेने वाढ करावी. त्यामुळे संपूर्ण जग आस्तिक भावनेने विभूषित व्हावे ॥५॥

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