ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 42/ मन्त्र 4
ऋषिः - नाभाकः काण्वः अर्चानाना वा
देवता - अश्विनौ
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
आ वां॒ ग्रावा॑णो अश्विना धी॒भिर्विप्रा॑ अचुच्यवुः । नास॑त्या॒ सोम॑पीतये॒ नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥
स्वर सहित पद पाठआ । वा॒म् । ग्रावा॑णः । अ॒श्वि॒ना॒ । धी॒भिः । विप्राः॑ । अ॒चु॒च्य॒वुः॒ । नास॑त्या । सोम॑ऽपीतये । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वां ग्रावाणो अश्विना धीभिर्विप्रा अचुच्यवुः । नासत्या सोमपीतये नभन्तामन्यके समे ॥
स्वर रहित पद पाठआ । वाम् । ग्रावाणः । अश्विना । धीभिः । विप्राः । अचुच्यवुः । नासत्या । सोमऽपीतये । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.४२.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 42; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Ashvins, complementary powers of vision and action, teacher and ruler, dedicated to truth and truth alone, to you repair the scholar and the maker of soma with their intelligence, will and wisdom so that they may have a taste of the soma of knowledge and wisdom, and piety. May all fears insecurities and enmities be eliminated.
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वानांवर जर कोणते संकट आले तर राजा व अमात्य इत्यादी राज्यप्रबंधकर्त्याजवळ जावे व त्यांच्याकडून साह्य घेऊन संपूर्ण विघ्ने नष्ट करावीत. ॥४॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे नासत्या=नासत्यौ=असत्यरहितौ शुद्धौ । अश्विना=अश्वयुक्तौ राजामात्यौ । ग्रावाणः=निष्पापाः । यद्वा पाषाणवत् स्वकर्मणि निश्चला दृढा पुनः धीभिः संयुक्ताः । इमे विप्राः । सोमपीतये=सोमानां गोधूमादिपदार्थानां भोगाय । वां=युवाम् । आ+अचुच्यवुः=अभिगच्छन्ति । समे=सर्वे । अन्यके=अन्ये शत्रवः । नभन्ताम्=नश्यन्तु ॥४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(नासत्या) हे असत्यरहित शुद्ध (अश्विना) अश्वयुक्त राजा और अमात्यगण ! (ग्रावाणः) निष्पाप या पाषाणवत् स्वकर्म में निश्चल और दृढ़ और (धीभिः) बुद्धियों से संयुक्त (विप्राः) ये मेधाविगण ! (सोमपीतये) जौ, गेहूँ, धान आदि पदार्थों को सुखपूर्वक भोगने के लिये (वाम्) आप लोगों के निकट (आ+अचुच्यवुः) पहुँचते हैं, (समे) सब (अन्यके) शत्रु (नभन्ताम्) नष्ट हो जाएँ ॥४ ॥
भावार्थ
विद्वानों के ऊपर भी यदि कोई आपत्ति आवे तो वे भी राजा और अमात्यादि राज्य प्रबन्धकर्त्ताओं के निकट जावें और उनसे साहाय्य लेकर निखिल विघ्नों को नष्ट करें ॥४ ॥
विषय
स्त्री पुरुषों को उपदेश।
भावार्थ
हे ( नासत्या ) सदा सत्य का आचरण करने और सदा सत्य ज्ञान का ही उपदेश देने वाले ( अश्विना ) जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषो ! ( वां ) आप दोनों ( ग्रावाणः ) उत्तम उपदेष्टा, ( विप्राः ) विद्वान् पुरुष ( सोमपीतये ) उत्तम ज्ञानरस का पान करने के लिये ( धीभिः ) बुद्धियों और सत्कर्मों सहित ( अचुच्यवुः ) प्राप्त होवें। ( अन्यके समे नभन्ताम् ) आप सब दुर्बुद्धि जन नष्ट होवें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नाभाक: काण्वोऽर्चनाना वा। अथवा १ – ३ नाभाकः काण्वः। ४–६ नाभाकः काण्वोऽर्चनाना वा ऋषयः॥ १—३ वरुणः। ४—६ अश्विनौ देवते। छन्दः—१—३ त्रिष्टुप्। ४—६ अनुष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥
विषय
ग्रावाणः + विप्रः
पदार्थ
[१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! (वां) = आपकी (ग्रावाणः) = स्तुति की वाणियों का उच्चारण करनेवाले (विप्राः) = ज्ञानी लोग (धीभिः) = ज्ञानपूर्वक किये जानेवाले कर्मों के हेतु से (आ अचुच्यवुः) = सर्वथा प्राप्त होते हैं, आपकी ओर आते हैं। प्राणापान की साधना ही वस्तुतः हमें 'ग्रावा व विप्र' बनाती है। इस साधना से ही हम ज्ञानपूर्वक किये जानेवाले यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। [२] हे (नासत्या) = सब असत्यों को दूर करनेवाले प्राणापानो! आप (सोमपीतये) = शरीर में सोम के पान के लिए होते हो। आपके द्वारा ही शरीर में सोम का रक्षण होता है। इस सोमरक्षण के होने पर (समे) = सब (अन्यके) = शत्रु (नभन्ताम्) = नष्ट हो जाएँ।
भावार्थ
भावार्थ- हम स्तुति व ज्ञान में प्रवृत्त हुए हुए प्राणसाधना को करनेवाले बनें। यह साधना शरीर में सोम का रक्षण करती हुई हमारे काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं का विनाश करती है।
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