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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 95 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 95/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - सरस्वती छन्दः - आर्षीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒यमु॑ ते सरस्वति॒ वसि॑ष्ठो॒ द्वारा॑वृ॒तस्य॑ सुभगे॒ व्या॑वः । वर्ध॑ शुभ्रे स्तुव॒ते रा॑सि॒ वाजा॑न्यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । ऊँ॒ इति॑ । ते॒ । स॒र॒स्व॒ति॒ । वसि॑ष्ठः । द्वारौ॑ । ऋ॒तस्य॑ । सु॒ऽभ॒गे॒ । वि । आ॒व॒रित्या॑वः । वर्ध॑ । शु॒भ्रे॒ । स्तु॒व॒ते । रा॒सि॒ । वाजा॑न् । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयमु ते सरस्वति वसिष्ठो द्वारावृतस्य सुभगे व्यावः । वर्ध शुभ्रे स्तुवते रासि वाजान्यूयं पात स्वस्तिभि: सदा नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । ऊँ इति । ते । सरस्वति । वसिष्ठः । द्वारौ । ऋतस्य । सुऽभगे । वि । आवरित्यावः । वर्ध । शुभ्रे । स्तुवते । रासि । वाजान् । यूयम् । पात । स्वस्तिऽभिः । सदा । नः ॥ ७.९५.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 95; मन्त्र » 6
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 6
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सरस्वति) हे विद्ये ! (सुभगे) हे ऐश्वर्यशालिनि ! (अयम्, ते, वसिष्ठः) अयं तवोपासको विद्वान् (ऋतस्य, द्वारौ, व्यावः) भवत्याः सत्यस्य द्वारं विवृणोति, (शुभ्रे) हे कल्याणिनि ! (स्तुवते) स्तुतिकर्त्रे (वाजान्, रासि) विविधधनं प्रयच्छ (वर्ध) विद्वत्सु प्रसर च (यूयम्) भवती (स्वस्तिभिः) कल्याणवाग्भिः (सदा) निरन्तरम् (नः) अस्मान् (पात) रक्षतु ॥६॥ इति पञ्चनवतितमं सूक्तमेकोनविंशतितमो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सरस्वती) हे ब्रह्मविद्ये ! (अयं) यह उपासक (वसिष्ठः) विद्यागुणसम्पन्न (ते) तुम्हारे (द्वारौ) द्वारों को (शुभ्रे) हे ऐश्वर्य्य के देनेवाली अर्थात् और पारलौकिक अभ्युदय के देनेवाली वेदविद्ये ! (व्यावः) ब्रह्मवेत्ता पुरुष बोलता है, हे (शुभ्रे) कल्याणिनि ! तू (वर्ध) बढ़ (स्तुवते) जो पुरुष तुम्हारी स्तुति करते हैं, उनके लिये तथा उनको (वाजान्, रासि) सम्पूर्ण प्रकार के बल दे और (यूयं) तू (स्वस्तिभिः) मङ्गलवाणियों से उनको सदा पवित्र कर ॥६॥

    भावार्थ

    जो लोग विद्या को चाहते हैं और प्रतिदिन विद्या में रत हैं, उनके ब्रह्मविद्यारूप यज्ञ के दरवाजे खुल जाते हैं तथा वे सब प्रकार के सुखों को प्राप्त होते हैं ॥६॥ यह ९५वाँ सूक्त और १९वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    स्त्री को उपदेश ।

    भावार्थ

    हे ( सरस्वति ) उत्तम ज्ञानवति ! विदुषि ! हे ( सुभगे ) उत्तम भाग्यशालिन् ! ( अयम् वसिष्ठः ) यह उत्तम ब्रह्मचारी पुरुष (ते) तेरे लिये ( ऋतस्य द्वारौ ) सत्य ज्ञान, अन्न और धन के दोनों द्वारों को प्रकट करता है। हे (शुभ्रे) हे शुभ चरित्र, रूप, उज्ज्वलगुणों वाली ! हे सुशोभिते ! तू ( स्तुवते ) गुणों को प्रशंसा करने वाले अपने गुणग्राही जन को ( वाजान् ) अन्न, ऐश्वर्यादि ( रासि ) प्रदान कर । हे विद्वान् लोगो ! ( यूयं स्वस्तिभिः नः पात ) आप लोग उत्तम २ आशीर्वादों, शुभ कर्मों द्वारा हमें पाप कर्मों से बचाओ ।

    टिप्पणी

    इस सूक्त में सरस्वती, सरस्वान् देवता हैं। उत्तम ज्ञान का परम भण्डार परमेश्वर है इससे सरस्वती सरस्वान् नाम परमेश्वर के हैं । ( १ ) परमेश्वर सब विश्व को धारण करने वाला सर्वाश्रय होने से 'धरुण' है । पालक होने से 'पूः' है । महान् व्यापक होने से 'सिन्धु' है। सर्वत्र रक्षाकारी पोषक रूप से व्याप्त है, सब कष्टों को दूर करता है । (२) वह एक अद्वितीय, स्वच्छ, विमल, ( गिरिभ्यः ) उपदेष्टा गुरुजनों से हमें उपदेश द्वारा प्राप्त होता है । वह प्रकाश, अन्न सब को देता, सबको चेतना वा ज्ञान देता है । (३) सब सञ्चालक सूर्यादि शक्तियों में व्यापक होने से 'नर्य' सर्वत्र व्यापक होने से 'शिशु' सर्वप्रबन्धक होने से 'वृषा', सबको धारण करने, सुखवर्षक होने से 'वृषभ' है, वही सबको ऐश्वर्य देता है, उसको प्राप्त करने के लिये योगी अपने कर्म मन, आत्मा को शुद्ध करे । ( ४ ) सर्वैश्वर्यवान् होने से प्रभु 'सुभग' ( मितज्ञुभिः ) गोड़े सिकोड़ने या घुटने टेक बैठने वाले ( नमस्यैः ) भक्त जनों से उपासित होकर वह ऐश्वर्य, योग से सब अन्य आत्माओं से अधिक है । ( ५ ) वह प्रभु हमारी स्तुति स्वीकार करे और हम उसकी शरण, सुखमयी छाया में विश्राम लें ।

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    विषय

    स्त्री के कर्त्तव्य ५

    पदार्थ

    पदार्थ- हे (सरस्वति) विदुषि ! हे (सुभगे) = भाग्यशालिनि ! (अयम् वसिष्ठः) = यह ब्रह्मचारी (ते) = तेरे लिये (ऋतस्य द्वारौ) = सत्य ज्ञान, अन्न और धन के दो द्वारों को (व्यावः) = प्रकट करता है। हे (शुभ्रे) = शुभ चरित्रवाली ! तू (स्तुवते) = गुणप्रशंसक, गुणग्राही जन को (वाजान्) = ऐश्वर्यादि (रासि) = दे। हे विद्वान् लोगो! (यूयं स्वस्तिभिः न पात) = आप सदा ही उत्तम साधनों से हमारी रक्षा करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- विदुषी स्त्री द्वार पर भिक्षा के लिए आए हुए ब्रह्मचारी को सत्य, अन्न, धन व ज्ञान का दान करे। अपने चरित्र को उज्वल बनाकर अपने सौभाग्य को बढ़ावे । अगले सूक्त का ऋषि देवता यही हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Sarasvati, crystalline stream of the life and light of eternity, this sagely scholar in search of brilliance opens the double doors of truth, Rtam, the eternal law of the dynamics of existence, and Satyam, the world of existence living constant under the law at the levels of matter, energy and mind enveloping the spirit. O divinity of purity, power and excellence, grow and rise to manifest in the mind and spirit for the celebrant. You give the ultimate wealths and victories of the world. Pray come, arise and bless with the perennial flow. O Mother stream, O saints and sages, teachers and preachers, protect and promote us with all means and modes of happiness and well being all ways all time.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक विद्येची इच्छा बाळगतात व प्रतिदिन विद्येत रत असतात त्यांचे ब्रह्मविद्यारूपी यज्ञाचे दरवाजे उघडले जातात व त्यांना सर्व प्रकारचे सुख प्राप्त होते. ॥६॥

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