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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 22/ मन्त्र 12
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ताभि॒रा या॑तं वृष॒णोप॑ मे॒ हवं॑ वि॒श्वप्सुं॑ वि॒श्ववा॑र्यम् । इ॒षा मंहि॑ष्ठा पुरु॒भूत॑मा नरा॒ याभि॒: क्रिविं॑ वावृ॒धुस्ताभि॒रा ग॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ताभिः॑ । आ । या॒त॒म् । वृ॒ष॒णा॒ । उप॑ । मे॒ । हव॑म् । वि॒श्वऽप्सु॑म् । वि॒श्वऽवा॑र्यम् । इ॒षा । मंहि॑ष्ठा । पु॒रु॒ऽभूत॑मा । न॒रा॒ । याभिः॑ । क्रिवि॑म् । व॒वृ॒धुः । ताभिः॑ । आ । ग॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ताभिरा यातं वृषणोप मे हवं विश्वप्सुं विश्ववार्यम् । इषा मंहिष्ठा पुरुभूतमा नरा याभि: क्रिविं वावृधुस्ताभिरा गतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ताभिः । आ । यातम् । वृषणा । उप । मे । हवम् । विश्वऽप्सुम् । विश्वऽवार्यम् । इषा । मंहिष्ठा । पुरुऽभूतमा । नरा । याभिः । क्रिविम् । ववृधुः । ताभिः । आ । गतम् ॥ ८.२२.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 22; मन्त्र » 12
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (वृषणा) हे कामप्रदौ (इषा) सर्वोपरि इच्छावन्तौ (मंहिष्ठा) पूजनीयतमौ (पुरुभूतमा) बहूनां परिभवितृतमौ (नरा) नेतारौ ! (विश्वप्सुम्) अनेकरूपम् (विश्ववार्यम्) सर्वैः काम्यम् (मे, हवम्, उप) ममाह्वानमभि (ताभिः, आयातम्) ताभी रक्षाभिरायातम् (याभिः) याभिश्च (क्रिविम्) कूपान् जात्यभिप्रायेणैकवचनम् (वावृधुः) निर्माय वर्धयथः (ताभिः) ताभी रक्षाभिः (आगतम्) आगच्छतम् ॥१२॥

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    विषयः

    राजकर्त्तव्यमाह ।

    पदार्थः

    हे वृषणा=वृषणौ=धनानां वर्षितारौ ! हे इषा=इषौ=इच्छावन्तौ ! हे मंहिष्ठा=अतिशयेन प्रशंसनीयौ ! हे पुरुभूतमा=अतिशयेन पुरुषु बहुषु स्थानेषु यौ भवतस्तौ पुरुभूतमौ=कार्यवशेन बहुषु जनेषु स्थानेषु वा गन्तारौ ! तथा । हे नरा=सर्वेषां नेतारौ राजानौ ! विश्वप्सुम्=विश्वरूपम्=बहुरूपम् । विश्ववार्य्यम्=विश्वैः सर्वैर्वरणीयं स्वीकरणीयमीदृशम् । मे=मम । हवमाह्वानम् । उपयातम् । ताभिरूतिभिः । आयातमागच्छतम् । पुनः । याभिरूतिभिः । क्रिविं ववृधुः । क्रिविः कूपः । तत्र पतितोऽपि क्रिविः । दुःखकूपे पतितं जनं प्रति वर्धेथे । ताभिरूतिभिः । अस्मानपि । आगतम्=आगच्छतम् ॥१२ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (वृषणा) हे कामों की वर्षा करनेवाले (इषा) सबको चाहनेवाले (मंहिष्ठा) अतिशय पूजनीय (पुरुभूतमा) अनेकों को परिभव प्राप्त करानेवाले (नरा) नेताओ ! आप (विश्वप्सुम्) अनेकरूपवाले (विश्ववार्यम्) सबके अभिलषित (मे, हवम्, उप) मेरे आह्वान के समीप (ताभिः, आयातम्) उन पूर्वोक्त रक्षाओं सहित (याभिः) जिन रक्षाओं से (क्रिविम्) कूपादि जलाशयों को निर्माण करके (वावृधुः) बढ़ाते हैं (ताभिः) उन रक्षाओं सहित (आगतम्) आवें ॥१२॥

    भावार्थ

    कूप तड़ागादि जलाशयों को निर्माण कर प्रजाओं को सुख देनेवाले, प्रजाओं की शुभ कामनाओं को पूर्ण करनेवाले, कतिपय प्रजाजनों को ऐश्वर्य्यशाली बनानेवाले और यज्ञों का सर्वत्र प्रचार तथा विस्तार करनेवाले न्यायाधीश तथा सेनाधीश ! हम स्तुतिपूर्वक आपको आह्वान करते हैं, आप हमारे यज्ञ में सम्मिलित हों ॥१२॥

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    विषय

    राजकर्त्तव्य का उपदेश देते हैं ।

    पदार्थ

    (वृषणा) हे नाना धनों के वर्षिता ! (इषा) हे अभिलाषयुक्त (मंहिष्ठा) हे प्रशंसनीय वा दाता ! (पुरुभूतमा) हे कार्य्य के लिये बहुत स्थानों में वा मनुष्यों के मध्य में जाने-आनेवाले (नरा) हे सर्वनेता राजन् तथा मन्त्रिदल ! (मे) मेरे (विश्वप्सुम्) विविधरूपवाले (विश्ववार्य्यम्) सर्वप्रिय (हवम्) आह्वान की ओर (उप+यातम्) आवें और (ताभिः) उन रक्षाओं के साथ (आयातम्) आवें । हे राजन् ! (क्रिविम्) दुःखकूप में पतित जन के प्रति (याभिः) जिन रक्षाओं के साथ (ववृधुः) जाने के लिये आगे बढ़ते हैं, (ताभिः) उन रक्षाओं के साथ ही हमारी ओर (आगतम्) आवें ॥१२ ॥

    भावार्थ

    राज्यकर्मचारी परमोदार परमदानी और सर्वप्रिय होवें और प्रजा की रक्षा के लिये सदा तत्पर रहें ॥१२ ॥

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    विषय

    अन्यान्य नाना कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( वृषणा ) बलवान्, सुखों की वृष्टि करने वाले मेघ पवनचत् स्त्री पुरुषो ! आप लोग ( विश्व-प्सुं ) नाना रूप के ( विश्ववार्यं ) सब साधनों से सम्पन्न, सब कष्टों के वारण करने वाले, ( मे हवं ) मेरे यज्ञ को आप ( ताभिः ) उन शक्तियों सहित ( आयातम् ) आवो ( याभिः ) जिनसे आप दोनों ( इषा ) इच्छावान्, ( मंहिष्ठा ) दानशील ( पुरुभूतमा ) अधिक सामर्थ्यवान् ( नरा ) नायक होकर ( क्रिविं वावृधुः ) शत्रुनाशक स्वामी की वृद्धि करते हो, ( ताभिः ) उन सहित ही (आ गतम् ) हमारे पास भी आवो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    निचृत पंक्ति:। ४, १० सतः पंक्तिः। २४ भुरिक पंक्ति:। ८ अनुष्टुप्। ९,११, १७ उष्णिक्। १३ निचुडुष्णिक्। १५ पादनिचृदुष्णिक्। १२ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'हवं [विश्वासुं विश्ववार्यम्]' आयातम्

    पदार्थ

    [१] हे (वृषणा) = शक्तिशाली प्राणापानो! आप (ताभिः) = उन रक्षणों के साथ (मे हवम्) = मेरी पुकार को सुनकर (उप आयातम्) = मुझे समीपता से प्राप्त होवो। यह पुकार [ प्रार्थना] ही तो (विश्वप्सुम्) = सब सुन्दर रूपोंवाली व (विश्ववार्यम्) = सब वरणीय वस्तुओंवाली है। प्रार्थना से ही तो मैं सब अंग-प्रत्यंगों को सुरूप बना सकूँगा, यह प्रार्थना ही मेरे लिये सब वरणीय वस्तुओं को प्राप्त करानेवाली होगी। [२] (इषा) = प्रभु प्रेरणा के द्वारा (नरा) = आप हमें उन्नतिपथ पर ले चलनेवाले हो। इस प्रकार (मंहिष्ठा) = हमारे लिये सर्वमहान् दाता हो और (पुरुभूतमा) = अधिक से अधिक शत्रुओं का पराभव करनेवाले हो । हे प्राणापानो! (याभिः) = जिन रक्षणों से (क्रिविम्) = क्रियाशील व्यक्ति को (वावृधुः) = आप बढ़ाते हो (ताभिः) = उन रक्षणों से (आगतम्) = आप हमें प्राप्त होवो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- मेरी प्रार्थना के साथ हे प्राणापानो! आप मुझे प्राप्त होवो। आप प्रार्थनाशील व क्रियाशील को प्राप्त होते ही हो।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ashvins, leading lights of humanity, virile harbingers of showers of health and life’s joy, listen to my manifold and persistent invocation expressive of universal love and devotion and come. Most generous and exceedingly rich all round universal presences, come with those foods and medications for recuperative energies by which you revive and strengthen the man fallen into utter depression. With those protective and promotive sanatives, pray, come in response to my call.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राज्य कर्मचारी अत्यंत उदार अत्यंत दानी व सर्वप्रिय असतील तर त्यांनी प्रजेच्या रक्षणासाठी सदैव तत्पर असावे. ॥१२॥

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