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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 22/ मन्त्र 18
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    सु॒प्रा॒व॒र्गं सु॒वीर्यं॑ सु॒ष्ठु वार्य॒मना॑धृष्टं रक्ष॒स्विना॑ । अ॒स्मिन्ना वा॑मा॒याने॑ वाजिनीवसू॒ विश्वा॑ वा॒मानि॑ धीमहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽप्रा॒व॒र्गम् । सु॒ऽवीर्य॑म् । सु॒ष्ठु । वार्य॑म् । अना॑धृष्टम् । र॒क्ष॒स्विना॑ । अ॒स्मिन् । आ । वा॒म् । आ॒ऽयाने॑ । वा॒जि॒नी॒व॒सू॒ इति॑ वाजिनीऽवसू । विश्वा॑ । वा॒मानि॑ । धी॒म॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुप्रावर्गं सुवीर्यं सुष्ठु वार्यमनाधृष्टं रक्षस्विना । अस्मिन्ना वामायाने वाजिनीवसू विश्वा वामानि धीमहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽप्रावर्गम् । सुऽवीर्यम् । सुष्ठु । वार्यम् । अनाधृष्टम् । रक्षस्विना । अस्मिन् । आ । वाम् । आऽयाने । वाजिनीवसू इति वाजिनीऽवसू । विश्वा । वामानि । धीमहि ॥ ८.२२.१८

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 22; मन्त्र » 18
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (वाजिनीवसू) हे सेनाधनौ सेनापतिन्यायाधीशौ ! (सुप्रावर्गम्) सुखेन प्रवर्जनीयम् (सुवीर्यम्) शोभनवीर्यम् (सुष्ठु, वार्यम्) सुखेन वरणीयम् (रक्षस्विना) क्रूरेणापि (अनाधृष्टम्) न आधर्षणीयम् ईदृशं धनम् (विश्वा, वामानि) सकलवननीयपदार्थांश्च (अस्मिन्, वाम्, आयाने) इदानीन्तने युवयोरागमने (आधीमहि) आधारयेम, “धीङ् श्लेषणे लिङ् छान्दसो विकरणलुक्” ॥१८॥ इति द्वाविंशतितमं सूक्तमष्टमो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    विषयः

    पुनस्तदनुवर्तते ।

    पदार्थः

    हे अश्विनौ राजानौ ! अस्माकम् । वार्य्यम्=वरणीयं धनमीदृशं भवतु । कीदृशम् । सुप्रावर्गम्=सुप्रवर्जनीयम्=दातव्यम् । सुवीर्यम्=शोभनवीरोपेतम्=सुष्ठु दर्शनीयम् । पुनः । रक्षस्विना= बलवताऽपि । अनाधृष्टमधर्षणीयम् । हे वाजिनीवसू= विज्ञानधनौ ! वाम्=युवयोः । अस्मिन्+आयाने=अस्माकं गृहं प्रति आगमने सति । विश्वाः=विश्वानि सर्वाणि । वामानि=वननीयानि=धनानि । वयम् । आधीमहि=लभामहे । धीङ् आधारे ॥१८ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (वाजिनीवसू) हे सेनारूप धनवाले सेनाधीश तथा न्यायाधीश ! (सुप्रावर्गम्) सुख से दिये गये (सुवीर्यम्) सुन्दर पराक्रम उत्पन्न करनेवाले (सुष्ठु, वार्यम्) सुखसे भोगने योग्य तथा (रक्षस्विना) राक्षस स्वभाववाले मनुष्यों से भी (अनाधृष्टम्) धर्षण न पाने योग्य धन को और (विश्वा, वामानि) सकल भोगार्थ पदार्थों को (अस्मिन्, वाम्, आयाने) इस आपके आगमन में (आधीमहि) हम धारण करें ॥१८॥

    भावार्थ

    हे सेनारूप बल से युक्त न्यायाधीश तथा सेनाधीश ! आपके आगमनकाल में प्राप्त हुए धन तथा अन्य भोग्य पदार्थों को हम लोग सुखपूर्वक भोगें, जिससे पराक्रमसम्पन्न होकर कठिन से कठिन प्रजाहितकारक कार्यों को अनायास पूर्ण करें ॥१८॥ तात्पर्य्य यह है कि जिस देश के नेता विद्वान्, बुद्धिमान्, पराक्रमी तथा सदाचारसम्पन्न होते हैं, वहाँ सदैव आनन्द, उत्साह और यज्ञादि कर्मों द्वारा धर्म, धन तथा सब प्रकार का ऐश्वर्य्य प्राप्त होता है, अतएव उचित है कि ऐश्वर्य्य की कामनावाले पुरुष सदैव यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त रहें, यह मनुष्यमात्र को वेद का आदेश है ॥ यह बाईसवाँ सूक्त और आठवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    पुनः वही विषय आ रहा है ।

    पदार्थ

    हे राजन् तथा मन्त्रिवर्ग ! हम लोगों का (वार्य्यम्) धन (सुप्रावर्गम्) अच्छे प्रकार दान देने योग्य होवे (सुवीर्यम्) शोभन वीरपुरुषयुक्त हो (सुष्ठु) देखने में भी सुन्दर हो और जिस धन को (रक्षस्विना) बलवान् भी (अनाधृष्टम्) नष्ट-भ्रष्ट न कर सके (वाजिनीवसू) हे विज्ञानधनो ! (वाम्) आप लोगों के (अस्मिन्+आयाने) इस आगमन के होने से (विश्वा+वामनि) हम लोगों ने मानो सब धन (आ+धीमहि) पा लिये ॥१८ ॥

    भावार्थ

    राज्य की ओर से यदि रक्षा का प्रबन्ध नहीं, तो समस्त अज्ञानी प्रजाएँ परस्पर लड़-२ कर नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ । अतः राजप्रबन्धकर्ता सब प्रकार का प्रबन्ध प्रतिक्षण रक्खें ॥१८ ॥

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    विषय

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    भावार्थ

    हे ( वाजिनी-वसू ) ज्ञान, बल, अन्न ऐश्वर्यादियुक्त, विद्या, सेना, कृषि, राज्यलक्ष्मी आदि के धनी स्त्री पुरुषो ! हम लोग ( रक्षस्विना अनाधृष्टं ) 'रक्षस्' अर्थात् नाना दुष्ट जनों के सर्दार द्वारा भी बलात्कार से न पराजित होने वाला ( सुष्ठु ) ऊत्तम ( वार्यं ) धन और ( सु-प्रावर्गं ) शत्रुओं को वर्जन करने वाला ( सु-वीर्यं ) उत्तम बल युक्त, सैन्य और ( वाम् आयाने ) आप दोनों के आजाने पर ( अस्मिन् ) इस राष्ट्र में ( विश्वा वामानि ) समस्त उत्तम पदार्थ हम लोग ( आ धीमहि ) धारण करें। इत्यष्टमा वर्गः॥

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१ विराङ् बृहती। ३, ४ निचृद् बृहती। ७ बृहती पथ्या। १२ विराट् पंक्ति:। ६, १६, १८ निचृत पंक्ति:। ४, १० सतः पंक्तिः। २४ भुरिक पंक्ति:। ८ अनुष्टुप्। ९,११, १७ उष्णिक्। १३ निचुडुष्णिक्। १५ पादनिचृदुष्णिक्। १२ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    सुवीर्यम्-विश्वा वामानि

    पदार्थ

    [१] (अस्मिन्) = इस (वाम्) = आपके (आयाने) = आने पर हम (सुवीर्यम्) = उत्तम वीर्य का (धीमहि:) = धारण करें। जो (सुप्रावर्गम्) = सम्यक् शत्रुओं का वर्जन करनेवाला है । (सुष्ठु) = अच्छी प्रकार (वार्यम्) = वरने के योग्य है। रक्षस्विना (अनाधृष्टम्) = प्रबल राक्षसी भावों से भी न धर्षणीय है । [२] हे (वाजिनीवसू) = शक्तिरूप धनवाले प्राणापानो! हम आपके आने पर (विश्वाः) = सब वामानि सुन्दर वस्तुओं को [ आधीमहि ] सर्वथा धारण करनेवाले हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना के द्वारा हम उत्तम वीर्य [शक्ति] तथा सब सुन्दर वस्तुओं को धारण करनेवाले बनें। सो यह सुवीर्य को धारण करनेवाला व्यक्ति अत्यन्त उत्कृष्ट इन्द्रियरूप अश्वोंवाला बनता है, 'वैयश्व' कहलाता है। सबके प्रति सह अनुभूति [sympathy] वाला होने से यह 'विश्वमनाः ' नामवाला होता है। यह 'अग्नि' नाम से प्रभु का स्मरण करता हुआ कहता है कि-

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ashvins, lords of wealth, power and victory, may we, upon this happy arrival of yours receive, value and meditate upon all the beauties and treasures of the world of distinguished wealth spontaneously given, creative and energetic, highly lovable and unchallenge able even by the demonic strong as our prize possession.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाकडून जर रक्षणाचा प्रबंध न झाला तर संपूर्ण अज्ञानी प्रजा परस्पर संघर्ष करून नष्ट-भ्रष्ट होईल. राजप्रबंधकर्त्याने सर्व प्रकारचा प्रबंध करावा. ॥१८॥

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