ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 80/ मन्त्र 2
यो न॒: शश्व॑त्पु॒रावि॒थामृ॑ध्रो॒ वाज॑सातये । स त्वं न॑ इन्द्र मृळय ॥
स्वर सहित पद पाठयः । नः॒ । शश्व॑त् । पु॒रा । आवि॑थ । अमृ॑ध्रः । वाज॑ऽसातये । सः । त्वम् । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । मृ॒ळ॒य॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो न: शश्वत्पुराविथामृध्रो वाजसातये । स त्वं न इन्द्र मृळय ॥
स्वर रहित पद पाठयः । नः । शश्वत् । पुरा । आविथ । अमृध्रः । वाजऽसातये । सः । त्वम् । नः । इन्द्र । मृळय ॥ ८.८०.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 80; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 35; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 35; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord eternal, unassailable, indefatigable, you have ever protected us since time immemorial for the sake of advancement and victory in our battles of life. Pray be kind and gracious to bless us with peace and joy as ever before.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वर सदैव जीवाचे रक्षण करतो. त्यासाठी अंत:करणपूर्वक आपल्या अभीष्टाच्या प्राप्तीसाठी त्याची प्रार्थना करावी. ॥२॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे इन्द्र ! यस्त्वम् । अमृध्रः=अहिंसकः अविनश्वरः । शश्वत्=सर्वदा । पुरा=पूर्वस्मिन् काले । नः=अस्मान् । वाजसातये=ज्ञानलाभाय । आविथ=रक्षितवान् । स त्वम् । नः=अस्मान् । हे इन्द्र ! मृळय ॥२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे ईश्वर ! (यः) जो तू (अमृध्रः) अविनश्वर चिरस्थायी देव है, इसलिये तू (शश्वत्) सर्वदा (पुरा) पूर्वकाल से लेकर आजतक (वाजसातये) ज्ञान और धनप्राप्ति के लिये (नः) हम लोगों को (आविथ) बचाता आया है, (सः त्वम्) वह तू (नः) हम लोगों को (मृळय) सुखी बना ॥२ ॥
भावार्थ
ईश्वर सदा जीवों की रक्षा किया करता है, इसलिये अन्तःकरण से अपने अभीष्ट की प्राप्ति के लिये उससे प्रार्थना करे ॥२ ॥
विषय
उत्तम रक्षक के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( यः ) जो (नः) हमें ( शश्वत् ) निरन्तर, सदा ( पुरा ) पूर्व भी, ( अमृधः ) स्वयं अन्यों की हिंसा न करने वाला और स्वयं अहिंसित होकर ( वाज-सातये ) ऐश्वर्य विभाग करने के लिये ( नः आविथ ) हमें प्राप्त होता है, ( सः ) वह ( त्वं ) तू हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ( नः मूडय ) हमें सुखी कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
एकद्यूनौंधस ऋषिः॥ १—९ इन्द्रः। १० देवा देवता॥ छन्दः—१ विराड् गायत्री। २, ३, ५, ८ निचद् गायत्री। ४, ६, ७, ९, १० गायत्री॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'शक्ति- प्रदाता' प्रभु
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (यः) = जो आप (अमृध्रः) = अहिंसित होते हुए (नः) = हमें (शश्वत्) = सदा से (पुरा) = [ पृ पालनपूरणयोः] पालन व पूरण के द्वारा (आविथ) = रक्षित करते हो। वे आप (वाजसातये) = शक्ति को प्राप्त कराने के लिये होते हैं। इस शक्ति के द्वारा ही आप हमें पालन व पूरण के योग्य बनाते हैं। [२] हे प्रभो ! (सः त्वम्) = वे आप (नः) = हमें (मृडय) = सुखी करिये।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमें शक्ति को प्राप्त कराके पालन व पूरण के योग्य बनाते हैं। इस प्रकार हमें प्रभु सुखी करते हैं।
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