ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 8/ मन्त्र 5
अस॒न्नित्त्वे आ॒हव॑नानि॒ भूरि॒ भुवो॒ विश्वे॑भिः सु॒मना॒ अनी॑कैः। स्तु॒तश्चि॑दग्ने शृण्विषे गृणा॒नः स्व॒यं व॑र्धस्व त॒न्वं॑ सुजात ॥५॥
स्वर सहित पद पाठअस॑न् । इत् । त्वे इति॑ । आ॒ऽहव॑नानि । भूरि॑ । भुवः॑ । विश्वे॑भिः । सु॒ऽमनाः॑ । अनी॑कैः । स्तु॒तः । चि॒त् । अ॒ग्ने॒ । शृ॒ण्वि॒षे॒ । गृ॒णा॒नः । स्व॒यम् । व॒र्ध॒स्व॒ । त॒न्व॑म् । सु॒ऽजा॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
असन्नित्त्वे आहवनानि भूरि भुवो विश्वेभिः सुमना अनीकैः। स्तुतश्चिदग्ने शृण्विषे गृणानः स्वयं वर्धस्व तन्वं सुजात ॥५॥
स्वर रहित पद पाठअसन्। इत्। त्वे इति। आऽहवनानि। भूरि। भुवः। विश्वेभिः। सुऽमनाः। अनीकैः। स्तुतः। चित्। अग्ने। शृण्विषे। गृणानः। स्वयम्। वर्धस्व। तन्वम्। सुऽजात ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 8; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सः राजा किं कुर्य्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे सुजाताग्ने ! त्वे भुवो भूर्याहवनान्यसन् विश्वेभिरनीकैः सुमनाः स्तुतो गृणानः सर्वेषां वाक्यानि [चित्] शृण्विषे स त्वं स्वयमित्तन्वं वर्धस्व ॥५॥
पदार्थः
(असन्) भवन्ति (इत्) एव (त्वे) त्वयि (आहवनानि) सत्कारपूर्वकनिमन्त्रणानि (भूरि) (भुवः) पृथिव्याः (विश्वेभिः) समग्रैः (सुमनाः) शोभनमनाः (अनीकैः) सुशिक्षितैस्सैन्यैः (स्तुतः) (चित्) अपि (अग्ने) विद्वन्राजन् (शृण्विषे) (गृणानः) स्तुवन् (स्वयम्) (वर्धस्व) (तन्वम्) शरीरम् (सुजात) सुष्ठु प्रसिद्ध ॥५॥
भावार्थः
हे राजन् ! यदि भवान् प्रशंसितानि धर्म्याणि कार्याण्यकरिष्यत्तर्हि सर्वत्र विजयमानः सन् स्वयं वर्द्धित्वा सर्वाः प्रजा अवर्धयिष्यत् ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (सुजात) सुन्दर प्रकार प्रसिद्ध (अग्ने) विद्वन् राजन् ! (त्वे) आप के निमित्त (भुवः) पृथिवी के सम्बन्ध में (भूरि) बहुत (आहवनानि) सत्कारपूर्वक निमन्त्रण (असन्) होते हैं (विश्वेभिः) सब (अनीकैः) अच्छी शिक्षित सेनाओं के साथ (सुमनाः) प्रसन्न चित्त (स्तुतः) स्तुति को प्राप्त (गृणानः) स्तुति करनेवालों के वाक्यों को (चित्) भी (शृण्विषे) सुनते हैं सो आप (स्वयमित्) स्वयमेव (तन्वम्) शरीर को (वर्धस्व) बढ़ाइये ॥५॥
भावार्थ
हे राजन् ! यदि आप प्रशंसित धर्मयुक्त कर्मों को करें तो सर्वत्र विजय को प्राप्त होते हुए आप वृद्धि को प्राप्त होके सब प्रजाओं को बढ़ावें ॥५॥
विषय
उसके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे (अग्ने ) तेजस्विन् ! राजन् ! ( त्वे ) तेरे निमित्त ( भूरि ) बहुत से (आहवनानि ) सत्कार पूर्वक नियन्त्रण (असन् इत् ) हों। तू ( विश्वेभिः अनीकैः ) सब सैन्यों से युक्त और ( सुमना: ) उत्तम चित्त वाला ( भुवः ) हो । हे (सुजात) उत्तम गुणों से प्रख्यात ! तू ( स्तुतः-चित् ) प्रशंसित और ( गृणानः ) उत्तम उपदेश करता हुआ भी ( श्रृण्विषे) अन्यों के वचनों का श्रवण किया कर और ( स्वयं ) अपने आप ( तन्वं वर्धस्व ) शरीरवत् तन्वं वर्धस्व ) शरीरवत् अपने राष्ट्र और विस्तृत ज्ञानकी वृद्धि किया कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ७ स्वराट् पंक्ति: । ५ निचृत्त्रिष्टुप् २, ३, ४, ६ त्रिष्टुप् ॥
विषय
बल- सौमनस्य
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (त्वे इत्) = आप में ही (आहवनानि) = पुकारें- प्रार्थनाएँ (भूरि सन्ति) = खूब होती हैं। सब आपकी ही प्रार्थनाएँ करते हैं। आप इन प्रार्थनाओं को सुनकर (विश्वेभिः) = सब (अनीकैः) = बलों के द्वारा (सुमना: भुवः) = उत्तम मनवाले होते हैं। आप बल (सौमनस्य) = को प्राप्त कराते हैं। [२] हे अग्ने ! आप (स्तुतः) = [स्तौति इति स्तुत्] स्तवन करनेवाले की (चित्) = निश्चय से (शृण्विषे) = प्रार्थना को सुनते हैं। और हे (सुजात) = उत्तम विकास के कारणभूत प्रभो ! (गृणानः) = ज्ञानोपदेश देते हुए आप (स्वयम्) = अपने आप (तन्वम्) = हमारे शरीरों को वर्धस्व बढ़ाइये। आपके ज्ञानोपदेश से तदनुसार आचरण करते हुए हम अपने शरीर की सब शक्तियों को बढ़ानेवाले बनें।
भावार्थ
भावार्थ- हम सदा प्रभु को ही पुकारें । प्रभु हमें बल सौमनस्य को प्राप्त करायें। प्रभु स्तोता की पुकार को सुनते हैं, उसे ज्ञानोपदेश देते हुए उसकी शक्तियों का वर्धन करते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा ! जर तू प्रशंसित धर्मयुक्त कर्म केलेस तर सर्वत्र विजय प्राप्त करून स्वतः उन्नत होऊन सर्व प्रजेला उन्नत करशील. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, light and spirit of life, good and gracious at heart, all these many adorations and oblations of the earth with all powers and splendours of the world are for you and abide in you only. And when you are thus adored and celebrated, you listen, absorbed approvingly blissful. Listen then, O nobly born and self-manifested, wax with joy, and let your light of glory shine more and more on us.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal