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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 59 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 59/ मन्त्र 5
    ऋषिः - सुपर्णः काण्वः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    अवो॑चाम मह॒ते सौभ॑गाय स॒त्यं त्वे॒षाभ्यां॑ महि॒मान॑मिन्द्रि॒यम् । अ॒स्मान्त्स्वि॑न्द्रावरुणा घृत॒श्चुत॒स्त्रिभि॑: सा॒प्तेभि॑रवतं शुभस्पती ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अवो॑चाम । म॒ह॒ते । सौभ॑गाय । स॒त्यम् । त्वे॒षाभ्या॑म् । म॒हि॒मान॑म् । इ॒न्द्रि॒यम् । अ॒स्मान् । सु । इ॒न्द्रा॒व॒रु॒णा॒ । घृ॒त॒ऽश्चुतः॑ । त्रिऽभिः॑ । सा॒प्तेभिः॑ । अ॒व॒त॒म् । शु॒भः॒ । प॒ती॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवोचाम महते सौभगाय सत्यं त्वेषाभ्यां महिमानमिन्द्रियम् । अस्मान्त्स्विन्द्रावरुणा घृतश्चुतस्त्रिभि: साप्तेभिरवतं शुभस्पती ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अवोचाम । महते । सौभगाय । सत्यम् । त्वेषाभ्याम् । महिमानम् । इन्द्रियम् । अस्मान् । सु । इन्द्रावरुणा । घृतऽश्चुतः । त्रिऽभिः । साप्तेभिः । अवतम् । शुभः । पती इति ॥ ८.५९.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 59; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    We speak and celebrate, for the sake of great goodness and prosperity, the truth, grandeur and power, honour and excellence received from the mighty and magnificent Indra and Varuna. O Indra and Varuna, gracious and benevolent protectors of the greatness and goodness of life, protect and promote us by the sevenfold voice of the seven sisters and seven sages at the three levels of body, mind and soul.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पृथ्वी, जल, अग्नी, वायू, विराट्, परमाणू, प्रकृती या सात चा एक समूह आहे. दुसरा समूह - नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनंजय, इच्छा व प्रयत्नाचा आहे. पाच प्राण मन व बुद्धीचा तिसरा सात समूह आहे. परमेश्वराद्वारे प्रदत्त या साधनांना समुचित रीतीने प्रयुक्त करणारा साधक शक्तिवान, न्यायप्रिय व स्नेही बनून सर्वांचे पालन करतो. ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (इन्द्रावरुणौ) शक्ति, न्याय व स्नेह के प्रतीक दिव्यगुणियो! (महते सौभगाय) महान् सौभाग्य हेतु (त्वेषाभ्यां) बल व न्यायदीप्ति से प्रतापवान् तुम दोनों के द्वारा सत्य यथार्थ (महिमानम्) महत्त्वपूर्ण (इन्द्रियम्) प्रभु प्रदत्त सर्वसुख के साधन का (अवोचाम) उपदेश हम पाते हैं। (शुभस्पती) कल्याणकारी सुखों के द्वारा पालन करने वाले तुम दोनों (घृतश्चुतः) तेजस्वी (अस्मान्) हमें (त्रिभिः साप्तेभिः) सात-सात के तीन समूहों द्वारा (अवतम्) अपने संरक्षण में लो॥५॥

    भावार्थ

    पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, विराट्, परमाणु, प्रकृति--इन सात का एक समूह है, दूसरा समूह है--नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय, इच्छा और प्रयत्न का। पाँच प्राणों, मन व बुद्धि का तीसरा सप्त समूह है। परमेश्वर द्वारा प्रदत्त इन साधनों को उचित रीति से प्रयुक्त करने वाला साधक शक्तिशाली, न्यायशील एवं साथ ही स्नेही बनकर सब को पालता है॥५॥

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    विषय

    गुरु और आचार्य के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( महते सौभगाय ) बड़े भारी सुखप्रद ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये ( त्वेषाभ्याम् ) दीप्तियुक्त, तेजस्वी, इन्द्र और वरुण, विद्युत् और जलवत् शत्रु नाशक और दुःखवारक जनों के ( सत्यं महिमानम् ) सच्चे महत्व और सच्चे ( इन्द्रियम् ) ऐश्वर्य की ( अवोचाम ) हम स्तुति करें। हे ( शुभः-पती ) शुभ गुणों और कर्मों के पालको ! आप दोनों (त्रिभिः सप्तेभिः ) ३ ᳵ ७ = २१ तत्वों से ( घृत श्रुतः ) जलप्रद, वा घृताहुति देने वाले (अस्मान् ) हम लोगों का सूर्य जल, वा विद्युत् जल के समान ( सु अवतम् ) सदा अच्छी प्रकार रक्षा करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सुपर्णः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रावरुणौ देवते॥ छन्दः—१ जगती। २, ३ निचृज्जगती। ४, ५, ७ विराड् जगती। ६ त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'शुभस्पती' इन्द्रावरुणा

    पदार्थ

    [१] हम (महते सौभगाय) = महान् सौभाग्य की प्राप्ति के लिए (त्वेषाभ्यां) = दीप्त इन्द्र और वरुण के लिए जितेन्द्रियता व निर्देषता के भावों के लिए (सत्यं महिमानं) = सच्ची सत्य महिमा को तथा (इन्द्रियं) = इनके बल को (अवोचाम) = स्तुतिरूप में कहते हैं । इन्द्र और वरुण के महत्त्व व बल को समझते हुए इनका धारण करते हैं और परिणामतः महान् सौभाग्यवाले होते हैं। [२] हे (इन्द्रावरुणा) = जितेन्द्रियता व निर्देषता के भावो ! (घृतश्चुतः) = अपने में ज्ञानदीप्ति को क्षरित करनेवाले (अस्मान्) = हम लोगों को आप (त्रिभिः) = आध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक रूप से तीन प्रकार के अर्थोंवाली (साप्तेभिः) = सप्त छन्दोमयी वेदवाणियों के द्वारा (अवतम्) = रक्षित करो। आप ही तो (शुभस्पती) = सब शुभ बातों का रक्षण करनेवाले हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- जितेन्द्रियता व निर्देषता के महत्त्व को हम समझें। ये दिव्यभाव ही हमारे अन्दर सब शुभ बातों का रक्षण करेंगे।

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