ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 80/ मन्त्र 9
तु॒रीयं॒ नाम॑ य॒ज्ञियं॑ य॒दा कर॒स्तदु॑श्मसि । आदित्पति॑र्न ओहसे ॥
स्वर सहित पद पाठतु॒रीय॑म् । नाम॑ । य॒ज्ञिय॑म् । य॒दा । करः॑ । तत् । उ॒श्म॒सि॒ । आत् । इत् । पतिः॑ । नः॒ । ओ॒ह॒से॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तुरीयं नाम यज्ञियं यदा करस्तदुश्मसि । आदित्पतिर्न ओहसे ॥
स्वर रहित पद पाठतुरीयम् । नाम । यज्ञियम् । यदा । करः । तत् । उश्मसि । आत् । इत् । पतिः । नः । ओहसे ॥ ८.८०.९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 80; मन्त्र » 9
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 36; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 36; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
The yajnic name that you have won for us is the best and highest we love and desire in preference to paternal, maternal or fraternal name, since by that name only you as our master and sustainer have got us the highest identity.
मराठी (1)
भावार्थ
पितृनाम, मातृनाम, आचार्यनाम व यज्ञासंबंधी नाम हे चार नाम असतात. सोमयाजी इत्यादी यज्ञीय नाम आहेत. माणूस जेव्हा शुभ कर्म करू लागतो तेव्हापासूनच ईश्वराला आपला स्वामी समजू लागतो. ॥९॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे इन्द्र ! त्वम् । यज्ञियं=यज्ञसम्बन्धि यत्तुरीयं चतुर्थम् । नाम । अस्माकम् । करः=करोषि । तदुश्मसि=तन्नाम वयमिच्छामः । यतः । आदित्=तदनन्तरमेव । नः=अस्माकम् । त्वं पतिः । ओहसे भवसि । तदैव यज्ञं कुर्वन्तो वयं त्वां पतिं स्वीकुर्म इत्यर्थः ॥९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे इन्द्र ! (यद्) जो (यज्ञियम्) यज्ञसम्बन्धी (तुरीयम्) चतुर्थ (नाम) नाम हम लोगों का करता है, (तद्+उश्मसि) उस नाम को हम चाहते हैं, क्योंकि (आद्+इत्) उसके पश्चात् ही तू (नः+पतिः) हम लोगों का पति होता है अर्थात् तब ही यज्ञ करते हुए हम लोग तुझको अपना पति=पालक समझते और मानने लगते हैं ॥९ ॥
भावार्थ
पितृनाम, मातृनाम, आचार्यनाम और यज्ञसम्बन्धी नाम ये चार नाम होते हैं । सोमयाज आदि यज्ञिय नाम हैं । मनुष्य जब शुभकर्म में प्रवेश करता है, तब से ही ईश्वर को अपना स्वामी समझने लगता है ॥९ ॥
विषय
प्रभु का तुरीय पद।
भावार्थ
( यदा ) जब तू ( तुरीयं ) चतुर्थ, सर्वश्रेष्ठ, ( यज्ञियं ) सर्वोपास्य (नाम) स्वरूप को (करः) प्रकट करता है तब हम (तत् उष्मसि ) उसी परम स्वरूप की कामना करते हैं। ( आत् इत् ) अनन्तर ही तू ( नः मतिः ) हमारा पालक होकर हमें ( ओहसे ) अपने में ले लेता है। जाग्रत्आदि दशा से परे आत्मा का तुरीय स्वरूप है, वह अमात्र है। उसी के दर्शन से परम कल्याण है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
एकद्यूनौंधस ऋषिः॥ १—९ इन्द्रः। १० देवा देवता॥ छन्दः—१ विराड् गायत्री। २, ३, ५, ८ निचद् गायत्री। ४, ६, ७, ९, १० गायत्री॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
तुरीय यज्ञिय नाम
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (यदा) = जब आप हमारे लिये (तुरीयम्) = चौथे (यज्ञियं नाम) = पवित्र नाम को करा करते हैं, (तत्) = तो (उश्मसि) = हम आपकी प्राप्ति की ही कामना करते हैं। मन में सब के हित की भावना को लेने पर हम 'वैश्वानर' होते हैं। सर्वहितकारी कर्मों में सफलता के लिये 'तैजस' अर्थात् तेजस्वी शरीरवाले बनते हैं और मस्तिष्क में ज्ञानदीप्ति को प्राप्त करके 'प्राज्ञ' बनते हैं। अब चौथे स्थान में 'शान्त शिव अद्वैत' स्थिति को प्राप्त करते हैं। यही 'यज्ञिय तुरीय नाम' हैं। [२] इस तुरीय नाम को प्राप्त करने पर (आत् इत्) = अब शीघ्र ही (पतिः) = सर्वरक्षक आप (नः) = हमें (ओहसे) = अपने समीप प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम 'वैश्वानर, तैजस व प्राज्ञ' बनते हुए 'शान्त शिव अद्वैत' स्थिति में पहुँचें । यहीं प्रभु की प्राप्ति होती है।
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