ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 59/ मन्त्र 6
ऋषिः - सुपर्णः काण्वः
देवता - इन्द्रावरुणौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इन्द्रा॑वरुणा॒ यदृ॒षिभ्यो॑ मनी॒षां वा॒चो म॒तिं श्रु॒तम॑दत्त॒मग्रे॑ । यानि॒ स्थाना॑न्यसृजन्त॒ धीरा॑ य॒ज्ञं त॑न्वा॒नास्तप॑सा॒भ्य॑पश्यम् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑वरुणा । यत् । ऋ॒षिऽभ्यः॑ । म॒नी॒षाम् । वा॒चः । म॒तिम् । श्रु॒तम् । अ॒द॒त्त॒म् । अग्रे॑ । यानि॑ । स्थाना॑नि । अ॒सृ॒ज॒न्त॒ । धीराः॑ । य॒ज्ञम् । त॒न्वा॒नाः । तप॑सा । अ॒भि । अ॒प॒श्य॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रावरुणा यदृषिभ्यो मनीषां वाचो मतिं श्रुतमदत्तमग्रे । यानि स्थानान्यसृजन्त धीरा यज्ञं तन्वानास्तपसाभ्यपश्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रावरुणा । यत् । ऋषिऽभ्यः । मनीषाम् । वाचः । मतिम् । श्रुतम् । अदत्तम् । अग्रे । यानि । स्थानानि । असृजन्त । धीराः । यज्ञम् । तन्वानाः । तपसा । अभि । अपश्यम् ॥ ८.५९.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 59; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 31; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 31; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra and Varuna, divine powers of vigour and intelligence, judgement and imagination, what words of knowledge and thoughts of wisdom by virtue of meditation, study and speech you gave to the sages of vision earlier, and what orders of discovery and invention through yajnic extension of research, the patient, persistent sages achieved later, all these, with my austere discipline of study and application, let me see and realise for myself.
मराठी (1)
भावार्थ
मंत्रदृष्ट्याची बुद्धी, त्याचे मनन त्याची श्रवणशक्ती यामध्ये जेथे ओज असेल तेथे त्यांच्यामध्ये न्याय व स्नेहाची भावना असणे आवश्यक आहे. ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (इन्द्रावरुणौ) शक्ति, न्याय व स्नेह के प्रतीक दिव्यशक्तियो! (ऋषिभ्यः) मन्त्रद्रष्टाओं को (यत्) जो (मनीषाम्) विचारशक्ति सम्बन्धी (प्रेरणा वाचः) वाणियाँ (मतिम्) मननशक्ति (श्रुतम्) श्रवण शक्ति (अग्रे) पहले (अदत्तम्) तुम दोनों ने दी, उन्हें (यज्ञं तन्वानाः) यज्ञ का विस्तार करते हुए (धीराः) संयमी जन (यानि) जिन (स्थानानि) महत्त्वपूर्ण स्थिति स्थान (असृजन्त) बनाते हैं--उन को भी, मैं साधक (तपसा) तप के द्वारा (अभि अपश्यम्) देखूं अर्थात् उनका साक्षात् कर लूँ॥६॥
भावार्थ
मन्त्रद्रष्टा की बुद्धि, मनन तथा उसकी श्रवणशक्ति में जहाँ ओज होना चाहिए वहाँ उसमें न्याय व स्नेह की भावना होनी भी आवश्यक है॥६॥
विषय
गुरु और आचार्य के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( इन्द्रावरुणा ) सत्य ज्ञान के साक्षात् दर्शन करने वाले 'इन्द्र' और गुरु, आचार्य रूप से वरण करने योग्य और पापों से निवारण से करने हारे श्रेष्ठ जनो ! आप दोनों ( यत् ) जिस ( मनीषाम् ) ज्ञान की प्रेरणा, और ( याः वाचः ) जिन वाणियों और (याम् मतिम् ) जिस बुद्धि और ( यत् श्रुतम् ) गुरु द्वारा श्रवण करने योग्य जिस वेदोपदेश को ( अग्रे ) सबसे प्रथम ( अदत्तम् ) प्रदान करते हो और या जिन ( स्थानानि ) स्थानों, पदों या गृहादि शालाओं, आश्रमों वा लोकों को ( धीराः ) बुद्धिमान् लोग ( यज्ञं तन्वानाः ) यज्ञ का विस्तार करते हुए ( असृजन्त ) बनाते हैं उन सब को मैं ( तपसा अभि अपश्यम् ) तप द्वारा साक्षात् करूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुपर्णः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रावरुणौ देवते॥ छन्दः—१ जगती। २, ३ निचृज्जगती। ४, ५, ७ विराड् जगती। ६ त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥
विषय
तप से ज्ञान व उत्कृष्ट लोकों की प्राप्ति
पदार्थ
[१] हे (इन्द्रावरुणा) = जितेन्द्रियता व निर्देषता के दिव्यभावो ! आप (यत्) = जिस (मनीषां) = बुद्धि को (वाचा) = ज्ञान की वाणियों को, मतिं मननशक्ति को तथा (श्रुतं) = शास्त्रज्ञान को (ऋषिभ्यः) = ' अग्निवायु, आदित्य व अङ्गिरा' आदि ऋषियों के लिए (अग्रे) = सृष्टि के प्रारम्भ में (अदत्तम्) = देते हो। मैं भी (तपसा) = तप के द्वारा (अपश्यम्) = उन ज्ञानों का द्रष्टा बनूँ। [२] (यज्ञं तन्वानाः) = यज्ञों का विस्तार करते हुए (धीराः) = बुद्धि में रमण करनेवाले ज्ञानी पुरुष (यानि स्थानानि) = जिन उत्तम लोकों को (असृजन्त) = सृष्ट करते हैं- प्राप्त करते हैं, मैं भी तप के द्वारा उन लोकों को प्राप्त करनेवाला बनूँ ।
भावार्थ
भावार्थ-तप के द्वारा मैं ज्ञान को प्राप्त करूँ। यह तप मुझे उत्कृष्ट लोकों को प्राप्त करानेवाला
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