ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 98/ मन्त्र 6
तवे॒दं विश्व॑म॒भित॑: पश॒व्यं१॒॑ यत्पश्य॑सि॒ चक्ष॑सा॒ सूर्य॑स्य । गवा॑मसि॒ गोप॑ति॒रेक॑ इन्द्र भक्षी॒महि॑ ते॒ प्रय॑तस्य॒ वस्व॑: ॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । इ॒दम् । विश्व॑म् । अ॒भितः॑ । प॒श॒व्य॑म् । यत् । पश्य॑सि । चक्ष॑सा । सूर्य॑स्य । गवा॑म् । अ॒सि॒ । गोऽप॑तिः । एकः॑ । इ॒न्द्र॒ । भ॒क्षी॒महि॑ । ते॒ । प्रऽय॑तस्य । वस्वः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तवेदं विश्वमभित: पशव्यं१ यत्पश्यसि चक्षसा सूर्यस्य । गवामसि गोपतिरेक इन्द्र भक्षीमहि ते प्रयतस्य वस्व: ॥
स्वर रहित पद पाठतव । इदम् । विश्वम् । अभितः । पशव्यम् । यत् । पश्यसि । चक्षसा । सूर्यस्य । गवाम् । असि । गोऽपतिः । एकः । इन्द्र । भक्षीमहि । ते । प्रऽयतस्य । वस्वः ॥ ७.९८.६
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 98; मन्त्र » 6
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 6
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सूक्तसमाप्तौ परमात्मा ऐश्वर्य्यदातृत्वेन वर्ण्यते।
पदार्थः
हे भगवन् ! (तव, इदम्, विश्वम्) तवेदं दृश्यमानं भुवनमखिलं (अभितः) सर्वतः (पशव्यम्) हितमस्ति यतः (यत्, पश्यसि) त्वमेवास्य प्रकाशकः (चक्षसा) स्वतेजसा (सूर्यस्य) सूर्यस्यापि प्रकाशकश्च (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (एकः) केवल एकस्त्वं (गवाम्, असि) विभूतीनामाधारोऽसि (गोपतिः) विभूतीनामीश्वरोऽसि च (ते) तव (प्रयतस्य) दत्तस्य (वस्वः) धनादेः (भक्षीमहि) वयं भोक्तारो भवेम ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
जिस परमात्मा की कृपा से पूर्वोक्त विद्वान् उक्त ऐश्वर्य को प्राप्त होता है, अब सूक्त की समाप्ति में उसका वर्णन करते हैं।
पदार्थ
हे परमात्मन् ! (तव, इदम्, विश्वम्) तुम्हारा जो यह संसार है, यह (अभितः) सब ओर से (पशव्यम्) प्राणिमात्र का हितकर है, क्योंकि (यत्, पश्यसि) तुम इसके प्रकाशक हो (चक्षसा) और अपने तेज से आप (सूर्यस्य) सूर्य के भी प्रकाशक हैं, (इन्द्रः) “इन्दतीतीन्द्रः, इदि परमैश्वर्ये” हे परमात्मन् ! तुम (एकः) अकेले ही (गवाम्, असि) सब विभूतियों के आधार हो और (गोपतिः) सब विभूतियों के पति हो। (ते) तुम्हारा (प्रयतस्य) दिया हुआ (वस्वः) ऐश्वर्य (भक्षीमहि) हम भोगें ॥६॥
भावार्थ
हे परमात्मन् ! आप सम्पूर्ण विश्व के प्रकाशक हैं और आपका यह संसार प्राणिमात्र के लिये सुखदायक है, जो कुछ हम इसमें दुःखप्रद अर्थात् दुःखदायक देखते हैं, वह सब हमारे ही अज्ञान का फल है ॥६॥
विषय
पक्षान्तर में प्रभु की उपासना।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) परमैश्वर्यप्रद प्रभो ! राजन् ! ( यत् ) जो तू ( सूर्यस्य चक्षसा ) सूर्य के प्रकाश से ( पश्यसि ) देखता है, उसको प्रकाशित करता है, इसलिये ( इदं विश्वम् ) यह समस्त विश्व ( अभितः ) सब तरफ ( तव ) तेरे ही (पशव्यं) 'पशव्य' अर्थात् इन्द्रियों से देखने योग्य है । अथवा ( इदं ते विश्वं पशव्यं ) यह तेरा समस्त विश्व दर्शनीय है या पशु अर्थात् द्रष्टा, जीवों के भोगने योग्य है। अर्थात् तुझ द्रष्टा के ही अनुरूप है । तू ( गवाम् गोपतिः असि ) सब वाणियों, भूमियों और सूर्यादि लोकों का गौओं के पालक के समान स्वामी है। ( प्रयतस्य ) सर्वोत्कृष्ट नियन्ता और सञ्चालक तेरे ही दिये ( वस्वः ) ऐश्वर्य का हम ( भक्षीमहि ) भोग करें अथवा ( वस्वः प्रयतस्य ते भक्षीमहि ) सब में बसने वाले सर्वोत्कृष्ट यत्नवान् वा नियन्ता तेरा ही हम भजन करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ १–६ इन्द्रः। ७ इन्द्राबृहस्पती देवते। छन्द:— १, २, ६, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ५ त्रिष्टुप्॥ षड्चं सूक्तम्॥
विषय
गौपालक राजा
पदार्थ
पदार्थ- हे (इन्द्र) = प्रभो ! राजन् ! (यत्) = जो तू (सूर्यस्य चक्षसा) = सूर्य के प्रकाश से (पश्यसि) = देखता है, इसलिए (इदं विश्वन्) = यह समस्त (विश्व अभितः) = सब तरफ (तव) = तेरे ही (पशव्यं) ='पशव्य' अर्थात् इन्द्रियों से देखने योग्य है। तू (गवाम् गोपतिः असि) = सब वाणियों, भूमियों और सूर्यादि लोकों का गो पालक के समान स्वामी है। प्रयतस्य सर्वोत्कृष्ट सञ्चालक तेरे ही दिये (वस्वः) = ऐश्वर्य का हम (भक्षीमहि) = भोग करें।
भावार्थ
भावार्थ- राजा राष्ट्र में गौ- गाय, भूमि तथा वेदवाणी की रक्षा एवं पालन के कार्य राजा राष्ट्र के कल्याण की समस्त योजनाओं को स्वयं देखे और उन पर नियन्त्रण रखे।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, yours is all this living wealth around which you see under the light of sun. You are the sole master, possessor, ruler, protector and promoter of lands and cows and the lights of knowledge and culture of this earth. We ask of you and solicit wealths of the world for ourselves, because you are the giver.
मराठी (1)
भावार्थ
हे परमात्मा! तू संपूर्ण विश्वाचा प्रकाशक आहेस व तुझा हा संसार प्राणिमात्रासाठी सुखदायक आहे. जे काही आम्ही येथे दु:खप्रद किंवा दु:खदायक पाहतो ते सर्व आमच्या अज्ञानाचे फळ आहे. ॥६॥
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