ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 95/ मन्त्र 4
उ॒त स्या न॒: सर॑स्वती जुषा॒णोप॑ श्रवत्सु॒भगा॑ य॒ज्णे अ॒स्मिन् । मि॒तज्ञु॑भिर्नम॒स्यै॑रिया॒ना रा॒या यु॒जा चि॒दुत्त॑रा॒ सखि॑भ्यः ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । स्या । नः॒ । सर॑स्वती । जु॒षा॒णा । उप॑ । श्र॒व॒त् । सु॒ऽभगा॑ । य॒ज्ञे । अ॒स्मिन् । मि॒तज्ञु॑ऽभिः । न॒म॒स्यैः॑ । इ॒या॒ना । रा॒या । यु॒जा । चि॒त् । उत्ऽत॑रा । सखि॑ऽभ्यः ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत स्या न: सरस्वती जुषाणोप श्रवत्सुभगा यज्णे अस्मिन् । मितज्ञुभिर्नमस्यैरियाना राया युजा चिदुत्तरा सखिभ्यः ॥
स्वर रहित पद पाठउत । स्या । नः । सरस्वती । जुषाणा । उप । श्रवत् । सुऽभगा । यज्ञे । अस्मिन् । मितज्ञुऽभिः । नमस्यैः । इयाना । राया । युजा । चित् । उत्ऽतरा । सखिऽभ्यः ॥ ७.९५.४
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 95; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(स्या, उत, सरस्वती) सा सरस्वती (नः) अस्मभ्यं (जुषाणा) हितं चरन्ती (अस्मिन्) एतस्मिन् (यज्ञे) ऋते (श्रवत्, सुभगा) शोभमाना विराजते (नमस्यैः) स्तोतृभिः (मितज्ञुभिः) संयमीभिः (इयाना) प्राप्यमाणा (राया) धनेन (सखिभ्यः) मित्राणि (चित्, उत्तरा) उत्तरोत्तरं हि (युजा) संयोज्य वर्द्धयति ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(स्या, सरस्वती) वह सरस्वती (नः) हमारे लिए (जुषाणा) सेवन की हुई (अस्मिन्) इस ब्रह्मविद्यारूपी (यज्ञे) यज्ञ में (श्रवत्) आनन्द की वृष्टि करती है (उत) और (मितज्ञुभिः) संयमी पुरुषों द्वारा (इयाना) प्राप्त हुई (सुभगा, राया) धन से मित्रों को वृद्धियुक्त करती है, (चिदुत्तरा) उत्तरोत्तर सौन्दर्य्य को देनेवाली (नमस्यैः) नमस्कार से और (सखिभ्यः) मित्रों को सदैव वृद्धियुक्त करती है ॥४॥
भावार्थ
सरस्वती विद्या यदि संयमी पुरुषों द्वारा अर्थात् सदाचारी पुरुषों द्वारा उपदेश की जाय, तो पुरुष को ऐश्वर्य्यशाली बनाती है, सदा के लिए अभ्युदयसम्पन्न करती है ॥४॥
विषय
स्त्री को उपदेश ।
भावार्थ
( उत ) और ( स्या ) वह ( सरस्वती ) उत्तम ज्ञानवाली विदुषी स्त्री, (जुषाणा ) हम से स्नेह करती हुई ( अस्मिन् यज्ञे ) इस यज्ञ में ( सु-भगा ) उत्तम ऐश्वर्ययुक्त, सौभाग्यवती होकर ( नः उप श्रवत् ) हमारी बात ध्यानपूर्वक श्रवण करे । वह ( नमस्यैः ) नमस्कार करने योग्य ( मित-ज्ञुः ) परिमित संकुचित जानुओं वाले सभ्य ( मितज्ञुभिः ) समस्त ज्ञातव्य पदार्थों के जानने वाले विद्वान् पुरुषों के साथ ( इयाना ) प्राप्त होती हुई ( राया ) ऐश्वर्य ( चित् ) और ( युजा ) सहयोगी पति से तू ( सखिभ्यः ) अपनी सखी सहेलियों से ( उत्तरा ), अधिक उत्कृष्ट हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १, २, ४–६ सरस्वती । ३ सरस्वान् देवता॥ छन्दः—१ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २, ५, ६ आर्षी त्रिष्टुप् । ३, ४ विराट् त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥
विषय
स्त्री के कर्त्तव्य - ३
पदार्थ
पदार्थ - (उत) = और (स्या) = वह सरस्वती ज्ञानवाली विदुषी स्त्री, (जुषाणा) = स्नेह करती हुई (अस्मिन् यज्ञे) = इस यज्ञ में (सु-भगा) = सौभाग्यवती होकर (नः उप श्रवत्) = हमारी बात सुने। वह (नमस्यैः) = नमस्कार योग्य (मित-ज्ञुभिः) = परिमित संकुचित जानुओंवाले, ज्ञातव्य पदार्थों के ज्ञाता पुरुषों के साथ इयाना प्राप्त होती हुई (राया) = ऐश्वर्य (चित्) = और (युजा) = सहयोगी पति से तू (सखिभ्यः) = स्व सखियों से उत्तरा अधिक उत्कृष्ट हो ।
भावार्थ
भावार्थ-विदुषी स्त्री ज्ञान व स्नेह से पति एवं परिजनों की बातों को सुना करे। यज्ञ कार्यों को नियमित करे तथा अपनी सखियों में भी उच्च स्थान प्राप्त करे।
इंग्लिश (1)
Meaning
And that perennial living stream, Sarasvati, loving and gracious, overflowing with wealth, honour and excellence, may come, we pray, and listen to us in this yajna of life. When approached by the yajnics of discipline with reverence and homage, she showers her favours full of wealth higher and ever more on her devoted friends.
मराठी (1)
भावार्थ
सरस्वती विद्येचा जर संयमी पुरुषांद्वारे अर्थात सदाचारी पुरुषांद्वारे उपदेश केला गेला, तर ती पुरुषाला ऐश्वर्यवान बनविते, सदैव अभ्युदयसंपन्न करते. ॥४॥
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