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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 71 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 71/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒यं म॑नी॒षा इ॒यम॑श्विना॒ गीरि॒मां सु॑वृ॒क्तिं वृ॑षणा जुषेथाम् । इ॒मा ब्रह्मा॑णि युव॒यून्य॑ग्मन्यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒यम् । म॒नी॒षा । इ॒यम् । अ॒श्वि॒ना॒ । गीः । इ॒माम् । सु॒ऽवृ॒क्तिम् । वृ॒ष॒णा॒ । जु॒षे॒था॒म् । इ॒मा । ब्रह्मा॑णि । यु॒व॒ऽयूनि॑ । अ॒ग्म॒न् । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इयं मनीषा इयमश्विना गीरिमां सुवृक्तिं वृषणा जुषेथाम् । इमा ब्रह्माणि युवयून्यग्मन्यूयं पात स्वस्तिभि: सदा नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इयम् । मनीषा । इयम् । अश्विना । गीः । इमाम् । सुऽवृक्तिम् । वृषणा । जुषेथाम् । इमा । ब्रह्माणि । युवऽयूनि । अग्मन् । यूयम् । पात । स्वस्तिऽभिः । सदा । नः ॥ ७.७१.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 71; मन्त्र » 6
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाध्यापकादिभिः सर्वैर्मिलित्वा परमात्मा एवम् उपासनीय इत्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    (वृषणा) हे विद्यादिसत्कामनापूरयितारः (अश्विना) अध्यापकोपदेशकाः ! यूयं (इयम् मनीषा) इमां बुद्धिं (इयम् गीः) इमां वेदवाणीं (इमाम् सुवृक्तिम्) एताः परमात्मस्तुतीः (जुषेथाम्) सेवयत या एताः (युवयूनि) भवत्सम्बन्धिन्यः सन्ति अन्यच्च (इमा) इमानि (ब्रह्माणि) ब्रह्मप्रतिपादकानि स्तोत्राणि (अग्मन्) भवतः प्राप्नुवन्तु अन्यच्च भवन्तः प्रार्थयन्तां यत् (नः) अस्मान् (यूयम्) भवन्तः (सदा) सर्वकाले (स्वस्तिभिः) स्वस्तिवाचनादिभिः (पात) पवित्रान् कुरुत इत्यर्थः ॥६॥ इत्येकसप्ततितमं सूक्तमष्टादशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सब प्रजाजन अध्यापक तथा उपदेशक मिलकर परमात्मा की इस प्रकार प्रार्थना, उपासना करो कि− 

    पदार्थ

    (वृषणा) हे विद्यादि की कामनाओं को पूर्ण करनेवाले (अश्विना) अध्यापक तथा उपदेशको ! (इयं मनीषा) यह बुद्धि (इयं गीः) यह वाणी (इमां सुवृक्तिम्) इन परमात्मस्तुतियों को (जुषेथां) आप सेवन करें, (युवयूनि) जो तुमसे सम्बन्ध रखती हैं और (इमा ब्रह्माणि) ये ब्रह्मप्रतिपादक स्तोत्र (अग्मन्) तुम्हें प्राप्त हों और तुम सदैव यह प्रार्थना करो कि (नः) हमको (यूयं) आप (सदा) सर्वदा (स्वस्तिभिः) स्वस्तिवाचनों से (पात) पवित्र करें ॥६॥

    भावार्थ

    हे श्रोताजन तथा उपदेशको ! तुम मिलकर वैदिक स्तोत्रों से परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना करते हुए यह वर माँगो कि हे जगदीश्वर ! हम वेदों के अनुसार अपना आचरण बनावें, जिससे हमारा जीवन पवित्र हो ॥६॥ यह ७१वाँ सूक्त और १८वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    'नासत्य' का स्पष्टार्थ।

    भावार्थ

    व्याख्या देखो सू० ७० । मं० ७ ॥ इत्यष्टादशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते । छन्दः – १, ५ त्रिष्टुप् । २, ३, ४, ६ विराट् त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    वेदवाणी का उपदेश

    पदार्थ

    पदार्थ- हे (अश्विना) = जितेन्द्रिय स्त्री-पुरुषो! (इयं) = यह (मनीषा) = मन की उत्तम इच्छा और (इयं गीः) = यह उत्तम वाणी है। आप दोनों (इमां) = इस (सु-वृक्तिं) = उत्तम वाणी को (वृषणा) = बलवान् होकर (जुषेथाम्) = सेवन करें। (इमा ब्रह्माणि) = ये वेद-वचन (युवयूनि) = आप के हितार्थ हैं। (यूयं) = हे विद्वान् लोगो! आप (स्वस्तिभिः नः सदा पात) = उत्तम साधनों से हमारी रक्षा करो।

    भावार्थ

    भावार्थ- संयमी स्त्री-पुरुष मन में शुभ चिन्तन करते हुए मधुर वाणी के द्वारा वेद वचनों से लोगों का हित चाहते हुए मार्गदर्शन करें। अगले सूक्त का ऋषि वसिष्ठ और अश्विनौ देवता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ashvins, leaders of light and action, generous givers of fulfilment, this reflection and prayer, these words of adoration, this act and song of homage offered to you, pray accept with pleasure. May these holy tributes reach you. May you, saints and scholars, leaders and pioneers, harbingers of light, freedom and progress, protect and promote us with happiness and well being all round all time.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे श्रोत्यांनो व उपदेशकांनो! तुम्ही सर्व मिळून वैदिक स्तोत्रांनी परमेश्वराची स्तुती, प्रार्थना, उपासना करीत हा वर मागा, की हे जगदीश्वरा! आम्ही वेदाप्रमाणे आपले आचरण बनवावे. ज्यामुळे आमचे जीवन पवित्र व्हावे. ॥६॥

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