ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 8/ मन्त्र 3
कया॑ नो अग्ने॒ वि व॑सः सुवृ॒क्तिं कामु॑ स्व॒धामृ॑णवः श॒स्यमा॑नः। क॒दा भ॑वेम॒ पत॑यः सुदत्र रा॒यो व॒न्तारो॑ दु॒ष्टर॑स्य सा॒धोः ॥३॥
स्वर सहित पद पाठकया॑ । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । वि । व॒सः॒ । सु॒ऽवृ॒क्तिम् । काम् । ऊँ॒ इति॑ । स्व॒धाम् । ऋ॒ण॒वः॒ । श॒स्यमा॑नः । क॒दा । भ॒वे॒म॒ । पत॑यः । सु॒ऽद॒त्र॒ । रा॒यः । व॒न्तारः॑ । दु॒स्तर॑स्य । सा॒धोः ॥
स्वर रहित मन्त्र
कया नो अग्ने वि वसः सुवृक्तिं कामु स्वधामृणवः शस्यमानः। कदा भवेम पतयः सुदत्र रायो वन्तारो दुष्टरस्य साधोः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठकया। नः। अग्ने। वि। वसः। सुऽवृक्तिम्। काम्। ऊँ इति। स्वधाम्। ऋणवः। शस्यमानः। कदा। भवेम। पतयः। सुऽदत्र। रायः। वन्तारः। दुस्तरस्य। साधोः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते राजप्रजाजनाः कथं वर्तेरन्नित्याह ॥
अन्वयः
हे सुदत्राऽग्ने ! शस्यमानस्त्वं कया नो वि वसः कामु [सुवृक्तिं] स्वधामृणवः कदा दुष्टरस्य साधोर्वन्तारो रायः पतयो वयं भवेम ॥३॥
पदार्थः
(कया) रीत्या (नः) अस्मान् (अग्ने) विद्युद्वदैश्वर्यप्रद (वि) (वसः) निवासय (सुवृक्तिम्) सुष्ठु व्रजन्ति यस्यां नीतौ ताम् (काम्) (उ) (स्वधाम्) अन्नम् (ऋणवः) प्रसाध्नुयाः (शस्यमानः) स्तूयमानः (कदा) (भवेम) (पतयः) (सुदत्र) सुष्ठु दातः (रायः) धनस्य (वन्तारः) सम्भाजकाः (दुष्टरस्य) दुःखेन तरितुं योग्यस्य (साधोः) सत्पुरुषस्य ॥३॥
भावार्थः
हे राजन् ! यदि भवानस्मान् यथावत्पालयित्वा धनाढ्यान् कुर्यास्तर्हि वयमपि तव सज्जनस्य सततमुन्नतिं कुर्य्याम ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे राजा और प्रजा के जन कैसे वर्त्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (सुदत्र) सुन्दर दाता (अग्ने) विद्युत् के समान ऐश्वर्य देनेवाले राजपुरुष ! (शस्यमानः) प्रशंसा को प्राप्त हुए आप (कया) किस रीति से (नः) हमको (वि, वसः) प्रवास कराते हैं (काम्, उ) किसी (सुवृक्तिम्) सुन्दर प्रकार जिस में प्राप्त हों उस नीति और (स्वधाम्) अन्न को (ऋणवः) प्रसिद्ध करो (कदा) कब (दुष्टरस्य) दुःख से तरने योग्य (साधोः) सत्पुरुष के (वन्तारः) सेवक (रायः) धन के (पतयः) स्वामी हम लोग (भवेम) होवें ॥३॥
भावार्थ
हे राजन् ! यदि आप हमारा यथावत् पालन कर धनाढ्य करें तो हम भी आप सज्जन की निरन्तर उन्नति करें ॥३॥
विषय
उसके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे (अग्ने ) अग्नि के तुल्य तेजस्विन् ! अग्रणी, मुख्यपद को प्राप्त राजन् ! तू ( कया ) किस रीति नीति से ( नः वि वसः ) हमें विविध प्रकार से रक्षा करते हो ? और ( काम् सुवृक्तिम् ) किस उत्तम संविभाग की (स्वधां) ऐश्वर्य एवं स्वराष्ट्र को धारण करने वाली नीति को आप ( शस्यमानः ) स्तुति योग्य होकर ( ऋणवः ) प्राप्त होते हो । हे ( सुदत्र ) उत्तम दानशील ! हम लोग ( दुस्तरस्य रायः ) अपार ऐश्वर्य के ( पतयः ) स्वामी और ( वन्ताराः ) सेवन करने वाले (कदा) कब ( भवेम ) हों और ( दुःस्तरस्य ) बल विद्या में अपार ( साधो: ) सज्जन पुरुष के हम भी ( वन्तारः कदा भवेम ) सेवक कब हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ७ स्वराट् पंक्ति: । ५ निचृत्त्रिष्टुप् २, ३, ४, ६ त्रिष्टुप् ॥
विषय
स्वधा
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! आप (नः) = हमारी इस (सुवृक्तिम्) = दोषवर्जन की साधनभूत स्तुति को (कया) = किस अद्भुत [स्वधया] आत्मधारणशक्ति से (विवसः) = आच्छादित करते हैं। (उ) = निश्चय से (शस्यमानः) = स्तुति किये जाते हुए आप (कां स्वधाम्) = आनन्दप्रद आत्मधारणशक्ति को ऋणश प्राप्त कराते हैं। अर्थात् जितना-जितना हम प्रभु का स्तवन व शंसन करते हैं, उतना उतना आत्मधारणशक्ति को प्राप्त करते हैं। [२] हे सुदत्र-शोभनदानवाले प्रभो ! (कदा) = कब हम (रायः) = उस धन के (पतयः) = स्वामी तथा (वन्तारः) = सम्भजन करनेवाले (भवेम) = होंगे, जो (दुष्टरस्य) = शत्रुओं से हिंसित नहीं होता तथा (साधो:) = सब इष्ट कार्यों का साधक है। हम उस 'दुष्टर साधु' सम्पत्ति को प्राप्त करें तथा उसका संविभाग करनेवाले हों।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु-स्तवन करते हुए आत्मधारणशक्ति को प्राप्त करें। और उस धन को प्राप्त करें जो हमें काम- -क्रोध-लोभ आदि का शिकार न होने दे तथा जो हमारे इष्ट कार्यों का साधक हो। हम इस धन का संविभाग करनेवाले हों।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा ! जर तू आमचे यथायोग्य पालन करून धनवान केलेस तर आम्ही तुझ्यासारख्या सज्जनाची सतत वृद्धी करू. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, self-refulgent lord ruler of the world, what is the method and manners of life by which your grace would shine upon us? What is the song of adoration, what fragrance of yajna you love by which we would adore and celebrate your majesty? O generous lord giver, when shall we be masters, producers and sharers of rare excellent wealth, power and honour for ourselves and others?
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