ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 22/ मन्त्र 7
उप॑ नो वाजिनीवसू या॒तमृ॒तस्य॑ प॒थिभि॑: । येभि॑स्तृ॒क्षिं वृ॑षणा त्रासदस्य॒वं म॒हे क्ष॒त्राय॒ जिन्व॑थः ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । नः॒ । वा॒जि॒नी॒व॒सू॒ इति॑ वाजिनीऽवसू । या॒तम् । ऋ॒तस्य॑ । प॒थिऽभिः॑ । येभिः॑ । तृ॒क्षिम् । वृ॒ष॒णा॒ । त्रा॒स॒द॒स्य॒वम् । म॒हे । क्ष॒त्राय॑ । जिन्व॑थः ॥
स्वर रहित मन्त्र
उप नो वाजिनीवसू यातमृतस्य पथिभि: । येभिस्तृक्षिं वृषणा त्रासदस्यवं महे क्षत्राय जिन्वथः ॥
स्वर रहित पद पाठउप । नः । वाजिनीवसू इति वाजिनीऽवसू । यातम् । ऋतस्य । पथिऽभिः । येभिः । तृक्षिम् । वृषणा । त्रासदस्यवम् । महे । क्षत्राय । जिन्वथः ॥ ८.२२.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 22; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(वाजिनीवसू) हे सेनाधनौ ! (ऋतस्य, पथिभिः) यज्ञार्थसज्जितमार्गैः (नः, उपयातम्) अस्मानागच्छतम् (वृषणा) हे कामानां वर्षितारौ (येभिः) येभिर्मार्गैः (तृक्षिम्) गमनशीलमुद्योगिनम् “तृक्ष गतौ भ्वा. प. से.” (त्रासदस्यवम्) त्रसदस्युसन्ततिम् (महे, क्षत्राय) महते ऐश्वर्याय (जिन्वथः) प्रीणयथः ॥७॥
विषयः
पुनरपि राजकर्त्तव्यमाह ।
पदार्थः
हे वाजिनीवसू ! बुद्धिर्विद्या वाणिज्या यागक्रिया अन्नमित्यादि वाजिनी । सैव वसूनि धनानि ययोस्तौ । युवाम् । ऋतस्य=सत्यस्य । पथिभिः=मार्गैः । सत्यस्य पथो विस्तारयन्तौ सन्तौ नोऽस्मान् । उपयातम्=उपगच्छतम् । हे वृषणा=वृषणौ=कामानां वर्षितारौ ! त्रासदस्यवम्= दस्युविघातकम् । तृक्षिम्=सेनानायकम् । महे=महते । क्षत्राय= क्षत्रधर्मवृद्ध्यै । येभिर्यैर्मार्गैः । जिन्वथः=प्रीणयथः ॥७ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(वाजिनीवसू) हे सेनारूप धनवाले ! (ऋतस्य, पथिभिः) यज्ञ के लिये सज्जित मार्गों से (नः, उपयातम्) आप हमारे समीप आवें (येभिः) जिन सुरक्षित मार्गों से (तृक्षिम्) गमनशील=उद्योगी मनुष्य (त्रासदस्यवम्) दस्युओं को भयभीत करनेवालों के कुल को (महे, क्षत्राय) महती समृद्धि के लिये (जिन्वथः) उत्साहित करते हैं ॥७॥
भावार्थ
हे महती सेना से सुसज्जित न्यायाधीश तथा सेनाधीश ! आप कर्मजीवी पुरुषों की दस्युओं से रक्षा करनेवाले तथा सम्पूर्ण प्रजा को समृद्धिशाली बनानेवाले हैं। आप सम्पूर्ण प्रजा को उत्साहसम्पन्न करें, ताकि सब याज्ञिक कर्मों में प्रवृत्त होकर अपने कार्यों को विधिवत् पूर्ण करते हुए ऐश्वर्य्यशाली हों ॥७॥
विषय
पुनः राजकर्त्तव्य कहते हैं ।
पदार्थ
(वाजिनीवसू) बुद्धि, विद्या, वाणिज्या, यागक्रिया और अन्न आदि वाजिनी कहलाते हैं, वे ही धन हैं, जिनको वे वाजिनीवसु अर्थात् हे बुद्ध्यादिधन राजन् तथा अमात्यदल ! (ऋतस्य) सत्य के (पथिभिः) मार्गों से अर्थात् सत्यपथों का विस्तार करते हुए आप (नः) हम लोगों के (उप+यातम्) निकट आवें (वृषणा) हे धनादिवर्षाकारी ! (येभिः) जिन मार्गों से (त्रासदस्यवम्) दस्युविघातक (तृक्षिम्) सेनानायक को (महे) महान् (क्षत्राय) क्षत्रधर्म की वृद्धि के लिये (जिन्वथः) प्रसन्न रखते हैं ॥७ ॥
भावार्थ
मन्त्रिदलसहित राजा सदा सत्यमार्ग की समुन्नति करता रहे और पक्षपात छोड़ सबकी भलाई के चिन्तन, वर्धन और रक्षण में तत्पर रहे ॥७ ॥
विषय
कृषि का उपदेश।
भावार्थ
हे ( वाजिनी-वसू ) ज्ञानवाली, बलवती, और अन्नवती, बुद्धि, सेना और कृषि रूप धन के धनी स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ( येभिः ) जिन ( ऋतस्य पथिभिः ) सत्य, ज्ञान, और न्याय के प्राप्त कराने वाले उपायों से ( त्रासदस्यवं ) भयभीत शत्रुओं को उखाड़ने और दुष्टों को भय देने वाले सैन्य बल के नायक ( तृक्षिं ) विजिगीषु नायक को ( महे क्षत्राय ) बड़े भारी धन बल को प्राप्त करने के लिये ( जिन्वथः ) बढ़ा सकते हो, आप दोनों ( वृषणा ) बलवान् होकर उन ही ( ऋतस्य पथिभिः ) सत्य, न्यायादि मार्गों से ( नः उप यातम् ) हमें प्राप्त होवो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरिः काण्व ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१ विराङ् बृहती। ३, ४ निचृद् बृहती। ७ बृहती पथ्या। १२ विराट् पंक्ति:। ६, १६, १८ निचत पंक्ति:। ४, १० सतः पंक्तिः। २४ भुरिक पंक्ति:। ८ अनुष्टुप्। ९,११, १७ उष्णिक्। १३ निचुडुष्णिक्। १५ पादनिचृदुष्णिक्। १२ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
ऋत का मार्ग व बल वृद्धि
पदार्थ
[१] हे (वाजिनीवसू) = [ वाजिनी = अन्न] अन्न ही है धन जिनका अथवा शक्तिरूप धनवाले [वाजिनं] प्राणापानो! आप (ऋतस्य पथिभिः) = ऋत से मार्गों के हेतु से (नः) = हमारे (उप यातम्) = समीप प्राप्त होवो। प्राणसाधना के द्वारा दोषों का दहन होकर मनुष्य ऋत के मार्ग को अपनानेवाला बनता है। [२] उन ऋत के मार्गों के हेतु से आप हमें प्राप्त होवो (येभिः) = जिन के द्वारा (तृक्षिम्) = इस गतिशील पुरुष को (त्रासदस्यवम्) = गतिशीलता के कारण सब बुराइयाँ जिससे भयभीत होकर दूर रहती हैं, इस पुरुष को, हे (वृषणा) = शक्तिशाली प्राणापानो! आप (महे क्षत्राय) = महान् बल के लिये (जिन्वथः) = प्रीणित करते हो।
भावार्थ
भावार्थ-प्राणसाधना से दोषों का दहन होकर मनुष्य ऋत के मार्ग पर चलता है। इस प्रकार ऋत के मार्ग पर चलने से उसके जीवन में महान् बल की वृद्धि होती है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Generous and victorious lords of strength and progress, come to us by those paths of truth and righteousness by which, O brilliant harbingers of rain showers of prosperity, you strengthen and empower the high command of the nation to maintain the splendour of the nation’s social order and keep down the forces of violence and terror in peace and submission.
मराठी (1)
भावार्थ
मंत्रिमंडळासहित राजाने सदैव सत्यमार्गाने उन्नती करावी व भेदभाव सोडून सर्वांच्या हिताचे चिंतन, वर्धन व रक्षण करण्यात तत्पर असावे. ॥७॥
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