ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 8/ मन्त्र 3
ऋषिः - सध्वंशः काण्वः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
आ या॑तं॒ नहु॑ष॒स्पर्यान्तरि॑क्षात्सुवृ॒क्तिभि॑: । पिबा॑थो अश्विना॒ मधु॒ कण्वा॑नां॒ सव॑ने सु॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । या॒त॒म् । नहु॑षः । परि॑ । आ । अ॒न्तरि॑क्षात् । सु॒वृ॒क्तिऽभिः॑ । पिबा॑थः । अ॒श्वि॒ना॒ । मधु॑ । कण्वा॑नाम् । सव॑ने । सु॒तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यातं नहुषस्पर्यान्तरिक्षात्सुवृक्तिभि: । पिबाथो अश्विना मधु कण्वानां सवने सुतम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । यातम् । नहुषः । परि । आ । अन्तरिक्षात् । सुवृक्तिऽभिः । पिबाथः । अश्विना । मधु । कण्वानाम् । सवने । सुतम् ॥ ८.८.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(अश्विना) हे व्यापकौ ! युवाम् (नहुषस्परि) भूलोकात् (आयातम्) आगच्छतम् (अन्तरिक्षात्) अन्तरिक्षलोकात् (सुवृक्तिभिः) शत्रुतिरस्करणशक्तिभिः (आ) आयातम् (कण्वानाम्) विदुषाम् (सवने) यज्ञे (सुतम्) सिद्धम् (मधु) मधुररसम् (पिबाथः) पिबतम् ॥३॥
विषयः
पुनस्तमेवार्थमाह ।
पदार्थः
हे अश्विना=अश्विनौ ! नहुषस्परि=पञ्चम्यर्थानुवादी परिः । नहुष इति मनुष्यनाम । सामर्थ्याच्चात्र तत्संबद्धो मनुष्यलोको लक्ष्यते । मनुष्यलोकाद्वा । अन्तरिक्षाद्वा । यस्मात् कस्मादपि स्थानात् । युवाम् । सुवृक्तिभिः=सुष्ठुदोषवर्जिताभिः क्रियाभिः सह । अस्मानायातमागच्छतम् । ततः । कण्वानाम्= कमनीयानां विदुषाम् । सवने=यज्ञे । सुतमभिषुतं सम्पादितम् । मधु । पिबाथः=पिबथ ॥३ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(अश्विना) हे व्यापक ! आप (नहुषस्परि) भूलोक से (आयातम्) आवें तथा (अन्तरिक्षात्) अन्तरिक्षलोक से (सुवृक्तिभिः) शत्रुओं को तिरस्करण करनेवाले (आ) आवें (कण्वानाम्) विद्वानों के (सवने) यज्ञ में (सुतम्) सिद्ध किये हुए (मधु) मधुर रस को (पिबाथः) पान करें ॥३॥
भावार्थ
व्यापक=हे सर्वत्र प्रसिद्ध सेनाध्यक्ष तथा सभाध्यक्ष ! आप सबको वशीभूत करनेवाले तथा विद्या के मार्गप्रदर्शिता हैं। आप हमारे यज्ञ को प्राप्त होकर लौकिक तथा पारलौकिक विद्या का उपदेश करें ॥३॥
विषय
पुनः उसी अर्थ को कहते हैं ।
पदार्थ
(अश्विना) हे राजा और सचिव ! (नहुषः+परि) मनुष्य लोक से यद्वा (अन्तरिक्षात्) आकाश से जहाँ कहीं हों, वहाँ से आप दोनों (सुवृक्तिभिः) सर्वदोषरहित क्रियाओं के साथ हमारे निकट साहाय्य के लिये आवें । आकर (कण्वानाम्) कमनीय विद्वान् लोगों के (सवने) यज्ञ में (सुतम्) सम्पादित (मधु) मधु को (पिबाथः) पीवें ॥३ ॥
भावार्थ
राजा और अमात्य आदिकों को आलस्यरहित होना चाहिये और प्रजाओं के साथ भोजनादिक व्यवहार भी करना चाहिये ॥३ ॥
विषय
राष्ट्र में राजा और सचिव जनों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे (अश्विना) 'अश्व' अर्थात् राष्ट्र के स्वामी जनो ! सचिव और नृपति के तुल्य प्रधान पुरुषो ! आप दोनों ( नहुषः परि ) मनुष्य वर्ग से ऊपर (अन्तरिक्षात्) अन्तरिक्ष मार्ग से ( सुवृक्तिभिः ) उत्तम हिताचरणों और स्तुतिवाणियों सहित (आयातम् ) आया करो और ( कण्वानां) विद्वान् पुरुषों के ( सवने ) यज्ञ में ( सुतम् ) तैयार किये ( मधु ) मधुर सोम रस, हविष्य, अन्न, यज्ञ शेष और ज्ञान आदि का (पिबाथ:) पान किया करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सध्वंसः काण्व ऋषिः। अश्विनौ देवते ॥ छन्द:– १, २, ३, ५, ९, १२, १४, १५, १८—२०, २२ निचुदनुष्टुप्। ४, ७, ८, १०, ११, १३, १७, २१, २३ आर्षी विराडनुष्टुप्। ६, १६ अनुष्टुप् ॥ त्रयोविंशर्चं सूक्तम्॥
विषय
दोष-वर्जन
पदार्थ
[१] (नहुषः) = [नह बन्धने] औरों के साथ अपने को बाँधकर चलनेवाले इस निःस्वार्थ मनुष्य के (अन्तरिक्षात् परि) = हृदयान्तरिक्ष से [परिः पञ्चम्यर्थानुवादी] (सुवृक्तिभिः) = सुष्ठु दोष वर्जन के हेतु से (आयातम्) = आप प्राप्त होवो । प्राणसाधना के द्वारा ही हृदय दोषों से शून्य बनता है। [२] इस दोष शून्यता के होने पर हे (अश्विना) = प्राणापानो! आप (कण्वानाम्) = इन मेधावी पुरुषों के (सवने) = जीवनयज्ञ में (सुतम्) = उत्पन्न इस (मधु) = ओषधियों के सारभूत सोम को (पिबाथ:) = शरीर में ही पीनेवाले होवो। शरीर में व्याप्त सोम ही सब दोषों के दूरीकरण का साधन बनता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से हृदयान्तरिक्ष से सब वासना दोषों का निराकरण हो जाता है। शरीर में प्राण ही सोम को सुरक्षित करते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
Ashvins, come here from the world of humanity, from the skies, with the best of light, knowledge and technique you have collected, accept and enjoy the soma sweets of the scholars’ creations achieved and perfected in their joint programme, and assess the taste of soma.
मराठी (1)
भावार्थ
व्यापक = हे सर्वत्र प्रसिद्ध सेनाध्यक्षा व सभाध्यक्षा, तुम्ही सर्वांना वशीभूत करणारे व विद्येचे मार्गदर्शक आहात. तुम्ही आमच्या यज्ञात लौकिक व पारलौकिक विद्येचा उपदेश करा. ॥३॥
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