ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 8/ मन्त्र 6
इ॒दं वचः॑ शत॒साः संस॑हस्र॒मुद॒ग्नये॑ जनिषीष्ट द्वि॒बर्हाः॑। शं यत्स्तो॒तृभ्य॑ आ॒पये॒ भवा॑ति द्यु॒मद॑मीव॒चात॑नं रक्षो॒हा ॥६॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । वचः॑ । श॒त॒ऽसाः । सम्ऽस॑हस्रम् । उत् । अ॒ग्नये॑ । ज॒नि॒षी॒ष्ट॒ । द्वि॒ऽबर्हाः॑ । शम् । यत् । स्तो॒तृऽभ्यः॑ । आ॒पये॑ । भवा॑ति । द्यु॒ऽमत् । अ॒मी॒व॒ऽचात॑नम् । र॒क्षः॒ऽहा ॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं वचः शतसाः संसहस्रमुदग्नये जनिषीष्ट द्विबर्हाः। शं यत्स्तोतृभ्य आपये भवाति द्युमदमीवचातनं रक्षोहा ॥६॥
स्वर रहित पद पाठइदम्। वचः। शतऽसाः। सम्ऽसहस्रम्। उत्। अग्नये। जनिषीष्ट। द्विऽबर्हाः। शम्। यत्। स्तोतृऽभ्यः। आपये। भवाति। द्युऽमत्। अमीवऽचातनम्। रक्षःऽहा ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 8; मन्त्र » 6
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 6
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स राजा किं कुर्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे राजञ्छतसा द्विबर्हा रक्षोहा भवानग्नय इदं सं सहस्रं वचो जनिषीष्ट यद् द्युमदमीवचातनं शं स्तोतृभ्य आपय उद्भवाति तदेव सततं साधयतु ॥६॥
पदार्थः
(इदम्) (वचः) वचनम् (शतसाः) यः शतानि सनति विभजति (सम्, सहस्रम्) सम्यक्सहस्रम् (उत्) (अग्नये) पावकायेव (जनिषीष्ट) जनयतु (द्विबर्हाः) द्वाभ्यां विद्याविनयाभ्यां बर्हः वर्धनं यस्य सः (शम्) सुखम् (यत्) (स्तोतृभ्यः) स्तावकेभ्यो विद्वद्भ्यः (आपये) प्रापकायाऽऽप्ताय (भवाति) भवेत् (द्युमत्) द्यौः कामना विद्यते यस्य (अमीवचातनम्) रोगनाशनम् (रक्षोहा) रक्षसां दुष्टानां हन्ता ॥६॥
भावार्थः
हे प्रजाजना ! यथा राजा सभेशः सर्वेभ्यो मधुरं वचः उत्तमं सुखं दत्वा दुःखं दूरीकरोति तथैव यूयमपि राज्ञेऽसंख्यान् पदार्थान् दत्वा प्रमादरोगरहितं सम्पादयत ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् ! (शतसाः) सौ का विभाग करने (द्विबर्हाः) विद्या और विनय से ब़ढ़ने और (रक्षोहा) दुष्ट राक्षसों के हिंसा करनेवाले आप (अग्नये) अग्नि के लिये जैसे, वैसे (इदम्) इस (सम्, सहस्रम्) सम्यक् सहस्र (वचः) वचन को (जनिषीष्ट) प्रकट कीजिये (यत्) जिस (द्युमत्) कामनावाले (अमीवचातनम्) रोगनाशरूप (शम्) सुख को (स्तोतृभ्यः) स्तुतिकर्ता विद्वानों के लिये वा (आपये) प्राप्त करानेवाले के लिये (उद्भवाति) प्रसिद्ध करते हैं, उसी को निरन्तर सिद्ध करें ॥६॥
भावार्थ
हे प्रजाजनो ! जैसे सभापति राजा सब के लिये मधुर कोमल वचन और उत्तम सुख देकर दुःख दूर करता है, वैसे ही तुम लोग भी राजा के लिये असंख्य पदार्थों को देकर प्रमाद और रोग रहित करके अधिकरतर धन देओ ॥६॥
विषय
उसके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे विद्वन् ! ( द्वि-बर्हाः ) विद्या और नियम, ज्ञान और कर्म दोनों से बढ़ने वाला पुरुष (अग्नये ) अग्रगण्य पुरुष की उन्नति के लिये ( शत-सा: ) सैकड़ों ज्ञानों को देने वाला होकर ( सं-सहस्रम् ) सहस्त्रों, अपरिमित ऐश्वर्यों और ज्ञानों के देने वाला ( इदं वचः ) इस प्रकार का वचन ( उत् जनिषीष्ट ) उत्पन्न करे, कहे (यत्) जो (स्तोतृभ्यः ) विद्वानों के लिये ( आपये ) आप्तजन, बन्धु वर्ग के लिये (शं भवाति) शान्तिदायक हो और जो ( द्युमत् ) शुभ कामनायुक्त, ( अमीव-चातनं ) रोगादिनाशक और ( रक्ष:- हा) दुष्ट पुरुषों का नाशकारी हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ७ स्वराट् पंक्ति: । ५ निचृत्त्रिष्टुप् २, ३, ४, ६ त्रिष्टुप् ॥
विषय
'द्युमत् अमीवचातन रक्षोहा' स्तुतिवचन
पदार्थ
[१] (शतसाः) = शतवर्षपर्यन्त इन्द्रियशक्तियों का संभजन करनेवाला (सहस्रम्) = सहस्त्रों ज्ञान की वाणियों से (सम्) = संयुत हुआ हुआ यह स्तोता (अग्नये) = उस अग्रेणी प्रभु के लिये (इदं वचः) = इस स्तुतिवचन को (उत् जनिषीष्ट) = उत्कर्षेण प्रादुर्भूत करता है। परिणामतः (द्विबर्हा:) = शरीर व मस्तिष्क प्रवृद्ध शक्ति व ज्ञानवाला होता है। [२] उस स्तुतिवचन का यह उच्चारण करता है (यत्) = जो (स्तोतृभ्यः) = स्तोताओं के लिए और (आपये) = बन्धुओं के लिए (शं भवाति) = शान्ति को देनेवाला होता है। (द्युमत्) = मस्तिष्क में ज्ञानदीप्ति को प्राप्त करानेवाला होता है। (अमीवचातनम्) = शरीर में रोगों का विध्वंस करनेवाला व (रक्षोहा) = मनों में राक्षसी वृत्तियों को नष्ट करनेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का स्तवन हमारी शक्ति व ज्ञान को बढ़ाता है। यह मानस शान्ति को प्राप्त कराता है 'द्युमत्-अमीवचातन व रक्षोहा' है।
मराठी (1)
भावार्थ
हे प्रजाजनांनो! जसा राजा सर्वांना मधुर वचन बोलून उत्तम सुख देऊन दुःख दूर करतो तसे तुम्हीही राजाला असंख्य पदार्थ द्या व प्रमादरहित आणि रोगरहित करा. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
This song of adoration full of a hundred thousand-fold power and virtue of both knowledge and humility is created in honour of Agni so that, for the enlightened celebrant, there may be peace and well being full of light, freedom from ailment, and protection against evil and wickedness.
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