ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 8/ मन्त्र 2
अ॒यमु॒ ष्य सुम॑हाँ अवेदि॒ होता॑ म॒न्द्रो मनु॑षो य॒ह्वो अ॒ग्निः। वि भा अ॑कः ससृजा॒नः पृ॑थि॒व्यां कृ॒ष्णप॑वि॒रोष॑धीभिर्ववक्षे ॥२॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । ऊँ॒ इति॑ । स्यः । सुऽम॑हान् । अ॒वे॒दि॒ । होता॑ । म॒न्द्रः । मनु॑षः । य॒ह्वः । अ॒ग्निः । वि । भाः । अ॒क॒रित्य॑कः । स॒सृ॒जा॒नः । पृ॒थि॒व्याम् । कृ॒ष्णऽप॑विः । ओष॑धीभिः । व॒व॒क्षे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमु ष्य सुमहाँ अवेदि होता मन्द्रो मनुषो यह्वो अग्निः। वि भा अकः ससृजानः पृथिव्यां कृष्णपविरोषधीभिर्ववक्षे ॥२॥
स्वर रहित पद पाठअयम्। ऊँ इति। स्यः। सुऽमहान्। अवेदि। होता। मन्द्रः। मनुषः। यह्वः। अग्निः। वि। भाः। अकरित्यकः। ससृजानः। पृथिव्याम्। कृष्णऽपविः। ओषधीभिः। ववक्षे ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स राजा कीदृशः स्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! यथा विभा यह्वोऽग्निरोषधीभिर्ववक्षे तथा कृष्णपविर्होता मन्द्रः सुमहान् मनुषो विद्वद्भिरवेदि स्योऽयमु पृथिव्यां सर्वान् सुखेन ससृजानः सन् सर्वेषामुन्नतिमकः ॥२॥
पदार्थः
(अयम्) (उ) (स्यः) सः (सुमहान्) शुभैर्गुणकर्मभिः पूजनीयः (अवेदि) विद्यते (होता) दाता (मन्द्रः) आनन्दयिता (मनुषः) मनुष्यः (यह्वः) महान् (अग्निः) पावक इव (वि) (भाः) यो भाति (अकः) करोति (ससृजानः) स्रष्टा सन् (पृथिव्याम्) भूमौ (कृष्णपविः) कृष्णो विलेखः पविः शस्त्रास्त्रसमूहो यस्य (ओषधीभिः) सोमलतादिभिः (ववक्षे) वहति ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सूर्यवदुपकारका भवन्ति त एव सुष्ठु पूज्या जायन्ते ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह राजा कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वानो ! जैसे (विभाः) प्रकाश करनेवाला (यह्वः) बड़ा (अग्निः) अग्नि के तुल्य तेजस्वी (ओषधीभिः) सोमलतादि ओषधियों से (ववक्षे) प्राप्त करता है, वैसे (कृष्णपविः) तीक्ष्ण काट करनेवाले शस्त्र अस्त्रों से युक्त (होता) दानशील (मन्द्रः) आनन्द करानेवाला (सुमहान्) शुभ गुणकर्मों से सत्कार करने योग्य (मनुषः) मनुष्य विद्वानों से (अवेदि) जाना जाता है (स्यः) वह (अयम्) यह (उ) ही (पृथिव्याम्) पृथिवी पर सब को सुख से (ससृजानः) संयुक्त करता हुआ सबकी उन्नति (अकः) करता है ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सूर्य के तुल्य उपकारक होते हैं, वे ही अच्छे प्रकार सत्कार पाने योग्य होते हैं ॥२॥
विषय
अग्निवत् राजा का वर्णन
भावार्थ
जिस प्रकार ( अग्नि: कृष्ण-पविः ओषधीभिः ववक्षे ) आग काले मार्ग वाला है उसे ओषधियां धारण करती हैं। उसी प्रकार ( मनुष्यः ) मननशील मनुष्य, भी ( यह्व: ) महान् पूज्य ( अग्निः ) अग्नि के समान तेजस्वी है जो ( पृथिव्याम् ) पृथिवी पर ( कृष्ण-पविः ) श्याम धारावाले वा शत्रु को काटने वाले शस्त्रास्त्र से युक्त है। उसे ( ओषधीभिः ) तीक्ष्ण शत्रुबल को दग्ध करने वाले सैन्यगण ( ववक्षे ) धारण करते हैं । वह ( ससृजानः ) अग्नि के समान उत्पन्न होकर, ( ससृजानः ) स्वयं कार्य करता हुआ ( भाः वि अकः ) नाना प्रकार से या विशेष रूप से कान्तियें, तेज प्रकट करता है ( अयम् उ स्यः ) वह ही यह ( होता ) महान् राज्य को स्वीकार करने और सहस्रों को वृत्ति देने वाला और ( मन्द्रः ) सब को सुखी करने वाला होकर ( सु-महान् अवेदि) खूब बड़ा जाना जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ७ स्वराट् पंक्ति: । ५ निचृत्त्रिष्टुप् २, ३, ४, ६ त्रिष्टुप् ॥
विषय
ओषधीभिः ववक्षे
पदार्थ
[१] (अयम्) = ये (उ) = निश्चय से (स्यः) = वे प्रभु (सुमहान्) = अत्यन्त महान् (अवेदि) = माने जाते हैं। प्रभु के समान ही कोई और सत्ता नहीं, उससे बढ़कर के किसी के होने का तो प्रश्न ही नहीं। (होता) = ये प्रभु ही सब पदार्थों के देनेवाले हैं। (मन्द्रः) = आनन्दस्वरूप हैं। (मनुषः) = विचारशील पुरुष के ये (यह्वः) [यात: हूतश्च] =जाने योग्य व पुकारने योग्य हैं। (अग्नि:) = अग्रणी हैं। [२] (ससृजान:) = [सृज्यमानः] ध्यान द्वारा हृदयदेश में उत्पन्न [अविर्भूत] किये जाते हुए ये प्रभु (पृथिव्याम्) = इस पृथिवीरूप शरीर में (भाः) = दीप्तियों को (वि अकः) = विशेषरूप से करते हैं। प्रभु का ध्यान होते ही सारा शरीर प्रकाशमय हो उठता है। ये (कृष्णपवि:) [पवि speech] = अत्यन्त आकर्षक अथवा पापों को क्षीण करनेवाली वाणीवाले प्रभु (ओषधीभिः) = ओषधियों से (ववक्षे) = हमारे अन्दर बढ़ते हैं। अर्थात् वानस्पतिक भोजन प्रभु की भावना को हमारे अन्दर बढ़ाने का कारण बनता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु महान् हैं। हृदय में प्रभु का ध्यान होते ही प्रकाश ही प्रकाश हो जाता है। प्रभु प्रवणता की वृद्धि में ओषधि भोजन सहायक होता है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे सूर्याप्रमाणे उपकारक असतात तेच चांगल्या प्रकारे सत्कार प्राप्त करण्यायोग्य असतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
This is Agni, that ruling spirit of life felt and known, that great and good arouser and yajaka, happy and joyous, human and mighty over all, unchallengeable, who brings out the lights of life from within, wielding great powers and forces, creating and making new things and institutions, and ruling over the earth.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal